राजेश श्रीवास्तव
कश्मीर जैसे क्ष्ोत्र में 37० जैसे मसलों को बड़ी ही आसानी से हल करने वाली मोदी सरकार से इन बार नागरिकता कानून विरोधी मसले पर किस तरह से चूक हो गयी कि पूरा देश इस समय हिंसा की चपेट में है, यह बड़ा सवाल इन दिनों हवा में तैर रहा है। कारण कई बताए जा रहे हैं। सबसे बड़ा ठीकरा तो सरकार के नुमाइंदे विपक्षी दलों पर फोड़ रहे हैं तो विपक्षी दल इसे सरकार की चूक बता रहे हैं और सरकार का फेल्योर बता रहे हैं। जबकि पुलिस प्रशासन इसका ठीकरा एक विश्ोष वर्ग पर फोड़ रही है। पर अगर मूल कारण की तलाश करें तो वह यह है कि सरकार ने आनन-फानन में कानून तो बना दिया लेकिन जितनी व्यग्रता से यह कानून पास कराया गया और उसके बारे में लोगों को जानकारी नहीं दी गयी जिसके चलते ही यह सारा मामला खड़ा हुआ और इस असंतोष और जानकारी के अभाव को विपक्ष ने मुद्दा बनाया। विपक्षी दल बहुत लंबे समय से किसी ऐसे मुद्दे को तलाश रहे थ्ो जो उनकी सूखती जड़ों को खाद-पानी मुहैया करा सके। उन्होंने इस मुद्दे को हवा दी, धरना-प्रदर्शन किया और यह साबित करने की कोशिश की कि इस कानून के लागू होने के बाद मुस्लिम समाज को देश में मानो रहना ही मुहाल हो जायेगा। विपक्षी दलों में मानों होड़ लग गयी कि कौन इस मामले में मुस्लिमों का सबसे बड़ा हितैषी है। जब दिल्ली में कांग्रेस नेत्री प्रियंका गांधी जामिया के छात्रों के समर्थन में धरने पर बैठीं तो उत्तर प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी कैसे पीछे रहती उसने भी 19 दिसंबर को उत्तर प्रदेश के सभी जनपदों में धरना-प्रदर्शन का ऐलान कर दिया। उनके इसी ऐलान के बाद उत्तर प्रदेश की गंगा-जमुनी तहजीब को जो स्वाहा किया गया उस पर अभी तक हालात पर काबू आते नहीं दिख रहे हैं। करोड़ों रुपये की संपत्ति स्वाहा हो गयी। डेढ़ दर्जन लोगों की मौत तो अकेले उत्तर प्रदेश में ही हो गयी। जबकि अभी भी हालात बदतर बने हैं। इंटरनेट की दुनिया शुरू होने के बाद शायद यह पहला मौका है जब उत्तर प्रदेश में इंटरनेट तीन दिन से बंद है। उत्तर प्रदेश के लोग तो इस तरह की खबरें कश्मीर के बारे में पढ़ा करते थे लेकिन आज उनको इस बात का भी एहसास हो रहा है कि यूपी में भी ऐसा संभव है, जहां इंटरनेट बंद हो सकता है।
अब इसके पीछे के भी कारणों को समझना होगा। अगर सरकार यह कहती है कि यह विपक्षी साजिश है, तो यह कहकर वह बच नहीं सकती। विपक्ष का हमेशा से ही काम रहा है कि वह सरकार के विरोध को मुद्दा बनाए लेकिन सरकारी एजेंसियों की जिम्मेदारी है कि वह सही इनपुट सरकार को दें। उनसे कहां चूक हुई। सरकारी मशीनरी कैसे फेल हुई। सरकार की तरफ से ऐसे प्रयास क्यों नहीं हुए कि हिंसा रोकी जा सके। सरकार ने ऐसा प्रयास क्यों नहीं किया कि किसी को गुमराह होने से बचाया जा सके। अभी तक सरकार की तरफ से कोई ऐसी जानकारी देने का प्रयास नहीं किया गया कि लोगों का भ्रम दूर हो सके। सरकार वैसे तो बात-बात पर बड़े-बड़े विज्ञापन प्रकाशित कराती है। होर्डिंग लगवाती है। अखबारों में प्रकाशन होता है। मन की बात की जाती है। लेकिन इस पर ऐसा क्यों नहीं हो रहा है। क्यों नहीं सरकार भ्रम दूर कर रही, या वह खुद ऐसा नहीं चाहती। कहीं ऐसा तो नहीं कि इन परिस्थितियों में सरकार को भी कोई लाभ होता दिख रहा हो, खैर यह अभी दूर की कौड़ी है। यह तो राजनीति का विषय है और राजनीति में सब कुछ संभव है।
फिलवक्त यह कहना मुश्किल है कि भाजपा-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस बात का अनुमान लगाया था या नहीं कि विरोध इतनी व्यापकता एवं विविधता हासिल करेगा- यहां तक कि उसकी अपनी सहयोगी पार्टियों के सुर भी अचानक बदलते दिखेंगे, असम में उसकी सहयोगी पार्टी असम गण परिषद इस कानून के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय जाने का ऐलान करेगी या जनता दल यू कहेगी कि वह बिहार राज्य में एनआरसी का विरोध करेगी- मगर उन्होंने इस बात का बखूबी आकलन किया है कि इस कानून से उनके वोटबैंक में ‘डेढ करोड़ की बढ़ोतरी होगी’। अब इस अनुमान का आधार जो भी हो उन्होंने अपने स्तर पर इतना तो तय किया है कि इस कानून के फायदे समझाने के लिए वह देश भर अभियान चलाएंगे। यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर मोदी-शाह हुकूमत ने आखिर इस बिल का फोकस तीन पड़ोसी मुस्लिम बहुल मुल्कों पर ही क्यों रखा और क्यों इसमें अन्य पड़ोसी मुल्कों को शामिल नहीं किया? क्या इसकी वजह महज यह है कि भारत सरकार न केवल म्यांमार सरकार बल्कि श्रीलंकाई सरकार के साथ अपने सम्बन्ध बेहतर बनाना चाहती है और वह ऐसा कोई विवादास्पद मुद्दा उठाना नहीं चाहती जिससे इस मुल्क के शासक नाराज हों।
फिलहाल अब जब यह नियम कानून की शक्ल ले चुका है और इसे राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिल गयी है तब सरकार को चाहिए कि वह इस दिशा में ऐसे कदम उठाये कि लोगों की भ्रांति दूर हो सके। नहीं तो इस हिंसा को रोका नहीं जा सकता। लाठी के दम पर यह हिंसा तब तक रुकेगी जब तक पुलिस तैनात है, इसलिए मन के भ्रम को दूर करना ही सबसे श्रेयस्कर उपाय है ताकि किसी के मन में इसके प्रति अविश्वास न हो। जिस दिन आम मुस्लिम को समझ आ जायेगा कि यह कानून उसके विरोध में नहीं है तो वह विपक्ष के कहने पर भी हिसा नहीं करेगा।