नई दिल्ली। दिल्ली में दंगाइयों ने तीन दिन से पूरे महानगर को अशांत कर रखा है। इसमें उनका पूरा साथ दे रहा है मीडिया का एक बड़ा वर्ग, जो बिलकुल ही नहीं चाहता कि दंगाई अगर मुस्लिम भीड़ की शक्ल में आएँ तो उनकी पहचान उजागर हों। वहीं दो-चार भाजपा नेता के बयानों को लेकर ऐसा हंगामा मचाया जा रहा है, जैसे बाबर को उन्होंने ही भारत बुला कर कत्लेआम करवाया था। ये ट्रेंड तभी शुरू हो गया था, जब दिल्ली में हिंसा की घटनाएँ शुरू हुई थी। जैसे विधानसभा चुनाव से पहले अनुराग ठाकुर के नाम पर बिल फाड़ा जा रहा था, अब कपिल मिश्रा को बलि का बकरा बना कर असदुद्दीन ओवैसी, वारिस पठान, शरजील इमाम और भड़काऊ बयान देने वाले तमाम लोगों को बचाया जा रहा है।
मीडिया का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि दिल्ली पुलिस को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाए और ये साबित किया जाए कि ‘हिंदुत्व के गुंडे’ पुलिस के साथ मिल कर मुस्लिमों को मार रहे हैं। हम ऐसे ही प्रपंची मीडिया पोर्टलों की पोल खोलने जा रहे हैं, एक-एक कर। साथ ही हम इस लेख में उनके प्रपंच का जवाब देने से भी नहीं चूकेंगे क्योंकि झूठ व भ्रम फैलाना उनका पुराना पेशा रहा है।
पुलिस ने एक्शन नहीं लिया: द क्विंट
‘द क्विंट’ का सवाल है कि आखिर पुलिस ने एक्शन लेने से पहले अपने राजनीतिक बॉस के आर्डर का इंतजार क्यों किया? पहली बात तो ये कि मीडिया पोर्टल को कैसे पता चला कि पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई थी और अमित शाह का आदेश आने के बाद ही पुलिस सक्रिय हुई। साथ ही ‘द क्विंट’ ने कई आपराधिक मामले झेल रहे अमानतुल्लाह ख़ान और भाजपा नेता कपिल मिश्रा की तुलना करने का प्रयास किया। अर्थात, इन्होने अमानतुल्लाह की बात तब की, जब इन्हें कपिल मिश्रा को दंगों का कारण साबित करना था। और पुलिस अपने संवैधानिक नेतृत्व से आदेश नहीं लेगी तो मीडिया से लेगी?
अख़बार वही छापें, जो हम कहें: न्यूज़लॉन्ड्री
ये एक ऐसा प्रोपेगंडा पोर्टल है, जो चाहता है कि सारे समाचारपत्र इसके हिसाब से ही चलें। अर्थात, ‘दैनिक जागरण’ ने सरसंघचालक मोहन भागवत का बयान छाप दिया तो दिक्कत, उसने पहले पेज पर एड दे दिया तो दिक्कत और ट्रम्प-मोदी की रैली को कवरेज दी तो दिक्कत। यानी, कोई अख़बार भागवत का बयान न छापे। क्या वो अपराधी हैं? नहीं। कोई अख़बार अब किसी भी प्रकार का एडवर्टाइजमेंट के लिए अब ‘न्यूज़लॉन्ड्री’ से अनुमति ले। क्या ‘न्यूज़लॉन्ड्री’ मीडिया का दादा बन गया है? मोदी-ट्रम्प की रैली में सवा लाख लोग आए थे तो उसे कवर न किया जाए?
रोड जाम तो करना ही पड़ेगा, नहीं तो अटेंशन कैसे मिलेगा: द प्रिंट
‘द प्रिंट’ कई मामलों में मीडिया के इस वर्ग को लीड करता है। जैसे, ये बताना कि फलाँ मामले में वामपंथियों का प्रपंची नैरेटिव क्या रहेगा? इस बार भी न्यूज़ पोर्टल ने कुछ ऐसा ही किया। वो पूछता है कि क्या रोड जाम कर देना इतना बड़ा गुनाह है कि कोई क़ानून अपने हाथ में ले ले? पहली बात तो ये कि 2 महीने से रोड जाम करने से लाखों लोगों को प्रतिदिन परेशानी हुई। दूसरी बात, क़ानून हाथ में किसने लिया? इस्लामी टोपी पहने वो 40 लोग कौन थे, जिन्होंने ब्रह्मपुरी में विनोद कुमार को मार डाला? साथ ही ‘द प्रिंट’ रोड जाम करने को सही ठहराता है और कहता है कि तभी तो अटेंशन मिलेगा।
‘द प्रिंट’ दावा करता है कि गृहमंत्री अमित शाह हिंसा भड़का रहे हैं क्योंकि दिल्ली में भाजपा की हार हुई है। भाजपा की हार तो झारखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और महाराष्ट्र में भी हुई है। वहाँ क्यों नहीं हिंसा भड़की? वो सब तो बड़े-बड़े पूर्ण राज्य हैं, जबकि दिल्ली तो पूर्ण राज्य भी नहीं है। मुंबई में भी सीएए विरोधी आंदोलन हुए लेकिन वहाँ ‘शाह ने हिंसा क्यों नहीं भड़काई?’
केंद्र सरकार ही तो हिंसा करा रही है: स्क्रॉल
प्रोपेगंडा पोर्टल ‘स्क्रॉल’ ने सारा इल्जाम भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर लगा दिया। साथ ही पोर्टल ने कहा कि पुलिस भी सरकार के साथ मिल कर मुसलमानों को मार रही है। लगता है स्क्रॉल अभी भी ‘कॉन्ग्रेस वाले हैंगओवर’ में जी रहा है क्योंकि उसका ‘वैज्ञानिक तर्क’ है कि सत्ता के संरक्षण के बिना ऐसी हिंसा हो ही नहीं सकती। साथ ही उसने भाजपा के बड़े नेताओं की ‘चुप्पी’ ओर सवाल खड़े किए हैं। यानी, भाजपा नेता कुछ बोलें तो वही बयान हिंसा का कारण बन जाएगा और कुछ न बोलें तो पूछा जाएगा कि चुप क्यों हैं? चित भी मेरी और पट भी।
कितना गाँधीवादी है शाहीन बाग़ का आंदोलन: नवजीवन
ये कॉन्ग्रेस का हिंदी मुखपत्र है, ‘नेशनल हेराल्ड’ का हिंदी संस्करण। इसका कहना है कि शाहीन बाग़ का आंदोलन काफ़ी गाँधीवादी है। क्या राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को गाली देकर अपना गाँधीवाद दिखाया जाता है? शाहीन बाग़ प्रोटेस्ट के मुख्य साजिशकर्ता शरजील इमाम ने भी तो यही किया। उसने गाँधी को बीसवीं सदी का सबसे बड़ा फासिस्ट नेता बताया। जिस आंदोलन के नेता ही गाँधी को फासिस्ट कहे, वो आंदोलन गाँधीवादी कैसे?
प्रोपेगंडा पोर्टल ने आगे लिखा है कि शाहीन बाग़ में मजहबी नारे नहीं लगे। तो वहाँ पर ‘तेरा-मेरा रिश्ता क्या’ कौन लोग बोल रहे थे? वहाँ हिन्दुओं के प्रतीक चिह्नों को गाली दी गई, वो क्या था? वहाँ एक के बाद एक मजहबी नारे लगे लेकिन कॉन्ग्रेस के मुखपत्र ने झूठ पर झूठ परोसा।
दक्षिणपंथी हिन्दू ग्रुप मुस्लिमों को मार रहा है: ब्लूमबर्ग
जब भारत में रह रहे लोगों को बरगलाने में वामपंथी मीडिया पोर्टल कामयाब हो सकते हैं तो फिर भारत के बाहर रह रहे लोगों के मन में देश की नकारात्मक छवि बिठाना तो उनके बाएँ हाथ का खेल हो जाता है। अब विदेशी लोगों को ग्राउंड की जानकारी है नहीं, ‘ब्लूमबर्ग’ जैसे संस्थान उन्हें झूठ परोसते हैं। भारत में भी एक गुट द्वारा इसे ख़ूब शेयर किया जाता है क्योंकि कुछ लोग ‘विदेशी मीडिया’ को ही मानते हैं। इस पोर्टल ने तो सीधा दावा कर दिया कि मुस्लिम शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे और हिन्दुओं ने हमला कर दिया।
‘ब्लूमबर्ग’ ने बिना किसी सबूत के हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए मनगढंत आरोप लगाए और झूठे दावे कर दिए। अगर हिन्दू गुंडे बन गए हैं तो फिर मरने वालों में हिन्दू क्यों हैं? विदेशी मीडिया में इस तरह के प्रपंच सालों से चल रहा है।
हिंदुत्व के गुंडों ने सीएए विरोधियों को मारा: द वायर
बात अगर प्रपंच की हो रही हो और उसमें ‘द वायर’ का नाम न आए तो शायद पूरा लेख ही अधूरा रह जाएगा। इसने तो बिना किसी सबूत के दावा कर दिया कि हिंदुत्व के ‘गुंडे’ सीएए विरोधियों को मार रहे हैं। जबकि सच्चाई ये है कि सीएए के ख़िलाफ़ किसी भी रैली को सीएए समर्थकों ने नुकसान नहीं पहुँचाया लेकिन सीएए के समर्थन में जहाँ भी रैली हुई, मुस्लिम भीड़ ने पत्थरबाजी की।
साथ ही ‘द वायर’ ने दिल्ली हिंसा पर वामपंथियों का फेवरिट फॉर्मूला अपनाया और कपिल मिश्रा पर दंगे भड़काने के आरोप लगाए। हालाँकि, इस दौरान उसने शरजील इमाम, ओवैसी, वारिस पठान और अन्य भड़काऊ मुल्ला-मौलवियों के आपत्तिजनक बयानों का जिक्र नहीं किया।