राजेश श्रीवास्तव
इसी सप्ताह दो ऐसी खबरें आयीं जिससे पता चलता है कि सरकार की नीतियां कितनी कारगर होती दिख रहीं हैं। एक गिरती जीडीपी की और दूसरी फैक्ट्रियों मंे उत्पादन ठप होने या कम होने के चलते बिजली की कम मांग। इन दोनों खबरों का आकलन करना बेहद जरूरी है क्योंकि यह दोनों ही ऐसी खबरें हैं जिनसे आम आदमी प्रभावित होता है। अभी एक दिन पहले ही फिर से जीडीपी और विकास दर का नया आंकड़ा वित्त मंत्रालय की ओर से जारी किया गया। दूसरी तिमाही में भी देश की गिरती विकास दर की तस्वीर सामने आयी। जीडीपी अौंध्ो मुंह गिर कर साढ़े चार फीसद पर आ टिकी है। सरकारी नुमाइंदे तो कह रहे हैं कि अगले तीन महीने में इसमें जबरदस्त इजाफा होन्ो जा रहा है। लेकिन असलियत में देखंे तो ऐसा दिख नहीं रहा। कोई माने या न माने लेकिन अब यह साबित हो गया है कि देश के आर्थिक दुर्भाग्य की शुरुआत उसी दिन से हो गयी, जब मोदी सरकार द्बारा नोटबंदी और बिना प्लानिग के जीएसटी लागू करने का निर्णय लिया था। पिछली छह तिमाही से लगातार जीडीपी की ग्रोथ रेट गिरती ही जा रही है और आने वाले समय में इसमें सुधार होने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही हैं क्योंकि मार्केट में कोई डिमांड ही नहीं दिखाई दे रही है। त्यौहार और शादी ब्याह का सीजन लगने के बावजूद मार्केट में सुस्ती छायी हुई है। फैक्टिàयों में कम उत्पादन भी सरकारी रणनीतिकारों की पेशानी पर बल डालने वाला है। लेकिन सरकार के प्रतिनिधि इन दोनों सच को स्वीकार करने की स्थिति में हैं ही नहीं उन्हें तो ठीक इसके उलट तस्वीर दिखानी है।
ध्यान दीजिएगा कि यह आंकड़े जो जारी हुए हैं, यह सितंबर तक के हैं और हम देख रहे हैं कि मार्केट अक्टूबर और नवम्बर में भी नहीं सुधर पाया है, यानी तीसरी तिमाही में भी सुधार के लक्षण नहीं दिखाई दे रहे हैं। जब नोटबंदी की गयी तब ही पूर्व प्रधानमंत्री एवं अर्थशास्त्री मनमोहन सिह ने इसे संगठित लूट और सुनियोजित कानूनी दुरूपयोग बताते हुये दो प्रतिशत कमी आने की आशंका जीडीपी के लिए बता दी थी, और यह बात अब बिल्कुल सच साबित होती दिख रही है। लेकिन सरकार ने न तब इस चेतावनी को गंभीरता से लिया था और न ही अब वह इस पर चिंतित दिख रही है।
पिछले साल देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविद सुब्रमण्यम ने भी साफ-साफ कह दिया था कि नोटबंदी का फैसला देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा झटका साबित होगा। कल बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने तीसरी तिमाही के जीडीपी ग्रोथ रेट के आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए कहा कि असलियत में जीडीपी ग्रोथ रेट 4.5 नही वह 1.5 प्रतिशत है। यानी यह झूठे आंकड़े दिखाकर जनता को भरमाया जा रहा है। इसी बात को सितंबर 2०14 से जून 2०18 तक नरेंद्र मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके अरविद सुब्रमण्यन ने हावर्ड यूनिवर्सिटी से प्रकाशित एक रिसर्च पेपर में सिद्ध करके बताया था। अरविद सुब्रमण्यम ने इस शोधपत्र में जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही थी, वह यह थी कि जीडीपी ग्रोथ रेट की गणना साल 2०11 से पहले मैन्यूफैक्चरिग उत्पादन, मैन्यूफैक्चरिग उत्पाद और औद्योगिक उत्पादन सूचकांक और मैन्यूफैक्चरिग निर्यात से निकाली जाती थी, लेकिन बाद के सालों में इस संबंध को लगातार विस्मृत कर दिया जाता रहा है। सुब्रमण्यम ने अपने शोध पत्र में दिखाया कि किस तरह नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस ने इस फर्जीवाड़े को अंजाम दिया है। दरअसल उसने एमसीए-21 के नाम से एक नया डाटाबेस बनाया है और उसी से जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े निकाले हैं। जांच में पता चला है कि उस एमसीए-21 में शामिल 38% कंपनियां या तो अस्तित्व में ही नहीं थी या फिर उन्हें गलत कैटेगरी में डाला गया था। ऐसा किये जाने से आर्थिक वृद्धि दर औसतन 2.5% ऊंची हो गई हैं। यह फर्जीवाड़ा आज भी चल रहा है। आपको जानकर हैरानी होगी कि इस साल की पहली छमाही में बुनियादी उद्योगों की वृद्धि दर महज 1.3 फीसदी रही, जबकि पिछले वित्त वर्ष की समान अवधि में इसमें 5.5 फीसदी का इजाफा हुआ था। जीएसटी संग्रह भी अक्टूबर महीने में लगातार तीसरे महीने 1 लाख करोड़ रुपये से कम रहा है। राजस्व संग्रह पिछले साल अक्टूबर महीने की तुलना में 5.3 प्रतिशत कम रहा। अक्टूबर माह में चालू वित्त वर्ष के 7 महीनों में कर संग्रह में सबसे तेज गिरावट दर्ज की गई है। ताजा आंकड़े तो मैन्युफैक्चरिग दर को शून्य के भी नीचे बता रहे हैं। यानी भविष्य के आसार बद से बदतर हो रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश का राजकोषीय घाटा अक्टूबर के अंत में 7.2 लाख करोड़ रुपये पुहंच गया है और बजट में पूरे साल के लिए लगभग 7.1 लाख करोड़ का अनुमान लगाया गया था यानी कि सिर्फ 7 महीने में साल भर का घाटा हो गया है। हालात इतने बदतर हैं कि मोदी सरकार द्बारा राज्यों को जीएसटी लगाने से हुई क्षतिपूर्ति की रकम भी नही दी जा रही है। इतना सब होने का बाद भी मोदी सरकार की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण तो इसे मंदी मानने से भी इंकार कर रही है। शायद तब इसे मंदी माना जाएगा, जब छोटे मोटे रोजगार में लगे हर आदमी के हाथ में कटोरा आ जाएगा, और ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन भी दूर नहीं है।