नई दिल्ली। कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए किये गये समझौते के बाद भारत की अफगान नीति तो बहुत कुछ तालिबान और पाकिस्तान के संबंधों पर निर्भर करेगी। लेकिन फिलहाल यह संकेत मिल रहा है कि भारत की तालिबान को लेकर सोच बदल रही है और जमीनी हकीकत को देखते हुए नीति में बदलाव की गुंजाइश भी रखी जा रही है। भारत ने कहा है कि वह आगे भी अफगानिस्तान की जनता व वहां की सरकार को शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक व संपन्न भविष्य के लिए हरसंभव मदद देता रहेगा।
भारत की चिंता की वजहें
-पूर्व में पाकिस्तान की एजेंसी के तौर पर काम करता रहा है तालिबान
-तालिबान के आने से कश्मीर व दूसरे हिस्सों में सुरक्षा को लेकर चिंता
-भारत की मदद से चलाई जा रही हैं 500 से ज्यादा परियोजनाएं
-ईरान व अफगान के जरिए मध्य पूर्व एशियाई पहुंचने की योजना पर संशय
अफगानिस्तान में शांति व स्थायित्व की जाए बहाल
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा है कि भारत की यह निरंतर नीति रही है कि अफगानिस्तान में शांति, सुरक्षा व स्थायित्व स्थापित करने और हिंसा व आतंक को नष्ट करने की हर संभावनाओं को मदद दी जानी चाहिए। भारत इस बात का भी समर्थन करता है कि हर तरह के अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से अफगानिस्तान का संबंध काटा जाना चाहिए व वहां अफगानी जनता की तरफ से व उनके नियंत्रण वाले राजनीतिक व्यवस्था होनी चाहिए। हमने यह देखा है कि अफगानी राजनीति के सारे पक्ष मसलन वहां की सरकार, लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिस्सा लेने वाले दूसरे लोग, सिविल सोसायटी के लोगों ने इस समझौते का स्वागत किया है व उम्मीद जताई है कि समझौते से वहां शांति व स्थायित्व बहाल की जाएगी।
हर पक्ष के हितों की हो रक्षा
भारत अफगानिस्तान से लगा हुआ पड़ोसी है और वह वहां की सरकार व जनता को पूरा मदद करने को तैयार है ताकि वह शांतिपूर्ण व लोकतांत्रिक व संपन्न देश में हर पक्ष के हितों की रक्षा हो सके। यहां जान बूझ कर भारत को मिला हुआ पड़ोसी के तौर पर बताया गया है तो भारतीय संविधान व संसद में पारित प्रस्ताव के मुताबिक सच्चाई भी है। भारत पाक अधिकृत कश्मीर को भी अपना हिस्सा मानता है। इसलिए उसने ऐसा कहा है।
सनद रहे कि भारत के विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला कल 28 फरवरी को ही काबुल पहुंच थे जहां उनकी राष्ट्रपति अशरफ घनी, सीईओ अबदुल्लाह अबदुल्लाह व वहां सरकार के अन्य तमाम बड़े नेताओं से बात की है। इस दौरान बामयान से मजार ए शरीफ के बीच भारत की मदद से सड़क निर्माण के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर भी हुआ है। साथ दूसरी रणनीतिक समझौतों पर भी बात हुई है।
तालिबान के साथ भारत के संबंध रखना बेहद मुश्किल
पूर्व में तालिबान पूरी तरह से पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ के शिकंजे में रहा है उसी तरह से आगे भी रहता है तो भारत के लिए उसके साथ संबंध रखना बेहद मुश्किल होगा। भारतीय विमान का अपहरण करवा कर आतंकी मसूद अजहर को रिहा कराने में उनकी सबसे अहम भूमिका रही। बाद में अजहर ने ना सिर्फ भारतीय संसद व कश्मीर में आत्मघाती हमला करवाया बल्कि जम्मू व कश्मीर में आतंकी हमला के लिए विशेष प्रशिक्षण तालिबान से हासिल किया। अफगानिस्तान में भारत की तरफ से चलाये जाने वाले विकास कार्यो को भी कई बार तालिबान ने निशाना बनाया।
लेकिन अगर हालात बदले दिखते हैं तो भारत सतर्क संबंध रखना चाहेगा। खास तौर पर जिस तरह से ईरान से अफगानिस्तान को सड़क व रेल मार्ग से जोड़ कर भारत इसके जरिए मध्य पूर्व एशियाई देशों से अपने रिश्तों को आगे बढ़ाना चाहता है। यही वजह है कि भारत की भावी रणनीति के पूरी तरह से तालिबान व पाकिस्तान के भावी रिश्तों से तय होने की बात कही जा रही है। यह भी देखना होगा कि तालिबान को नई सत्ता में कितनी हिस्सेदारी मिलती है और लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई मौजूदा अशरफ घनी सरकार की क्या भूमिका होती है। तालिबान की तरफ से इस बात के कोई संकेत नहीं दिए गए हैं कि वह घनी सरकार को सत्ता में कोई भागीदारी देने को इच्छुक है।