दयानंद पांडेय
भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता , सांप्रदायिकता , विचारधारा आदि-इत्यादि न सिर्फ़ लफ्फाजी है बल्कि बहुत बड़ा पाखंड है , महाराष्ट्र की नई राजनीति ने एक बार फिर साबित कर दिया है। यह भी कि लोकतंत्र में संख्या बल और जोड़-तोड़ ही नहीं , मनबढ़ई , लंठई , गुंडई , ज़िद और सनक भी एक प्रमुख तत्व है। और कि यह सब कोई नई बात नहीं है। याद कीजिए जब सेक्यूलर चैंपियन विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधान मंत्री बने थे तो दो धुर विरोधी भाजपा और वामपंथ के समर्थन से बने। जब कि ठीक उसी समय एक दूसरे सेक्यूलर चैंपियन मुलायम सिंह यादव भाजपा के ही समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने। याद कीजिए इंदिरा गांधी की इमरजेंसी जिसे हिंदुत्ववादी शिवसेना और सेक्यूलर वामपंथियों , दोनों ही ने समर्थन दिया था। यह बात भी जगजाहिर है कि मुंबई से वामपंथियों के प्रभाव को और हाजी मस्तान के बहाने मुसलमानों बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए इंदिरा गांधी ने बाल ठाकरे को खड़ा किया था। बाल ठाकरे की गुंडई को अभयदान दिया था ।
अब कांग्रेस अगर हिचकिचाते हुए शिव सेना के नेतृत्व में बन रही सरकार में शामिल होने की दुविधा बार-बार दिखा रही है तो किसी विचारधारा के तहत नहीं , सत्ता का शहद चाटने के लिए , मोल-तोल कर रही है। इधर के दिनों में जब-तब भाजपाई मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की तजवीज देते रहते हैं तो जानते हैं यह जुमला भाजपाइयों ने किस से सीखा ? आप को यह जान कर एकबारगी हैरत तो होगी पर सच यह है कि भाजपाइयों ने यह जुमला पंडित जवाहरलाल नेहरू से सीखा। उन दिनों नेहरू वामपंथियों से जब बहुत आजिज आ जाते तो कहते , फिर आप सोवियत संघ चले जाइए। और वामपंथी चुप हो जाते। चीन से हार के बाद तो नेहरू वामपंथियों से इतने नाराज हो गए कि वामपंथियों पर सख्ती शुरू कर दी थी। मारे डर के साहिर लुधियानवी जैसे शायर भी बिन पूछे बताते फिरते थे कि मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं। ज़िक्र ज़रूरी है कि नेहरू की आलोचना में फेर में मज़रूह सुल्तानपुरी ने जेल की हवा खाई थी। मज़रूह सुल्तानपुरी ने लिखा था :
मन में जहर डॉलर के बसा के
फिरती है भारत की अहिंसा
खादी के केंचुल को पहनकर
ये केंचुल लहराने न पाए
अमन का झंडा इस धरती पर
किसने कहा लहराने न पाए
ये भी कोई हिटलर का है चेला
मार लो साथ जाने न पाए
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू
मार ले साथी जाने न पाए
खैर , समय बदला। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हो कर पहले नेहरू ने फिर इंदिरा गांधी ने भी संघियों के खिलाफ वामपंथियों को पूरी ताकत से खड़ा कर दिया। न सिर्फ़ खड़ा किया तमाम सरकारी कमेटियों , न्यायपालिकाओं , विश्वविद्यालयों , मीडिया समेत तमाम संस्थाओं में लाइन से भर दिया। शिक्षा मंत्री नुरुल हसन से लगायत इरफ़ान हबीब , रोमिला थापर , नामवर सिंह आदि-इत्यादि जैसे लोगों का बेहिसाब उत्थान इसी नीति का परिणाम था। इन्हीं दिनों जे एन यू जैसे वाम दुर्ग भी बने। साहित्य , संस्कृति हर कहीं , हर बिंदु पर वामपंथी लोग भरे जाने लगे। नतीजा यह हुआ कि तब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग वामपंथी सूरमाओं से परास्त हो गए। एक नैरेटिव रच दिया गया कि संघ के लोग गाय , गोबर वाले पोंगापंथी लोग हैं। वामपंथी घोर वैज्ञानिक। वेद , उपनिषद , पुराण , रामायण , महाभारत भारतीय संस्कृति आदि को हिकारत की दृष्टि से देखने की दृष्टि विकसित की गई।
ब्राह्मणवाद का एक नैरेटिव खड़ा कर दलितों और मुसलमानों को एकजुट कर नफरत की नागफनी रोपी गई। जय भीम , जय मीम का एक प्रकल्प खड़ा गया। संघी लोग सामाजिक समरसता का संवाद लिए दही , भात खाते रहे और उधर नफ़रत की नागफनी खूब घनी हो गई। धर्म निरपेक्षता का पाखंड इस नागफनी को घना करने का माकूल औजार बना इमरजेंसी में। लेकिन अतियां इतनी ज़्यादा हो गईं कि वामपंथी अब मजाक का पर्याय बन गए। बुद्धिजीवी पाखंड के प्राचीर बन गए। संघियों को फासिस्ट कहते-कहते वामपंथी खुद कब फासिस्ट बन गए , यह बात वह खुद भी नहीं जान पाए। जे एन यू जैसे शीर्ष शैक्षणिक संस्थान को इस दुर्गति तक लाने के लिए वामपंथियों की अतियां और अराजकता का हाथ इसी नागफनी का नतीज़ा है। इतना कि कांग्रेस के लिए बैटिंग करते-करते यह वामपंथी अपनी अस्मिता और पहचान भी बिसार बैठे हैं। शायद इसी लिए सर्वदा ज्ञान और सलाह की गठरी खोल कर बैठ जाने वाले , बात-बेबात सलाह या टिप्पणी की जगह सीधे फैसला देने की बीमारी वाले वामपंथी महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ एन सी पी और कांग्रेस के सत्ता रथ पर सवार हो जाने पर , अपनी आवाज़ खो कर , खामोश बैठ गए हैं। गोया शिवसेना अब अपनी मराठा गुंडई के नाम पर उत्तर प्रदेश , बिहार के मज़दूरों को जान से मारने , भगाने के अपराध से मुक्त हो गई है। कि अपने हिंदुत्व के जहर से मुक्त हो गई है। क्यों कि सिवाय ओवैसी और भाजपा के हर कोई इस बिंदु पर चुप है। सारे विषैले टिप्पणीकार भी मुंह सिले बैठे हैं। लेखक , पत्रकार भी। गुड है यह भी।
बहरहाल , इन चुप रहने वालों को क्या भाजपा की बिसात नहीं दिख रही है ? जिस बिसात पर आज शरद पवार चाल पर चाल चलने का अभिनय करते हुए विजेता की मुद्रा में खड़े दिख रहे हैं। यह बिसात भाजपा की बिछाई हुई है , यह भी क्या किसी को बताने की ज़रूरत है ? भाजपा ढील दे कर पतंग काटने की राजनीति की आदी हो चली है। क्या यह बात शरद पवार और सोनिया गांधी को बताने की ज़रूरत है। भाजपा खेल गई है एक बड़ा दांव , तात्कालिक दांव हार कर। यह तथ्य अगर किसी शरद पवार , किसी सोनिया गांधी को नहीं दिख रही तो अमित शाह और नरेंद्र मोदी तो टार्च की रौशनी डाल कर दिखाने से रहे। रही शिवसेना की और उद्धव ठाकरे की बात तो अहंकार , ज़िद और सनक में आ कर जिस ने अपनी आंख खुद फोड़ ली हो , उसे तो अल्ला मियां भी कुछ नहीं दिखा सकते। अभी तो आप शरद पवार की सरकार , जिस के मुख्य मंत्री उद्धव ठाकरे होने जा रहे हैं , उन्हें बधाई दीजिए। और जल्दी ही किसी पार्टी के टूटने या महाराष्ट्र में अगले विधान सभा चुनाव का इंतज़ार कीजिए। महाराष्ट्र की राजनीति में फ़िलहाल लक्ष्मण के मूर्छित होने और रावण वध के बीच का समय है। लंका के आनंद लेने का समय है यह। फ़िलहाल तो कांग्रेस ने लंबी लड़ाई लड़ कर अपनी राजनीति को दीर्घ बनाने की जगह , छोटी जीत का स्वाद ले कर , अपनी बीमारी और कमज़ोरी का स्थाई निदान करने की जगह एंटीबायोटिक ले कर सत्ता का आनंद लेना क़ुबूल कर लिया है। लेकिन एक बात और भी है। आजीवन कांग्रेस विरोध में जीने वाले लोहिया एक समय कहा करते थे कि बड़े राक्षस को मारने के लिए कभी-कभी छोटे राक्षस से भी हाथ मिलाना पड़ता है। तो क्या कांग्रेस लोहिया के इस कहे पर चल पड़ी है ? अगर मन करे तो यह बात भी मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि कांग्रेस ने भाजपा रूपी बड़े राक्षस को मारने के लिए शिवसेना जैसे छोटे राक्षस से हाथ मिला लिया है। इस लिए भी कि राजनीति सर्वदा एक संभावना का खेल है। राजनीति अब दो और दो के जोड़ चार से ही नहीं चलती। सांप-सीढ़ी के खेल सरीखी भी चलती है। कभी गाड़ी नाव पर , कभी नाव गाड़ी पर की रवायत भी बहुत पुरानी है।