प्रभात रंजन दीन
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और ईरान में एक सेनाधिकारी की हत्या के खिलाफ भारतवर्ष में हो रहे अवांछित (un-wanted) और असंवैधानिक (un-constitutional) धरना-प्रदर्शनों और हिंसा को लेकर ‘मित्रों के चेहरे वाली किताब’ (Facebook) पर मैंने दो-तीन लेख लिखे। इन लेखों पर सैकड़ों सार्थक-सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलीं। सत्तर साल से हम धर्म-निरपेक्षता, प्रगतिशीलता और बुद्धिजीविता की खाल ओढ़े भेड़ियों का शिकार होते आए हैं। नकाब नोच कर उनका असली चेहरा दिखाने की कोशिश करते ही संगठित झुंड बिलबिला उठता है। सारी बुद्धिजीविता ताक पर चली जाती है और तथ्यों के बजाय कीचड़ उछालने का सड़ियल तौर-तरीका शुरू हो जाता है। तथ्यहीनता और तर्कहीनता को छुपाने के लिए छद्मी जमातें ऐसा ही दांव आजमाती हैं। किसी विचार पर तार्किक सहमति या तार्किक असहमति दोनों ही स्वागत योग्य होती है। साथी आवेश तिवारी जी ने मेरे लेख पर जो लिखा उसके लिए लिखे के बजाय ‘उछाला’ अधिक सटीक है… फिर भी मुझे उनसे उम्मीद है, इसलिए मैं उनका आह्वान कर रहा हूं कि वे अपने ‘उछाले’ को जमीन पर ‘बिछाले’। जमीनी यथार्थ समझे और छद्म के फैशन से विदा ले। साथियों, आप सब भी इसे पढ़ें, बहस में शरीक हों… शायद कहीं यह मसला किसी वैचारिक परिणति तक पहुंच पाए…
प्रिय आवेश जी, मैं समझता था कि आप एक समझदार व्यक्ति हैं… लेकिन अच्छा ही हुआ कि आप अपनी भी पहचान दे बैठे। हालांकि, जितना मैं आपको जानता हूं, मुझे अभी भी आपसे उम्मीद है कि आप अपना छद्म-कवच उतार फेकेंगे, क्योंकि अब समय छद्म के फैशन को ओढ़े रखने का नहीं है। सत्तर साल से ओढ़े-ओढ़े देश का सत्यानाश कर दिया।
आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि मैं जो भी लिखता हूं, वह मेरा फैशन नहीं होता, उसके पीछे कोई भौतिक लाभ-लोभ का रत्ती भर भी स्थान नहीं होता। मेरे लिखे को किसी खास राजनीतिक फ्रेम में कस देना, सच्चाई से पलायन करने जैसा है और मैं मानता हूं कि किसी विचार या लेख को एक खास फ्रेम में कस देना सुनियोजित षडयंत्र के दायरे में आता है। तथ्यों का आप मुकाबला नहीं कर सकते तो आसान है उसे किसी एक खास फ्रेम में कस कर उसे isolate या segregate कर देना… उसे अछूत बना देना, जैसा दलितों के साथ किया गया। आप यह बखूबी जानते हैं कि मैं मुक्त विचारधारा का व्यक्ति हूं, किसी भी राजनीतिक दल का विचार ओढ़ने से अच्छा आत्महत्या कर लेना समझता हूं। देश समाज के बारे में भावुकता से सोचना किसी राजनीतिक दल और नेता की बपौती नहीं होती… इसे साफ-साफ समझ लेना चाहिए।
आपने जो प्रतिक्रिया दी, उसे अगर सोच-समझ कर लिखा होता तो आरोप का सतही सहारा लेने के बजाय तर्कों और तथ्यों पर बात करते। मैंने जो लिखा, आपने उसमें से एक लाइन अपनी सुविधा से बाहर निकाल ली… ‘मुसलमान हैं तो भारत कहीं प्राथमिकता पर नहीं।’ चलिए इसी एक लाइन पर बात करते हैं… आपने लिखा कि मैंने generalize कर दिया। शायद इस अंग्रेजी शब्द को ही हिन्दी में ‘सामान्यीकरण’ कहते हैं। इसे ही ‘सरलीकरण’ भी कहते हैं। चलिए आपने इतना तो माना कि गुत्थियों में उलझे इस गूढ़ मसले को मैंने ‘सरलीकृत’ कर दिया… उसे सरल बना कर कह दिया। मैंने अपने लेख की शुरुआत में ही कहा कि बहुतायत में भारतवर्ष घृणित किस्म के लोगों का देश बन गया है। बहुतायत शब्द का इस्तेमाल इसीलिए होता है कि उसमें पूरी संख्या (complete number) शामिल नहीं होती और न अपवाद शामिल होता है। अब आप बताएं कि क्या बहुतायत में मुसलमानों की प्राथमिकता पर भारतवर्ष है..? एक भी उदाहरण बताएं जिसमें बहुतायत में मुसलमानों ने यह प्रदर्शित किया हो कि भारतवर्ष उनकी प्राथमिकता पर है। एक ऐसा उदाहरण बताएं जिसमें बहुतायत में मुसलमानों ने जताया हो कि भारतवर्ष उनका अपना देश है। एक भी उदाहरण नहीं है… कुछ दुर्लभ अपवादों को छोड़ कर। आपने अपना विद्वत विचार दिया कि ‘वे चाहे किसी के लिए भी रोते हों, रोने का मतलब है कि उनकी उम्मीद बाकी है।’ आप फिर मुझको इंगित करते हुए लिखते हैं, ‘आप तो रोना ही भूल गए।’ क्या लिख रहे हैं आप..? कुछ सोचते भी हैं लिखने के पहले..? कोई अन्य व्यक्ति ऐसी नासमझ प्रतिक्रिया देता तो मैं उसका जवाब नहीं देता। आप मेरे साथ कभी काम कर चुके हैं, इसलिए मैं अपना नैतिक दायित्व समझता हूं कि आपके मस्तिष्क में जमा मलबा हटाऊं। मुसलमान किसके लिए रो रहे हैं..? और इस रोने के पीछे उनकी क्या उम्मीद बाकी है..? आवेश जी बताएंगे इसके बारे में..? हद हो गई… अरे भाई, मुसलमान रोते हैं ईरानी सेनाधिकारी के मारे जाने पर। मुसलमान रोते हैं रोहिंग्याओं पर। मुसलमान रोते हैं बांग्लादेशी घुसपैठियों पर। मुसलमान रोते हैं भारत में छुप कर रह रहे पाकिस्तानियों के पहचाने जाने के डर से। मुसलमान रोते हैं रोहिंग्याओं के लिए और मुंबई में शहीद स्मारक का विध्वंस कर देते हैं। मुसलमान रोते हैं रोहिंग्याओं के लिए और लखनऊ में भगवान महावीर की प्रतिमा ध्वस्त कर डालते हैं। मुसलमान रोते हैं तो भारतवर्ष को आग में झोंक देते हैं… मुसलमानों के इस रुदन के पीछे कौन सी उम्मीद है आवेश जी..? आपने लिखा, ‘आप तो रोना ही भूल गए’… ठीक लिखा, रोते-रोते सत्तर साल हो गए। अब कितना रोएं..? इस्लाम के नाम पर देश तोड़ डाला गया और उसे आजादी नाम दे दिया गया, तब से जो रोना शुरू हुआ वह थमा ही नहीं। भारतवर्ष को तोड़ कर भी संतुष्ट नहीं हुए नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के साथ षडयंत्र करके कश्मीर का मुकुट भी उन्हीं भारत विरोधी तत्वों के सिर पहनाने का कुचक्र किया। नहीं चला तो नेहरू ने संविधान के जरिए कश्मीर को भारतवर्ष से अलग-थलग करने की आपराधिक कोशिश की। संविधान निर्माता बाबा साहब अम्बेडकर ने अनुच्छेद-370 पर असहमति जताई तो उन्हें isolate या segregate कर पटेल और अयंगार के जरिए अनुच्छेद-370 पारित करा लिया और पटना के सदाकत आश्रम में राजेंद्र प्रसाद से जबरन हस्ताक्षर लेकर 35-ए का नत्थी-पत्र उस अनुच्छेद के साथ संलग्न कर दिया। राष्ट्र के खिलाफ किए गए अपराध पर भी यह देश इसलिए चुप्पी साधे रोता रहा कि कहीं मुसलमान बुरा न मान जाएं। कश्मीर में मुसलमान संख्या में अधिक थे तो कश्मीरी पंडितों की सम्पत्ति अपने बाप की समझ कर हथिया ली। कश्मीरी पंडितों और गैर मुस्लिमों का भीषण नरसंहार किया। गैर मुस्लिम महिलाओं के साथ सड़कों पर सामूहिक बलात्कार हुए और उन्हें सड़कों पर काटा गया। तब भी देश के लोग रोते रहे और मुसलमान हंसते रहे और ‘कमीने’ धर्मनिरपेक्ष चुप्पी साधे रहे। हर महीने दो महीने पर आतंकवादी आते और आम लोगों को बमों से उड़ा डालते… तब भी भारतवर्ष के लोग रोते रहे और ‘कमीने’ धर्मनिरपेक्ष तर्क देते रहे कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। वे लोग कितने हद दर्जे के कमीने होते हैं आवेश भाई जो यह कहते हैं कि ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता…’ कब तक रोते रहेंगे भारतवर्ष के लोग..?
हंसी आती है जब आप लिखते हैं, ‘हमने तो नहीं देखा किसी माओवादी को जो चीन या माओ-माओ चिल्लाता हो। उसे तो बस एक बात पता होती है कि बंदूक के दम पर गैरबराबरी दूर कर लेंगे।’ …आपकी इस बात पर अब आपसे क्या कहें आवेश जी, कुछ तो पढ़ा करिए। नक्सलबाड़ी आंदोलन किस सिद्धांत पर खड़ा हुआ, यह तो बेसिक जानकारी का मसला है। यह भी नहीं तो फिर बड़ी-बड़ी बातें क्यों कर रहे हैं..? मार्क्स के सिद्धांतों पर आधारित लेनिन की बोल्शेविक क्रांति के बरक्स माओत्से तुंग ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा को सैन्य-नीति के साथ मिलाया और एक नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जिसे हम माओवाद के नाम से जानते हैं। भारत में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में कानू सान्याल ने माओवादी सिद्धांत पर ही किसान आंदोलन शुरू किया, जो बाद में सशस्त्र आंदोलन के रूप में तब्दील हुआ और नक्सलवाद या नक्सलिज्म के नाम से स्थापित हो गया। जब यह बेसिक जानकारी ही न हो तो हम ‘बंदूक के दम पर गैर-बराबरी दूर करने’ की बहस में कैसे शामिल हो सकते हैं..? …और बंदूक के बूते कौन सी गैर-बराबरी दूर हो गई..?
आवेश जी, भाषण देने वाले लोग बहुत घूमते हैं सड़क पर और बड़े महामूर्धन्य पत्रकार भी बने फिरते हैं। धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता का झोला टांग लेते हैं और मुंह पर बेवकूफाना गंभीरता लाद कर खुद को बौद्धिक-सूरमा प्रदर्शित करते हैं… दरअसल ऐसे लोगों की दुकान ही इससे चलती है। सतही किस्म के लोग बिना कुछ जाने समझे किसी पर भी टिप्पणी करके खुद अपना चेहरा गंदगी से भर लेते हैं। आवेश जी, मैंने शायद कभी आपसे यह बताया था, या नहीं बताया तो उस संदर्भ को सामने रखता हूं। जब मैं कलकत्ता में था, उन दिनों कानू सान्याल से मेरे बड़े अंतरंग रिश्ते हो गए थे। कानू दा जब भी कलकत्ता आते चौरंगी स्थित अंग्रेजकालीन बहुमंजिली इमारत की चौथी या पांचवीं मंजिल पर एक फ्लैट में रहने वाले वकील अहमद साहब के यहां ही रुकते थे। कलकत्ता पहुंचते ही अहमद साहब मेरे दफ्तर में फोन करके कानू दा के आने की सूचना देते और फिर वहीं चौरंगी पर हमलोगों का जमावड़ा होता। तब मोबाइल फोन तो होते नहीं थे। चौरंगी की चाय, पनामा या पनामा नहीं हो तो चार्म्स सिगरेट की कश और कानू दा की बातें मेरी स्मृति पर आज तक छाई हुई हैं। घुटने तक चढ़ी हुई धोती, हाफ कट कुर्ता, पैरों में प्लास्टिक का जूता, हाथ में छाता और किसानों जैसी सादगी कानू दा की पहचान थी। नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआती कथा बताते और फिर नक्सलियों के आपस में लड़ने, भिड़ने और बिखरने की अंतरकथाएं सुनाते-सुनाते भावुक हो जाते… कानू दा इस बात को लेकर भीषण तकलीफ में रहते थे कि नक्सलियों की प्राथमिकताएं कैसे बदल गईं, संशोधनवाद के खिलाफ जो सिद्धांत खड़ा हुआ था, वह स्खलित संशोधनों से भर गया, स्वार्थ में सैकड़ों गुट बन गए और किस तरह नक्सली संगठन देशभर में वसूली का धंधा करने वाले गिरोहों में तब्दील हो गए। कानू दा नक्सली संगठनों की नैतिक गिरावट के खिलाफ खड़े रहे, उन्होंने व्यापक नक्सली एकता कायम करने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे। आखिरकार इसी नाकामी और दुख में कानू दा ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। कानू दा का खड़ा किया आंदोलन आज उस गिरावट के स्तर पर आ खड़ा हुआ है, जहां नक्सली संगठनों को चीन से पैसा और हथियार मिल रहा है। भारत में सक्रिय नक्सलियों को चीन से धन और हथियार प्राप्त कराने में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई सक्रिय भूमिका अदा कर रही है। नक्सली नेताओं के बच्चे पूंजीवादी देशों में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। नक्सली नेताओं की असली पत्नियां विदेशों में रहती हैं और नकली पत्नियां जंगलों में उन्हें और हथियार दोनों ढोती हैं। इसीलिए मेरी बातें कुछ लोगों को ‘छन्न’ से लगती हैं… मैं उन्मुक्त पत्रकार हूं… सारे घाट देखे हैं मैंने, पर घाटों का पानी नहीं पीया है, उससे बचा कर रखा है खुद को। जो देखा और अनुभव किया उसकी उन्मुक्त समीक्षा की और तब लिखा… मैं किसी भी राजनीतिक विचारधारा, किसी भी धर्म, किसी भी जाति, किसी भी गुट का दलाल-वाहक नहीं हूं। आवेश जी, आपने जैसे ही स्वीकार किया, ‘मैं कट्टरपंथी ब्राह्मण हूं’… बस बात वहीं समाप्त हो गई। मुझे आपके वामपंथी, धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील होने की सारी असलियत समझ में आ गई। जो व्यक्ति कहे कि मैं कट्टर जातिवादी हूं… उससे निरपेक्षता की उम्मीद कैसे ही की जा सकती है! वैसे, यह आपका व्यक्तिगत मसला है कि आप वैचारिक रूप से कितना स्वच्छ और मुक्त होना पसंद करते हैं। ‘वेंटिलेशन’ सबको थोड़े ही पसंद आता है…
एक और साथी हैं केडी पार्थ… उन्होंने मेरे लेख पर अपनी प्रतिक्रिया में ‘बामसेफ’ संगठन से कुछ वे संदर्भ उठा कर सामने रख दिए जिसमें बाबा साहब को मुसलमानों ने साथ दिया था। यही तो मुश्किल है कि जिस मसले पर बात हो रही है उससे अलग के संदर्भ सामने रख कर मूल मसले को ‘डाइल्यूट’ करने की कोशिश होती है। सत्तर साल से यही तो हो रहा है। बाबा साहब की जो बातें ‘सूट’ कीं उसे उठाया, अपनी राजनीति की दुकान चलाई और दूसरी महत्वपूर्ण बातों पर पर्दा डाल दिया। बाबा साहब अम्बेडकर की वह बात कोई नहीं उठाता कि बाबा साहब इस्लाम के नाम पर देश बांटने के सख्त खिलाफ थे। जब इस्लाम के नाम पर देश बांट लिया गया तब बाबा साहब भारत में मुसलमानों के रहने के खिलाफ थे। जब नेहरू ने कश्मीर के मुस्लिम बहुल होने के नाम पर संविधान में अनुच्छेद-370 डालने का प्रस्ताव रखा तब बाबा साहब इसके खिलाफ थे। …बाबा साहब की ये बातें क्यों शातिराना तरीके से दरकिनार कर दी गईं..? बात प्रसंग और संदर्भों पर होनी चाहिए। बाबा साहब का किस मुसलमान ने साथ दिया या नहीं दिया… लेख इस विषय पर कहां था केडी पार्थ जी..? लेख तो इस विषय पर शुरू हुआ था कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अत्याचार का शिकार हो रहे हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसियों को भारत की नागरिकता दिए जाने के प्रावधान पर मुसलमानों को मिर्ची क्यों लगी..? नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस को अद्यतन किए जाने पर बवाल क्यों मचा..? क्या देश को देश में रहने वाले नागरिकों के बारे में पता नहीं होना चाहिए..? ईरान में सेनाधिकारी के मारे जाने पर भारतवर्ष में मुसलमान बवाल क्यों कर रहे हैं..? क्या ईरान या पाकिस्तान के लोग वहां अपने देश में भारत के पक्ष में कलेजा पीटने या जुलूस निकालने का साहस कर सकते हैं..? जब वहां नहीं कर सकते तो यहां क्यों..? क्या भारतवर्ष ‘अंतरराष्ट्रीय-खाला-जी’ का घर है..? अगर बहुसंख्य मुसलमानों की राष्ट्र-विरोधी अराजक हरकतों से अल्पसंख्य मुसलमान असहमत हैं तो वे मुखर क्यों नहीं होते..? बांग्लादेशी, पाकिस्तानी और रोहिंग्याई घुसपैठियों को बचाने के लिए जिस तरह की हरकतें हो रही हैं, उसके खिलाफ मुसलमान क्यों नहीं खड़े होते..? शातिर लोग बड़े नियोजित तरीके से इस मसले को हिंदू बनाम मुसलमान विवाद के रंग में रगने की कोशिश कर रहे हैं। यह धार्मिक-विवाद का मसला ही नहीं है… बल्कि उससे उबरने का मसला है। दरअसल यह मसला देशहित बनाम देशद्रोह का है। हमें यह प्राथमिकता तय करनी है कि हम भारतवर्ष को बहु-सांस्कृतिक, बहु-धार्मिक, बहु-भाषिक, बहु-वैचारिक किन्तु एकल राष्ट्रीय प्रतिबद्धता वाला देश बनाना चाहते हैं कि नहीं… फिर कहता हूं एकल-राष्ट्रीय-प्रतिबद्धता वाला देश। इसमें हिंदू मुसलमान का भेद कहां है..?