राजेश श्रीवास्तव
राजनीति दो शब्दों का एक समूह है राज+नीति। (राज मतलब शासन और नीति मतलब उचित समय और उचित स्थान पर उचित कार्य करने कि कला) अर्थात नीति विशेष के द्बारा शासन करना या विशेष उद्देश्य को प्राप्त करना राजनीति कहलाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो जनता के सामाजिक एवं आर्थिक स्तर (सार्वजनिक जीवन स्तर) को ऊँचा करना राजनीति है । नागरिक स्तर पर या व्यक्तिगत स्तर पर कोई विशेष प्रकार का सिद्धान्त एवं व्यवहार राजनीति कहलाती है। लेकिन इन दिनों देश और उत्तर प्रदेश में राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि आपाधापी में नेता इतने निचले स्तर का बयान दे दे रहे हैं कि समझ से परे हो जाता है कि आखिर वह अपने दल को कहां ले जाना चाहते हैं। पिछले 15 दिन से नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी, और एनपीआर पर जिस तरह से सियासत गरमायी है उसने देश के सारे मुद्दों को पीछे छोड़ दिया है। इसके समर्थन में तो सिर्फ भारतीय जनता पार्टी और कुछ हिंदूवादी संगठन हैं। लेकिन विरोध में सारे सियासी दल एक हो गये हैं। विरोध करना किसी भी लोकतंत्र में उतना ही अहम है जितना किसी का समर्थन करना। यही लोकतंत्र की महानता है कि जितना पक्ष का महत्व है उतना विपक्ष का भी। स्वस्थ्य लोकतंत्र का यही परिचायक भी है। लेकिन इन दिनों विपक्ष एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में इतना गिर गया है कि ऐसे-ऐसे बयान नेता जारी कर रहे हैं मानों उनमें यह प्रतियोगिता चल रही हो कि कौन कितना गिर कर बयान जारी कर सकता है।
सियासत बुरी नहीं लेकिन उसका भी उसूल होता है। सीएए पर लखनऊ और उत्तर प्रदेश में जो हिंसा हुई उसका कतई समर्थन नहीं किया जा सकता। विरोध प्रदर्शन करना अधिकार है लेकिन सरकारी संपत्ति का नुकसान करना एक राष्ट्रद्रोह से कम नहीं है और जब हम या कोई सियासी दल ऐसे तत्वों का समर्थन करता है तो निश्चित रूप से उसे उचित नहीं कहा जा सकता है। विरोध में खड़े राजनीतिक दलों में किसी एक भी नेता का यह बयान नहीं आया कि वह विरोध करने वालों से यह अपील करें कि आप लोग हिंसा न करें। सभी विरोधी दल मसलन – कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा), दोनोें ही एक-दूसरे को बयानांे में पीछे छोड़ने की होड़ में जुटे हैं। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की तो बात ही छोड़ दीजिए इन दिनों वह इसी कश्मकश में है कि कब भाजपा का विरोध करे और कब उसका समर्थन। इसी उध्ोड़बुन में वह अक्सर भारतीय जनता पार्टी का एक अनुषांगिक संगठन बन कर खड़ी दिख जाती है। लेकिन कांग्रेस महासचिव ने जब लखनऊ में आयोजित प्रेसवार्ता में यह कहा कि वह हिंसा में प्रभावित लोगों को कानूनी मदद दिलाएंगी तो उनसे यह भी कहा गया कि वह हिंसा करने वालांे को रोकने की अपील करें लेकिन वह नहीं बोल सकीं। उनके इस बयान के बाद मानो सपा को अपनी जमीन खिसकती नजर आयी उसके नेता विरोधी दल रामगोविंद चौधरी ने तो यह भी ऐलान कर डाला कि अगर वर्ष 2०22 में सपा की सरकार बनेगी तो वह हिंसा फैलाने वालों को संविधान रक्षक सम्मान से सम्मानित करेंगे। यही नहीं, वह ऐसे सभी लोगों को पेंशन भी दिलवाएंगे। इस बयान की जितनी भी निंदा की जाए, वह कम है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह वह प्रदेश है जहां इसी पार्टी द्बारा चुनावी वायदे के रूप में ऐलान किए गये 5०० रुपये का बेरोजगारी भत्ता पाने के लिए बेरोजगार युवा पुलिस की लाठी खाकर सुबह से लाइन लगा रहता था। ऐसे में इस तरह का बयान जारी करना निश्चित रूप से समाज और राष्ट्र विरोधी ही कहा जायेगा।
लेकिन यह तो नेता हैं नेता… और नेताओं का क्या कहना। जबकि इन नेताओं को चाहिए था कि प्रदर्शनकारियों से अपील करते कि वह अपना विरोध शांतिपूर्वक करें। ऐसा नहीं कि शांति पूर्वक किए गये प्रदर्शन की ताकत नही होती। महात्मा गांधी के सत्याग्रह की गूंज आज भी देश में सुनायी पड़ती है। शांतिपूर्वक कही गयी बात प्रदर्शन करके कही गयी बात से कहीं ज्यादा प्रभावी होती है। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस दोनों के सामने बड़े मकसद हंै। उन्हें विपक्ष का किरदार भली-भांति निभाना चाहिए। दोनों के सामने खुला आकाश और सरकार की उन कमियों को जो जनता के मुफीद नहीं हैं उनका वह शांतिपूर्वक ढंग से आवाज उठायें और ऐसे बयान जारी करें जो देश व समाज के हित में हों लेकिन दोनों की छवि भी बढ़ेगी और उनका आधार भी। दोनों दलों के रणनीतिकारों ंको यह समझना होगा और अपने आकाओं को भी समझाना होगा कि आज का युवा कंप्यूटर युग का है उसे ज्यादा समझाने की जरूरत नहीं है। बस वह यह देखना चाहता है कि आप कहना और बताना क्या चाहते हैं। अब नेताओं को तय करना है कि वह अपनी और अपनी पार्टी की छवि को बचाये रखने का प्रयास करते हैं या फिर ऐसे ही बयानों से दोनों की छवि धूमिल करते रहेंगे।