आशीष नौटियाल
लोकतंत्र की हत्या, फासीवाद, संस्थाओं का दुरुपयोग… ये सब कुछ ऐसे चुनिन्दा शब्द हैं, जो वर्ष 2014 से ही अचानक से कॉन्ग्रेस के प्रिय नारे बने रहे। लेकिन यह सभी शब्द कॉन्ग्रेस ने आखिर सीखे कहाँ से। इसके लिए 12 जून का इतिहास जानना आवश्यक है।
जाहिर सी बात है कि आज की कॉन्ग्रेस के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनकी बेटी इंदिरा गाँधी इतना कुछ छोड़ गए हैं कि अगर अब कभी भी यह राजनीतिक दल सत्ता में वापसी ना करे, तब भी इन्हें अपने राजनीतिक विचारधारा का भरण-पोषण कर पाने में शायद ही कोई परेशानी आएगी।
आज का दिन उस ऐतिहासिक पल का गवाह है जब फासीवादी, तानाशाह और निरंकुश इंदिरा गाँधी को इलाहाबाद की अदालत में दोषी ठहराया गया था। जून 12, 1975 की सुबह इलाहाबाद हाईकोर्ट का कोर्टरूम भीड़ से पूरी तरह भर चुका था।
आज ही के दिन जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ( Justice JML Sinha) ‘राजनारायण बनाम इंदिरा गाँधी’ के मामले में अंतिम फ़ैसला सुनाने जा रहे थे। यह एक दुर्लभ अवसर था, जब अदालतों में एक राजनीतिक लड़ाई लड़ी जा रही थी।
इस निर्णय से पहले जस्टिस जगमोहन सिन्हा किन-किन परिस्थितियों से गुजरे और उनके फैसले को प्रभावित करने के लिए इंदिरा गाँधी द्वारा किस-किस तरह के तरीके अपनाए गए, आज कॉन्ग्रेस को यह सब शायद ही याद होगा।
दरअसल, इंदिरा गाँधी को इस कोर्टरूम में खड़ा करने के पीछे कारण 1971 में रायबरेली के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गाँधी की जीत थी। यह वही लोकसभा चुनाव था, जिसमें इंदिरा गाँधी को जबरदस्त सफलता मिली थी और वो खुद रायबरेली से चुनाव जीती थीं।
इस चुनाव में इंदिरा गाँधी ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राज नारायण (Raj Narain) को आश्चर्यजनक रूप से बड़े अंतर से हराया था। आश्चर्यजनक इस कारण – क्यों की अखाड़ा राजनीति को भारतीय राजनीति का हिस्सा बनाने वाले समाजवादी राज नारायण इस चुनाव में अपनी जीत को लेकर इतने ज्यादा निश्चिंत थे कि वो अपनी जीत का जश्न और विजय जुलूस भी निकाल चुके थे।
बनारस के शाही परिवार से जुड़े होने के बावजूद राज नारायण ने रायबरेली में अपनी राजनीतिक लड़ाई शुरू करने का फैसला किया। लेकिन नतीजे आने पर कहानी पूरी तरह उलट गई। राज नारायण चुनाव हार गए। कुल मतों का केवल एक-चौथाई हिस्सा ही उनके पक्ष में था, जबकि इंदिरा गाँधी ने उन्हें लगभग दो-तिहाई मतों से हरा दिया।
लोकसभा चुनाव में मिली इस हार ने ही राजनारायण को हाईकोर्ट का रुख करने के लिए प्रेरित किया और इंदिरा गाँधी पर चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग करने पर उनका चुनाव निरस्त करने की अपील की। स्वतंत्र भारत में यह एक अनोखा मुकदमा साबित होने जा रहा था।
आखिरकार भारत के किसी प्रधानमंत्री को पहली बार अदालत के सामने पेश होने का हुक्म दिया गया। राज नारायण की तरफ से यह मुकदमा लड़ रहे मशहूर वकील शान्ति भूषण, (प्रशांत भूषण के पिता) ने कहा था –
“इंदिरा गाँधी के कोर्ट में प्रवेश करने से पहले जस्टिस सिन्हा ने कहा – अदालत में लोग तभी खड़े होते हैं जब जज आते हैं, इसलिए इंदिरा गाँधी के आने पर किसी को खड़ा नहीं होना चाहिए, लोगों को प्रवेश के लिए पास बाँटे गए थे।”
इसके कुछ देर बाद मार्च 18, 1975 को इंदिरा गाँधी अदालत पहुँची और उन्हें तकरीबन पाँच घंटों तक चुनाव और अपने निर्वाचन से समबन्धित सवालों के जवाब दिए।
इंदिरा गाँधी के खिलाफ उस मुक़दमें में राजनारायण के वकील रहे शांति भूषण ने अपनी आत्मकथा ‘कोर्टिंग डेस्टिनी’ में लिखा है –
“जब मैंने बहस शुरू की तो मुझे लगा कि जज इस मुक़दमें को कोई ख़ास महत्व नहीं दे रहे हैं। लेकिन तीसरे दिन के बाद से मैंने नोट किया कि उन पर मेरी दलीलों का असर होने लगा है और वो नोट्स लेने लगे हैं।”
इसमें जिक्र किया गया है कि किस प्रकार से जस्टिस सिन्हा अपने फैसले को गोपनीय रख पाने में सफल रहे और इसके लिए उन्हें इंदिरा गाँधी सरकार ने ‘गायब’ होने तक को मजबूर कर दिया था। जस्टिस जगनमोहन सिन्हा को देहरादून से कुछ विशेष लोगों के टेलिफ़ोन जाते थे और उन्हें अपने फैसले पर अनुकूल दिशा में निर्णय देने के लिए बाध्य करते थे।
देहरादून से जस्टिस सिन्हा को फोन करने वाले और कोई नहीं बल्कि चीफ़ जस्टिस माथुर थे जिन्होंने उनसे कहा कि गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव पीपी नैयर ने उनसे मिल कर अनुरोध किया है कि फ़ैसले को जुलाई तक स्थगित कर दिया जाए। जस्टिस सिन्हा इस बात से इतने निराश और दुखी हुए कि वो तुरंत हाईकोर्ट गए और रजिस्ट्रार को आदेश दिया कि वो दोनों पक्षों को सूचित कर दें कि फ़ैसला 12 जून को सुनाया जाएगा।
राज नारायण की ओर से यह केस लड़ रहे शान्ति भूषण के बेटे प्रशांत भूषण ने अपनी किताब ‘द केस दैट शुक इंडिया’ में लिखा हैं –
“सिन्हा अपना फ़ैसला सुकून के माहौल में लिखना चाहते थे। लेकिन जैसे ही अदालत बंद हुई, उनके यहाँ इलाहाबाद के एक कॉन्ग्रेस संसद सदस्य रोज़ रोज़ आने लगे। इससे जस्टिस सिन्हा बेहद नाराज़ हुए और उन्हें उनसे कहना पड़ा कि वो उनके यहाँ न आएँ। लेकिन जब वो इस पर भी नहीं माने तो सिन्हा ने अपने पड़ोसी जस्टिस पारिख से कहा कि वो उन साहब को समझाएँ कि वो उन्हें परेशान न करें।”
फैसले को लेकर दबाव बनाने वालों से जस्टिस सिन्हा इतने उकता चुके थे कि उन्हें अपने उज्जैन में होने की झूठी खबर तक फैलानी पड़ी थी। यहाँ तक कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने तक का भी लालच दिया गया। हालाँकि, यह भी एक सत्य है कि जब फैसला इंदिरा गाँधी के पक्ष में नहीं हुआ तो इसके बदले जस्टिस सिन्हा कभी भी सुप्रीम कोर्ट के जज नियुक्त नहीं किए गए। यह कॉन्ग्रेस की शासन प्रणाली का एक बहुत ही छोटा सा उदाहरण है।
12 जून की सुबह जस्टिस सिन्हा के सामने उनका 255 पेजों का दस्तावेज़ रखा हुआ था, जिस पर उनका निर्णय लिखा हुआ था। सुबह दस बजे अदालत की कार्यवाही शुरू करते हुए जस्टिस सिन्हा ने कहा, “मैं इस केस से जुड़े हुए सभी मुद्दों पर जिस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ, उन्हें पढूँगा।”
कुछ देर रुकने के बाद जस्टिस सिन्हा ने कहा – “याचिका स्वीकृत की जाती है।”
‘इंदिरा गाँधी अपदस्थ’
जस्टिस सिन्हा ने अपने आदेश में लिखा कि इंदिरा गाँधी ने अपने चुनाव में भारत सरकार के अधिकारियों और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया। जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को राजपत्रित सरकारी अधिकारियों की सहायता प्राप्त करने का दोषी ठहराया, जिसमें यशपाल कपूर भी शामिल थे, जो कि पीएम के सचिवालय के साथ स्पेशल ड्यूटी पर एक अधिकारी के रूप में काम कर रहे थे। साथ ही, अदालत ने इंदिरा गाँधी को याचिकाकर्ता, राजनारायण को कानूनी लागत का भुगतान करने का भी आदेश दिया।
जस्टिस सिन्हा ने अपने आदेश में लिखा कि इंदिरा गाँधी ने अपने चुनाव में भारत सरकार के अधिकारियों और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया। जन प्रतिनिधित्व कानून में इनका इस्तेमाल भी चुनाव कार्यों के लिए करना ग़ैर-क़ानूनी था। इन्हीं दो मुद्दों को आधार बनाकर जस्टिस सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का रायबरेली से लोकसभा के लिए हुआ चुनाव निरस्त कर दिया।
जून 12, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने चुनावी दुर्भावनाओं के कारण रायबरेली चुनाव को ‘नल एंड वॉइड’ घोषित किया। इसके साथ ही जस्टिस सिन्हा ने अपने फ़ैसले पर बीस दिन का स्थगन आदेश दे दिया। यानी, सत्तारूढ़ दल को इंदिरा गाँधी का विकल्प खोजने के लिए 20 दिनों का समय दिया गया था।
जस्टिस सिन्हा के इस फैसले पर लंदन के ‘द टाइम्स’ अख़बार ने लिखा था कि ये निर्णय उसी तरह था, जैसे प्रधानमंत्री को ट्रैफ़िक नियम के उल्लंघन करने के लिए उनके पद से हटा दिया जाए।
राज नारायण की याचिका में इंदिरा गाँधी के खिलाफ शामिल 7 में से 5 मुद्दों पर अदालत ने इंदिरा गाँधी को राहत दी थी, लेकिन दो मुद्दों पर इंदिरा गाँधी को दोषी पाया गया। जस्टिस सिन्हा ने जो फैसला सुनाया था उसके अनुसार जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत अगले 6 सालों तक इंदिरा गाँधी को चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया गया था।
यही वो फैसला था, जिसने देश को इंदिरा गाँधी की जिद पर आपातकाल की आग में झोंका था। यानी, एक अपराध को कम करने के लिए इंदिरा गाँधी ने उस से भी बड़ा दूसरा अपराध करना बेहतर और जरुरी समझा। जून 12, 1975 को आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद जून 25, 1975 को लगा आपातकाल 21 माह, यानी मार्च 21, 1977 तक रहा।
इंदिरा गाँधी के खिलाफ आए एकमात्र फैसले ने उनसे वो सब करवाया, जिसे फासीवाद, तानाशाही और लोकतंत्र की हत्या कहा जाता है। ये वही इंदिरा गाँधी थी, जिसने खुद को क़ानूनन अभेद्य बनाने के लिए न्यायपालिका को ही पंगु बनाने का विचार किया और संविधान में तमाम अलोकतांत्रिक संशोधन करने शुरू किए।
21 जुलाई से शुरू होने वाले मानसून सत्र के आने तक तमाम सांसद जेल में थे और जो बाकी थे उन्होंने संसद का ही बहिस्कार कर दिया। इस कदम ने इंदिरा गाँधी को और भी अधिक निरंकुश बना दिया था। फिर पत्रकारों की गिरफ्तारी से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं के खून से लोकतंत्र के इतिहास का यह कलंकित अध्याय लिखा गया।
यही वो समय था जब इंदिरा गाँधी ने नेहरु और गाँधी के उद्वरण प्रकाशित करने वाले अखबारों तक को प्रतिबंधित कर दिया, कई फिल्मों पर रोक लगा दी गई संजय गाँधी के फैसलों पर ही दिल्ली और राजनीतिक बंदियों का भाग्य निर्धारित होने लगा।
आज के तथाकथित बुद्धिजीवियों और इन्टरनेट-उदारवादियों को 12 जून का दिन आवश्यक रूप से स्मरण होना चाहिए। ताकि उनके सम्मुख लोकतंत्र की हत्या और इसके वास्तविक गुनहगारों का सटीक विवरण पता रहे।