नई दिल्ली। झारखंड के रुझानों को देखकर लगता है कि बीजेपी के हाथ से इस राज्य की बागडोर भी खिसक रही है. इस तरह पिछले एक साल के विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र के बाद झारखंड पांचवां ऐसा राज्य होगा जहां से बीजेपी सत्ता से बाहर हो रही है. इसी तरह यदि यदि देश के सभी राज्यों पर नजर डालें तो 2017 के अंत तक बीजेपी का देश के 71% भू-भाग पर शासन था लेकिन 2019 के अंत तक अब उसका तकरीबन 35 प्रतिशत भू-भाग पर ही शासन बचा है.
रुझानों के सियासी मायने
1. यदि बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब नहीं हो पाई तो हाल में महाराष्ट्र के हाथ में निकलने के बाद झारखंड के रूप में एक और राज्य बीजेपी के हाथ से निकल सकता है. हरियाणा में भी बीजेपी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था और पार्टी को चुनावों बाद दुष्यंत चौटाला से हाथ मिलाना पड़ा था.
2. नागरिकता संशोधन कानून का बीजेपी को कोई लाभ नहीं मिला. इस वक्त पूरे देश में ये सबसे अहम मुद्दा है. इसके खिलाफ देशव्यापी विरोध-प्रदर्शनों में अब तक 20 लोगों की मौत हो चुकी है. वैसे जब ये कानून अस्तित्व में आया तो झारखंड के तीन चरणों के चुनाव हो चुके थे और दो चरण रह गए थे.
4. विपक्ष पर जनता का विश्वास पहले की तुलना में बढ़ा है. 2017 के बाद के विधानसभा चुनावों में एक ट्रेंड ये देखने को मिल रहा है कि जहां भी विपक्ष एकजुट होकर लड़ता है, वहां बीजेपी लक्ष्य के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाई. इस बार झारखंड के चुनावों में बीजेपी ने अबकी बार 65 पार का नारा दिया था.
5. चुनावों में मुख्यमंत्री रघुबर दास को लेकर बीजेपी के अंदरखाने में भी विरोध के सुर उठे. नतीजा ये रहा कि पार्टी के वरिष्ठ नेता सरयू राय उनके खिलाफ मैदान में ही निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उतर गए. पार्टी का एक धड़ा रघुबर दास के चेहरे के साथ चुनाव में जाने के पक्ष में नहीं था. उनकी कार्यशैली पर सवाल खड़े किए गए. रुझानों को देखकर ऐसा लगता है कि जनता ने भी उन पर अपेक्षित भरोसा नहीं जताया.
7. क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी के लिए चुनौती बन रही हैं.
9. झारखंड में रघुवर सरकार के कामकाज पर जनता ने भरोसा नहीं किया.
10. राज्यों के मुद्दों को बीजेपी ने नजरअंदाज किया.
झारखंड में बीजेपी की 5 भूलें
1. स्थानीय मुद्दों की अनदेखी: रघुबर दास के नेतृत्व में बीजेपी ने जनता के स्थानीय मुद्दों की अनदेखी कर आर्टिकल 370, राम मंदिर, नागरिकता संशोधन कानून जैसे विषयों पर फोकस किया. इन मुद्दों के कारण पार्टी स्थानीय आधार पर लोगों से जुड़ नहीं सकी.
2. नेताओं की बगावत: बीजेपी के अंदर सरयू राय के नेतृत्व में एक धड़ा रघुबर दास की कार्यशैली पर सवाल उठा रहा था. रघुबर दास को मुख्यमंत्री के रूप में फिर से पेश नहीं करने की भी मांग इस धड़े ने की. लेकिन जब उनकी मांग को नामंजूर कर दिया तो वरिष्ठ नेता सरयू राय ने पार्टी से बगावत करते हुए जमदेशपुर पूर्व से रघुबर दास के खिलाफ खम ठोकने का निश्चय कर लिया. नतीजतन भितरघात का पार्टी को नुकसान हुआ.
4. महंगाई: चुनावों के दौरान प्याज समेत खाद्य वस्तुओं की बढ़ी कीमतों को भी विपक्ष ने मुद्दा बनाया.
5. बेरोजगारी: राज्य के चुनावों में बेरोजगारी बड़ा मुद्दा रहा. स्थानीय स्तर पर हरियाणा लोक सेवा आयोग समेत सरकारी नौकरियों में भर्तियों का नहीं आना बड़ा मुद्दा रहा.