के विक्रम राव
बीस भारतीय सैनिक, जिनकी लाशें सीमा पर चीन ने लौटाई हैं, उन्हें पीटकर, कूटकर मारा गया, शस्त्रों से नहीं| शव यही दर्शाते हैं| अर्थात हलाल की पद्धति में धीमे-धीमे हत्या की गई| तड़पा कर, यातना दे-दे कर| घूंसे, मुक्के, लात, लाठी, बेटन ही शायद प्रयुक्त हुए हों| विस्तारवादी कम्युनिस्ट चीन के सैनिकों में मानवता नहीं थी| याद कीजिये कि वुहान में चमगादड़ों के भक्षण से ही कोरोना कीटाणु उपजा है| अतः इस वहशियाना सैनिक कृति का भी प्रमाण क्या विपक्ष मांगेगा| जैसा बालाकोट बमबारी के समय माँगा था? बीजिंग के ओलंपिक (अगस्त 2008) में चीन के खिलाडी बड़े हंसमुख थे| मगर उसकी लाल सेना इतनी बर्बर क्यों?
पाकिस्तान के पराजित कप्तान वसीम अकरम ने भी कोटला में अपना विकेट लेने वाले अनिल कुम्बले को गले लगा लिया था। कुछ ऐसी ही खेल भावना वाघा सीमा पर भी दिखी (19 फ़रवरी 1999) थी, जब बस यात्री अटल बिहारी वाजपेयी सीमा पर मेजबान मियां मोहम्मद नवाज़ शरीफ को गले लगाते हैं | मगर बाद में फौजी परवेज मुशर्रफ ने कारगिल की खाई में मैत्री बस गिरा दी। नवाज़ शरीफ की सरकार भी गिरा दी गयी। आज मुशर्रफ सरीखे लोग ज्यादा पनप रहे हैं। भारत में भी|
एक दिल दुखानेवाली बाद| इस राष्ट्रीय त्रासदी की बेला पर देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी की यह सोच कि सैनिकों की हत्या सत्तासीन पार्टी पर सियासी आपदा है, तो यह जनद्रोह होगा| अक्टूबर 1962 में हजारों वर्ग मील भूभाग गंवाने और सैकड़ों जवानों की लाश गिराने पर भी आँख में पानी भरकर समूचा भारत वर्ष जवाहरलाल नेहरू के साथ खड़ा हुआ था|
सारांश यही कि यदि राजनेता, पत्रकार और साहित्यकार, बल्कि हर भारतीय भी क्रिकेटर जैसा उदारमना हो जाए ! तो ?