नई दिल्ली। दिल्ली की शिक्षा में क्रांति हो गई! यह केवल आम आदमी पार्टी या दिल्ली सरकार का ही दावा नहीं है। सोशल मीडिया पर तस्वीरें देख विशेषज्ञ बने लोग भी यह कहते सुनाई पड़ते हैं। 8 स्कूलों की मनभावन तस्वीर और बीते एक साल की कुछ गतिविधियों की बातें सोशल मीडिया पर फैलाकर माहौल ऐसा बनाया गया मानों दिल्ली के स्कूलों में कमाल हो गया। दिल्ली के स्कूलों के लिए बनाए गए हवा की मौजूदगी अगले महीने होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी महसूस किया जा रहा है।
सरकारी स्कूलों के साथ काम करने वाले बखूबी जानते हैं कि दिल्ली के सरकारी स्कूल देश के बाकी हिस्सों के स्कूलों से पहले से ही बेहतर हैं। दिल्ली के प्रतिभा विकास विद्यालय की गिनती देश के अच्छे स्कूलों में बीते दो दशकों से होती आई है। जब देश के बाकी हिस्सों में बच्चे पेड़ की छॉंव में बैठ पढ़ते थे, दिल्ली के सरकारी स्कूलों के पास तब भी अच्छे भवन हुआ करते थे। इसलिए दिल्ली के स्कूलों को 5 साल में ही बदतर से विश्व स्तरीय बनाने का दवा हास्यास्पद है। वैसे भी एक चौथाई बजट से महज हजार स्कूल चलाने वाले दिल्ली की तुलना देश के बाकी राज्यों से करने का काम भी एक निहायत बेवकूफ ही कर सकता है। यह कुछ वैसा ही है जैसे बस्तर के स्कूलों की तुलना बोस्टन (अमेरिका) के स्कूलों से की जाए।
दिल्ली के स्कूलों में अभी हाल के महीनों में शिक्षा के नाम पर हुए राजनीतिक प्रयोग को बगैर किसी रिसर्च के सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया और इसे आदर्श शिक्षा मॉडल मानते हुए बाकी जगहों पर लागू करने की वकालत हुई। लेकिन जिस दिल्ली में शिक्षा क्रांति होने की बात लोग करते हैं, वह खूबसूरत तस्वीरों की आड़ में कई ऐसे तथ्य छुपाए हुए है जो मुख्यधारा की चर्चा से गायब है या लोग इससे अनजान हैं।
स्कूली शिक्षा से दूर किए जा रहे लाखों बच्चे
वर्ल्ड क्लास शिक्षा के दावों के उलट दिल्ली के लगभग आधे बच्चे हर साल नौवीं कक्षा में ही फेल कर दिए जाते हैं। कुछ यही हाल 11वीं का है, जहाँ एक तिहाई बच्चे हर साल फेल हो रहे हैं। ऐसी स्थिति देश के किसी राज्य में नहीं है। बात केवल पास-फेल तक सीमित नहीं है। सरकार की अघोषित नीति के तहत फेल हुए बच्चों को दुबारा परीक्षा में बैठने से भी वंचित किया जा रहा है। केवल सत्र 2017-18 में ही 66 फीसदी बच्चों को दुबारा नामांकन नहीं लेने दिया गया और एक लाख से भी अधिक बच्चे स्कूली शिक्षा से बाहर हो गए। सबसे अधिक प्रभावित 10वीं और 12वीं में फेल हुए बच्चे थे, जिनमें से 91 फीसदी बच्चों को दुबारा नामांकन नही मिला। ये बात सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय को खुद बताई है।
ये केवल एक सत्र की बात नहीं है। यही हाल 5 साल रहा। शिक्षा क्रांति के नाम पर देश की राजधानी में ही लाखों बच्चों को चुपचाप स्कूली शिक्षा से निकाल दिया गया, लेकिन कहीं आवाज़ नहीं उठी। अगर ऐसी स्थिति किसी और राज्य में होती तो कोहराम मच जाता। बाल अधिकार के झंडेबरदार सरकार से सवाल पूछते। बुद्धिजीवी लेख लिखते। मसला सुप्रीम कोर्ट में होता।
परीक्षा के नतीजे क्या कहते हैं?
12वीं के परिणाम में आंशिक सुधार पर आप सरकार अपनी पीठ खूब थपथपाती है। लेकिन यह नहीं बताती कि जबसे उसकी सरकार बनी है, हर साल 12वीं की परीक्षा में बैठने वाले बच्चे बड़ी तेजी से क्यों घट रहे हैं? दिल्ली सरकार के आँकड़ों को ही देखे तो 2005 से 2014 तक परीक्षा में बैठने वाले बच्चों की जो संख्या 60,570 से बढ़कर 1,66,257 हो गई थी, वह 2015 के बाद हर साल घटते-घटते 2018 में 1,12,826 तक पहुँच गई! क्या यह एक चिंताजनक स्थिति नहीं है! यही नहीं सरकारी स्कूलों के द्वारा प्राइवेट को पहली बार पछाड़ने का दावा भी गलत है। 2005 में 13 अंकों से पिछड़ने के बाद दिल्ली के सरकारी स्कूलों ने प्राइवेट स्कूलों से न केवल बराबरी की, बल्कि उन्हें 2009 और 2010 में लगातार पछाड़ा भी है। अगर बीते 10 सालों का ही आँकड़ा देखें तो 12वीं के परिणाम कभी 85 फीसदी से कम नहीं रहा।
आप सरकार 12वीं के परिणाम का श्रेय लेना चाहती है। शिक्षकों और बच्चों की मेहनत की बजाए इसे अपनी उपलब्धि बताती है। लेकिन जैसे ही बात 10वीं के ख़राब परिणाम की आती है तो चुप्पी छा जाती है। कोई नहीं बताता कि सरकारी स्कूल के परिणाम प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले में कहीं नहीं टिकते और उनके बीच का फासला लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इस वर्ष दिल्ली के सरकारी स्कूलों का परिणाम 71.58 फीसदी और प्राइवेट स्कूलों का 93.12 फीसदी था। पिछले सत्र में यह आँकड़ा क्रमशः 69.32 फीसदी और 89.45 फीसदी था। अंतर साफ़ है। पिछले साल 20 अंक से पीछे थे, इस साल 21 अंकों का फासला है। वर्ष 2001-02 में 45 अंकों से पीछे रहने वाले जिन सरकारी स्कूलों ने 2013 में प्राइवेट स्कूलों को पीछे छोड़ दिया था, आज दो सालों से राष्ट्रीय औसत से भी काफी कम और 13 साल के न्यूनतम परिणाम के आँकड़ें से भी पीछे हैं। बावजूद इसकी जिम्मेवारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है।
क्यों घट रहे हैं नामांकन?
2018-19 में आई दिल्ली के इकॉनोमिक सर्वे की रिपोर्ट कहती है कि स्कूलों में नामांकन लगातार घट रहे हैं। सत्र 2013-14 में जहाँ दिल्ली के 992 स्कूलों में 16.10 लाख विद्यार्थी पढ़ते थे, 2017-18 आते-आते स्कूलों की संख्या बढ़कर 1,019 तो हो गई, लेकिन बच्चों की संख्या घटकर 14.81 लाख पर पहुँच गई। इसी दौरान प्राइवेट स्कूलों की संख्या 2,277 से घटकर 1,719 हो गई। लेकिन नामांकित बच्चों की संख्या 13.57 लाख से बढ़कर 16.21 लाख हो गई। सरकारी स्कूल बढ़े, नामांकन नही बढ़ रहे। ये क्या है!
इकॉनोमिक सर्वे इस ओर भी इशारा करती है कि दिल्ली में आज भी अनेकों बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित हैं। 2014-15 में दिल्ली के सभी शैक्षिक संस्थानों में स्कूली शिक्षा ले रहे बच्चों की संख्या 44.13 लाख थी, वह 2017-18 में घटकर 43.93 लाख पर आ गई। चिंता की बात है कि दिल्ली की जनसँख्या बढ़ी तो बच्चे कहाँ गए!
निगम के स्कूलों से भेदभाव
दिल्ली सरकार के पास केवल 1,030 स्कूल हैं। वहीं दिल्ली नगर निगम के जिम्मे लगभग 1,700 स्कूल हैं। प्राथमिक कक्षाएँ अब तक नगर निगम के स्कूलों में लगती थी। वहीं माध्यमिक शिक्षा के लिए बच्चे दिल्ली सरकार के स्कूलों में जाते थे। 2017 में एमसीडी चुनाव में जब करारी हार मिली तो अपने अधीन के स्कूलों में घटते नामांकन को रोकने और निगम के स्कूल बंद करने के इरादे से आप सरकार ने बड़ी संख्या में अपने स्कूलों में प्राथमिक कक्षाओं में नामांकन लेना आरंभ कर दिया। 2014-2018 के बीच रिकॉर्ड 319 स्कूलों में प्राथमिक कक्षाएँ शुरू की गई। आज 720 सर्वोदय विद्यालयों में प्राथमिक कक्षा चल रही है। यही नहीं 144 स्कूलों में नर्सरी की पढ़ाई शुरू कर दी गई ताकि दिल्ली नगर निगम के स्कूल धीरे-धीरे खत्म हो जाए। निगम के स्कूलों से राजनीतिक बदला लेने की नीयत से शिक्षकों के वेतन में देरी, स्कूलों के विकास पर ध्यान देने की बजाए उसे ख़राब साबित करने में ही सरकार जुटी रही। इन सबके बावजूद सरकारी स्कूल की बजाए बच्चे प्राइवेट का ही रुख कर रहे हैं।
साइंस, गणित की पढ़ाई का बुरा हाल
जब पूरी दुनिया विज्ञान और तकनीकी के अध्ययन पर जोर दे रही है, आज दिल्ली के एक तिहाई से भी कम सरकारी स्कूलों में विज्ञान की पढ़ाई उपलब्ध है। संसाधन की कमी का बहाना बनाकर आज दो तिहाई स्कूलों में बच्चों को सामाजिक विज्ञान या फिर चुनिंदा स्कूलों में वाणिज्य विषय लेकर पढ़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है। गरीब के बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बनने का केवल स्वप्न ही देख सकते हैं, उसे पूरा नहीं कर सकते।
दिल्ली में अच्छी शिक्षा की कल्पना में विज्ञान के साथ-साथ गणित भी शामिल नहीं है। 2020 में सीबीएसई ने 10वीं की परीक्षा में बेसिक मैथ को गणित विषय के एक आसान विकल्प के रूप में दिया तो देश भर से 30 फीसदी बच्चों ने इसे चुना। वहीं दिल्ली के रिकॉर्ड 73 फीसदी बच्चों ने बेसिक मैथ चुना ताकि वे गणित में फेल न हो सकें। दिल्ली सरकार ने बजाप्ता सर्कुलर निकाल कर शिक्षकों को कहा कि वे बच्चों को समझाकर बेसिक मैथ लेने को कहें।
शिक्षकों की भारी कमी, गुणवत्ता पर भी सवाल
दिल्ली में विज्ञान, गणित, पंजाबी, संस्कृत, उर्दू जैसे विषयों को पढ़ाने वाले शिक्षकों की भारी कमी है। हजारों शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। इनकी भरपाई भारी संख्या में नियुक्त उन अतिथि शिक्षकों से की जा रही है जिनकी गुणवत्ता पर सवाल उठ रहे हैं। हाल ही में सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय को बताया कि 21,135 अतिथि शिक्षकों में से 16,383 शिक्षक नियुक्ति के लिए हुई परीक्षा में न्यूनतम अंक भी नही ला सकें। इस परीक्षा में केवल 1,335 शिक्षक ही अंतिम रूप से चयनित हुए। आप इन्हीं शिक्षकों को स्थायी करने का दावा करती है। केवल शिक्षक ही नही, स्थायी प्राचार्य की कमी से भी दिल्ली के विद्यालय बेहद प्रभावित हैं। आज लगभग दो तिहाई स्कूलों में प्राचार्य के पद खाली हैं। ये स्कूल आधे-अधूरे अधिकार लिए उप-प्राचार्यों के सहारे चल रहे हैं।
बहुचर्चित शिक्षा बजट भी आँकड़ों की बाजीगरी ही है, जो विधानसभा के पटल पर कुछ और जबकि वास्तविक खर्च में कुछ और दिखता है। दिल्ली की आर्थिक क्षमता बढ़ी लेकिन पहले की तरह आज भी दिल्ली कुल सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) का 2 फीसदी भी शिक्षा के लिए आवंटित नही करता।
500 नए स्कूल, 17000 शिक्षकों की बहाली, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के वादे भूल गिने-चुने स्कूलों की तस्वीर दिखाकर यह बताने की कोशिश हो रही है कि शिक्षा में क्रांति आ गई है। असल मुद्दे गायब हैं! सवाल है इस कथित क्रांति से बच्चों को क्या फायदा हुआ जब आज भी दिल्ली के लाखों बच्चें स्कूली शिक्षा से वंचित किए जा रहे हैं।
दरअसल आप की शिक्षा क्रांति, उस खूबसूरत सी दिखने वाली रंगीन बैलून की तरह है, जो बाहर से देखने में मनभावन तो लगती है लेकिन अंदर से बिल्कुल खोखला है। प्रचार तंत्र के साए में वाहवाही बटोरने वाली ये बैलून जब फूटेगी तो शिक्षा के क्षेत्र में कुछ बदल जाने की आस पाले कइयों के भरोसे टूटेंगे। फिलहाल दिल्ली के गरीब लोगों के बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण सरकारी शिक्षा एक स्वप्न ही है।