प्रभात रंजन दीन
सत्य का संघर्ष सत्ता से / न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है / किरण अंतिम अस्त होती है…
अटल जी की कविता की ये चार पंक्तियां देश की उत्तर-आजादी-काल की राजनीतिक-सामाजिक वास्तविकता का परिचय देने के लिए काफी हैं। वाकई, यह शिद्दत से महसूस होता है कि अटल बिहारी वाजपेयी के जाने से भारतवर्ष में नैतिक, ईमानदार, मानवीय, दंभहीन, विनम्र और विद्वान राजनीतिक शख्सियत की आखिरी किरण भी अस्त हो गई। संत कबीर कहते हैं कि वे हद और अनहद के बीच खड़े हैं… अटल जी के व्यक्तित्व पर समग्र दृष्टि डालें तो आपको साफ-साफ दिखेगा कि अटल भी हद और अनहद के बीच ही खड़े रहे! अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस तरह विराट हृदय वाली राजनीति की धारा चलाई, उस पर चलना या उसका अनुकरण करना बड़ी तपस्या और अटल की कवित्व-भाषा में दधीचि की हड्डियां गलाने जैसे त्याग से ही संभव है। कहने से थोड़े ही होता है कि ‘मैं अटल जी के रास्ते पर चल रहा हूं’, उस तरह बनने का योग और जतन करना पड़ता है। 25 दिसम्बर को अटल जी की जयंती है, फिर सुनिएगा नेताओं की बड़ी-बड़ी बातें और अटल-प्रतिबद्धता के लंबे-लंबे व्याख्यान… और थाह लीजिएगा कथनी और करनी का गहरा फर्क।
देखिए, शब्द-ब्रह्म और शब्द-व्यायाम में मौलिक फर्क है, जिसे अटल जी का व्यक्तित्व रेखांकित करता है। मेधा, ज्ञान और तपस्या के सुंदर समन्वय से ही शब्द-ब्रह्म प्रकट होता है। यह प्रकृति का उपहार है। शब्द-व्यायाम तो भौतिक कसरत है, उसमें आत्मा नहीं होती। अटल जी के शब्दों में ब्रह्म की झलक प्रकृति के उसी अनमोल उपहार की अभिव्यक्ति थी। दो विपरीत छोर वाली राजनीतिक धारा के बीच अटल जी संतुलन-सेतु की तरह काम करते थे। दोनों के बीच ‘बैलेंसिंग-बीम’ बनने में स्वार्थ नहीं बल्कि सौहार्द समाहित था। दक्षिणपंथी और वामपंथी राजनीतिक विचारधाराओं के बीच समझदार सेतु के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी अटल खड़े रहे, ठीक वैसे ही जैसे संत कबीर हद और अनहद के बीच निर्लिप्त और निस्पृह भाव से खड़े रहते हैं। ऐसे ही व्यक्तित्व के लिए दुश्मन देश का प्रधानमंत्री भी कह उठता है, ‘अटल जी पाकिस्तान में भी इतने पसंद किए जाते हैं कि वे यहां भी चुनाव लड़ें तो जीत जाएं।’ शांति का संदेश लेकर 19 फरवरी 1999 को बस से लाहौर गए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के पाकिस्तान में हुए अभूतपूर्व स्वागत और अटल जी के प्रति पाकिस्तानियों का प्रेम देख कर तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा था, ‘वाजपेयी साहब, आप पाकिस्तान में भी चुनाव जीत सकते हैं।’
आपने देखा ही है कि कश्मीर के आम लोग, नेता और यहां तक कि अलगाववादी विचारधारा रखने वाले लोग भी अटल जी को कितना पसंद करते थे। यह दुर्लभ बात है कि भारतीय जनता पार्टी के धुर (एक्सट्रीम) विरोधी भी अटल जी के प्रशंसक थे और उनसे जुड़ा महसूस करते थे। कोई तो हो जो आलोचना करे..! ऐसा कोई नहीं मिलता… न राजनीतिक जीवन में रहते हुए और न जीवन से मुक्त होने के बाद। हिंदूवादी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की कट्टर मुस्लिम जमातें हों या धुर वामपंथी या विपक्षी दल, सब में अटल जी की स्वीकार्यता अटल जी को महापुरुषों की श्रेणी में खड़ा करती है।
खुर्राट वामपंथी ईएमएस नम्बूदरीपाद रहे हों या वामपंथी पुरोधा ज्योति बसु या ईके नयनार, सब अटल बिहारी वाजपेयी के प्रशंसक थे। वामपंथी नेताओं से अटल जी की निकटता को अखबार वाले कभी-कभार संदेहास्पद भी बना देते थे। एक बार तो बंगाल में अखबार वालों ने यह भी लिख डाला कि ज्योति बसु अटल बिहारी वाजपेयी से ‘गुपचुप’ मिलते रहते हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाले ‘जन मोर्चा’ का विजयोत्सव जब वामराज वाले पश्चिम बंगाल में मनाया गया तो अटल जी उसमें शरीक हुए थे। कलकत्ता के शहीद मीनार मैदान में आयोजित उस विजयोत्सव में वीपी सिंह, ज्योति बसु के साथ बैठे अटल जी की वह पुरानी तस्वीर आप भी देखें और यह जानते चलें कि इसी तस्वीर को लेकर कांग्रेस और बाद में तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा और वाम दलों के बीच ‘खिचड़ी पकने’ का आरोप लगा कर निकृष्ट सियासत की थी। वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब ‘माई लाइफ, माई कंट्री’ में लिखा है कि वाम दलों और भाजपा के सहयोग से केंद्र में बनी नेशनल फ्रंट की सरकार के दौरान अटल जी और ज्योति बसु की गोपनीय मीटिंग हुई थी, जिसमें आडवाणी खुद भी शामिल थे। यह बैठक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने बीरेन साहा के आवास पर हुई थी। ज्योति बसु ने भी ऐसी दो गोपनीय बैठकों के बारे में स्वीकारोक्ति दी थी, इसमें एक बैठक लालकृष्ण आडवाणी के घर पर हुई थी। ज्योति बसु ने कहा था कि आडवाणी की रथ-यात्रा रोकने के लिए वह बैठक हुई थी, राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए बैठक नहीं हुई थी। वाजपेयी जी की केरल के धुरंधर कम्युनिस्ट नेता ईके नयनार से भी खूब अंतरंगता थी। निकटता का यह आलम था कि एक बार केरल हवाई अड्डे पर प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों ने मजाक में अटल जी से पूछ दिया था कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में क्या ईके नयनार भी शामिल होंगे? अटल हंसने लगे थे और नयनार किनारे बैठे केरल भाजपा के अध्यक्ष ओ राजगोपाला की तरफ उंगली से इशारा कर रहे थे, जैसे कह रहे हों, ‘मैं नहीं, वो बनेंगे…’
अटल का ज्ञान और उनकी भाषण-शैली में झलकने वाली ओजस्विता ने उन्हें विश्व के पटल पर शीर्ष स्थान दिया है। 80 के दशक में ही ‘टाइम’ मैगजिन ने आचार्य रजनीश और अटल बिहारी वाजपेयी को सबसे प्रभावशाली वक्ताओं में शुमार किया था। उनकी ओजस्विता और उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि महज एक वोट से राजनीतिक कुचक्र का शिकार हुए अटल अगले ही चुनाव में कांग्रेस जैसी उस समय की सशक्त पार्टी को धकेल कर केंद्र की सत्ता पर आरूढ़ हुए और पूरे पांच वर्ष देश को स्थिर सरकार दी। भारतीय जनता पार्टी को अटल के चेहरे का भरोसा रहा… तब भी और अब भी। अटल की जब भी उपेक्षा हुई भाजपा चुनाव हारी। अटल उपेक्षा से विचलित नहीं होते, राजनीतिक बयानबाजी नहीं करते, किसी तिकड़म में नहीं उतरते… बस कविता लिख कर रख लेते, ‘अपनी ही छाया से बैर / गले लगने लगे हैं गैर / कलेजे में कटार गड़ गई / दूध में दरार पड़ गई…’ अटल जी की कविताएं बहुत कुछ कहती हैं, ‘कौरव कौन, कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है / दोनों ओर शकुनि का फैला कूटजाल है…’ अटल जी और देश के अन्य नेताओं में मर्यादा का यही फर्क है। यह विशाल फर्क है। अपने विद्वत और मधुर अंदाज में अटल जी की चुटकियां और मुस्कुराहट विरोधियों को भी भीतर तक बेध जाती थीं। विरोधियों पर अमर्यादित टिप्पणियां करने और आत्मप्रशंसा में लगे नेताओं को अब भी अटल जी से सीख लेनी चाहिए। चाहे वह भाजपा के नेता हों या किसी अन्य राजनीतिक दल के। इसी अटल व्यक्तित्व की तो सीख थी कि प्रधानमंत्री रहते हुए अटल जी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, ‘शासक के लिए प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता, न जन्म के आधार पर, न जाति के आधार पर और न सम्प्रदाय के आधार पर… मुझे विश्वास है कि नरेंद्र भाई यही कर रहे हैं।’ उस समय नरेंद्र मोदी भी अटल जी के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद थे।
अटल जी के विशाल व्यक्तित्व का वह पहलू बार-बार ध्यान में आता है। वर्ष 2001 में लखनऊ के राजभवन में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित थी। राजभवन का सभा कक्ष पत्रकारों से भरा था। अटल जी आए। अभी प्रेस कॉन्फ्रेंस शुरू भी नहीं हुई थी कि मैंने अटल जी से पूछा कि दो दिन पहले गुजरात में आए भूकंप में तकरीबन एक लाख लोग मरे, अधिकांश बच्चों की मौत हुई जो गणतंत्र दिवस समारोह मनाने स्कूल गए थे, क्या हजारों बच्चों की मौत पर राष्ट्रीय शोक की घोषणा नहीं होनी चाहिए थी..? क्या राष्ट्रीय शोक पर केवल नेताओं का एकाधिकार है..? मेरे इस सवाल पर सामने बैठे कुछ ‘गरिष्ठ’ पत्रकार हंस पड़े थे। अटल जी ने चुटकी लेने वाले अंदाज में कहा, ‘आपसे मुलाकात नहीं हुई, नहीं तो घोषणा हो जाती।’ हास में बात को विलीन करने के अटल जी के इस प्रयास पर कुछ ‘विद्वत’ पत्रकार फिर हंसे। मैंने पूछा, ‘प्रधानमंत्री जी, क्या यह विषय मजाक का है..?’ मेरे यह कहने पर अटल जी की मुख-मुद्रा अचानक गंभीर हो गई थी, उन्होंने बड़ी गंभीरता से बस इतना ही कहा, ‘चूक तो हो गई।’ देश के प्रधानमंत्री के बतौर अटल जी ने बहुत बड़ी बात कही, लेकिन न तो नेताओं ने इसे गंभीरता से लिया और न पत्रकारों ने। खैर, आप यह सोचें कि अटल जी की इस एक पंक्ति की स्वीकारोक्ति उन्हें कहां से कहां ऊपर उठा कर रख देती है। आज कोई प्रधानमंत्री इस तरह क्या अपनी गलती सार्वजनिक रूप से कबूल कर सकता है..? आज तो स्थिति यह है कि ऐसे सवाल पूछने वाले पत्रकार को धक्के मार कर कक्ष से बाहर निकाल दिया जाएगा। उसे गिरफ्तार करने की स्थिति भी आ सकती है। यह अटल के राजनीतिक युग और वर्तमान युग के बीच का चारित्रिक-संस्कारिक फर्क है। अटल जी का ऐसा ही ऊंचा चरित्र और संस्कार था जो जनता पार्टी की सरकार के धराशाई होने के बाद लोकनायक जयप्रकाश से माफी मांगने से नहीं हिचकता। अटल जी ने लिखा था, ‘क्षमा करो बापू तुम हमको, वचन भंग के हम अपराधी / राजघाट को किया अपावन, मंज़िल भूले, यात्रा आधी / जयप्रकाश जी! रखो भरोसा, टूटे सपनों को जोड़ेंगे / चिताभस्म की चिंगारी से, अंधकार के गढ़ तोड़ेंगे।’
परमाणु परीक्षण से लेकर करगिल युद्ध का इतिहास अटल के योद्धा चरित्र की सनद देता है। एक तरफ विनम्रता तो दूसरी तरफ शौर्य, इन दो विलक्षण पहलुओं का सम्मिश्रण थे अटल जी। वे अटल ही थे जो एक तरफ कहते थे, ‘धमकी, जेहाद के नारों से, हथियारों से कश्मीर कभी हथिया लोगे, यह मत समझो / हमलों से, अत्याचारों से, संहारों से भारत का भाल झुका लोगे, यह मत समझो…’ दूसरी तरफ अटल ही थे जो ‘इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ की पुरजोर हिमायत करते थे। अटल जी के ये तीन शब्द कश्मीरियों के दिल में बसते हैं और पूरी दुनिया इन तीन शब्दों को ही ‘अटल डॉक्टरिन’ की संज्ञा देती है।
कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने भाजपाई अटल के जरिए बचाई थी देश की इज्जत
तब देश में नरसिम्हा राव की सरकार थी। अटल बिहारी वाजपेयी विपक्ष के नेता था। कांग्रेस सरकार के प्रस्ताव पर अटल जी ने पार्टी लाइन से ऊपर उठकर कश्मीर मसले पर फंसी नरसिम्हा राव सरकार का साथ दिया और उन्हें उबारा। नरसिम्हा राव ने अटल जी को संयुक्त राष्ट्र भेजे गए प्रतिनिधिमंडल में न केवल शामिल किया बल्कि उसे नेतृत्व करने का दायित्व सौंपा। तब पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगाया था। पाकिस्तान ने ‘ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन’ (ओआईसी) के जरिए प्रस्ताव रखवाया और भारत के खिलाफ कुचक्र रचा। अटल जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व ने सारे विरोधियों का पटाक्षेप कर दिया। अटल जी ने इस मसले पर उदार इस्लामिक देशों से सम्पर्क स्थापित किया और अपनी मुहिम में कामयाब हुए। कामयाबी भी ऐसी हासिल हुई कि पाकिस्तान के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र में इस्लामी देशों ने भारत का साथ दिया और पाकिस्तान को समर्थन देने वाले मुस्लिम देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने से इन्कार कर दिया। इंडोनेशिया और लीबिया ने ओआईसी के प्रस्ताव से ही खुद को अलग कर लिया। सीरिया ने भी पाकिस्तान के प्रस्ताव से दूरी बना ली और ईरान ने प्रस्ताव को संशोधित करने को कह दिया। तब चीन ने भी भारत का साथ दिया था। आखिरकार विवश होकर पाकिस्तान को वह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा।