नई दिल्ली।मध्य प्रदेश में बीते कई दिनों से चल रहे सियासी ड्रामे का शुक्रवार को कमलनाथ के इस्तीफे के साथ पटाक्षेप हो गया। इस सियासी उठापठक के केंद्र में कई किरदार रहे। इनमें से एक नाम ज्योतिरादित्य सिंधिया का है। हाल ही में भाजपा का दामन थामने वाले सिंधिया के समर्थक विधायक अपना इस्तीफा वापस लेने को तैयार नहीं हुए और आखिरकार 15 महीने पुरानी कॉन्ग्रेस सरकार की विदाई का रास्ता तैयार कर दिया।
मध्य प्रदेश की सियासत का संदेश स्पष्ट है। भले जितनी मजबूत राजनीतिक विरासत मिले, आखिर में निर्णायक जमीन और समर्थकों के बीच खुद की पकड़ ही साबित होती है। यही कारण है कि कॉन्ग्रेस के तमाम जतन के बावजूद उनके समर्थक विधायक इस्तीफा वापस लेने को टस से मस नहीं हुए। वरना विरासत में राजनीति तो कॉन्ग्रेस के शीर्ष परिवार के चिरागों को भी मिली हुई है।
कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गॉंधी के राजनीतिक कौशल पर तो अब उनके करीबियों को भरोसा नहीं रहा। इसी तरह पार्टी की महासचिव प्रियंका गॉंधी जब 2019 के आम चुनावों से पहले सक्रिय राजनीति में आईं तो उस समय के माहौल को याद करिए। उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया। लिबरल गिरोह इसे कॉन्ग्रेस का मास्टर स्ट्रोक बता रहा था। किसी ने उनकी साड़ी के बॉर्डर पर बात की तो किसी ने उनकी दादी इंदिरा जैसी नाक की। जगह-जगह पोस्टर लगे दिखाई दिए जिसमें उन्हें दुर्गा के अवतार में दिखाया। लेकिन जब नतीजे आए तो पता चला कि यूपी में कॉन्ग्रेस अपनी परंपरागत सीट अमेठी भी नहीं बचा पाई। कारण, प्रियंका को लेकर जो हाइप क्रिएट किया गया था उस तरह की न तो जमीन पर उनकी अपील थी और न समर्थकों का उन पर यकीन। आज भी वे इस चुनौती से जूझ रही हैं।
प्रियंका के साथ ही कॉन्ग्रेस ने ज्योतिरादित्य को भी महासचिव बनाया था। उन्हें पश्विमी उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया था। उसी समय कहा गया था कि कॉन्ग्रेस की अंदरूनी राजनीति के तहत उन्हें मध्य प्रदेश से दूर रखने के लिए इस मोर्चे पर लगाया गया है। इसके बाद भी पार्टी में उनकी लगातार उपेक्षा होती रहती। आखिरकार, यही कमलनाथ सरकार को भारी पड़ी और अंत में सिंधिया विजेता बनकर उभरे।
आज जिस तरह ज्योतिरादित्य के समर्थक विधायकों की बगावत मध्य प्रदेश में कॉन्ग्रेस सरकार को भारी पड़ी है, उसने लोगों को 53 साल पुराने इतिहास की याद दिला दी है। तब डीपी मिश्रा के नेतृत्व वाली कॉन्ग्रेस सरकार ज्योतिरादित्य की दादी राजमाता विजयराजे सिंधिया की उपेक्षा की भेंट चढ़ी थी। इसके बाद राज्य में पहली बार गैर कॉन्ग्रेसी सरकार बनी थी।
यह घटना 1967 की है। द्वारका प्रसाद मिश्रा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। ग्वालियर में छात्रों का आंदोलन चल रहा था। मिश्रा लगातार राजमाता की उपेक्षा कर रहे थे जो उस समय कॉन्ग्रेस में ही थीं। राजमाता ने अलग राह चुनने का फैसला किया। उस समय कॉन्ग्रेस के 36 विधायक भी उनके साथ खड़े हुए। ठीक उसी तरह जैसे आज 22 विधायक ज्योतिरादित्य के साथ डटे थे।
इन 22 विधायकों की बगावत के कारण ही कमलनाथ और दिग्विजय सिंह तमाम जतन के बावजूद राज्य में पार्टी की सरकार नहीं बचा पाए। इन 22 का समर्थन जमीन पर ज्योतिरादित्य की पकड़ को भी साबित करता है। लेकिन, यही आज की कॉन्ग्रेस का सबसे बड़ा संकट भी है। जिनके पास पकड़ है वे पार्टी में उपेक्षित हैं। जो मुख्य किरदार में हैं उनके पास दादी की विरासत भले हो पर वैसा असर कहीं नहीं दिखता।