राम मंदिर पर फ़ैसला आने के बाद मीडिया की क्या प्रतिक्रिया रही? सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आने के बाद जहाँ हर तबके में इसका स्वागत किया गया, एक धड़ा ऐसा भी था, जिसने सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को लेकर नकारात्मकता फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जैसे अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को निरस्त किए जाने के बाद सब कुछ शांतिपूर्वक बीत गया, इन्हें इस बात की चिंता खाए जा रही थी कि राम मंदिर का फ़ैसला हिन्दुओं के हक़ में आने के बाद रक्तपात क्यों नहीं हो रहा? सरकार ने शीर्ष न्यायालय के निर्णय के बाद सुरक्षा व्यवस्था कड़ी की, शांति-सौहार्द की अपील की और सभी पंथों के धर्मगुरुओं से मुलाकात की। लेकिन मीडिया के वामपंथी धड़े ने क्या किया, इसे आगे देखिए।
1. सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला विवादित है: The Quint
‘द क्विंट’ को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि दशकों पुराना विवाद ख़त्म हो गया, उनकी चिंता यह थी कि राम मंदिर पर हो रही राजनीति का अब क्या होगा? क्या यह 2024 तक चल पाएगा? मीडिया पोर्टल ने लिखा कि ओवैसी जैसों का बयान दक्षिणपंथी हिन्दुओं द्वारा ध्रुवीकरण के लिए प्रयोग किया जाता है। विडम्बना देखिए। ओवैसी भी ज़हर उगले तो निशाना हिन्दू ही बनते हैं। ज़हर ओवैसी उगलता है लेकिन ‘द क्विंट’ उसके बयान का जिक्र करते हुए लिखता है कि हिन्दू उसके बयान को लेकर ज़हर फैलाते हैं। मीडिया पोर्टल को इस बात से दिक्कत है कि पीएम मोदी ख़ुद ‘मंदिर कार्ड’ का प्रयोग नहीं करेंगे लेकिन वो अपने कुछ सिपाहसालार नेताओं को इसकी खुली छूट देंगे।
हर क्षण सुप्रीम कोर्ट और संविधान की दुहाई देने वाले वामपंथी जब सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को ही ‘विवादित’ करार दें तो आप उन्हें क्या कहेंगे? ‘द क्विंट’ ने ऐसा ही किया। उसने पूछा कि सुप्रीम कोर्ट ने यह क्यों नहीं बताया कि हिन्दुओं की कौन सी आस्था और विश्वास में ऐसा कहा गया है कि विवादित रहे ज़मीन में कहाँ भगवान राम का जन्म हुआ था, किस बिंदु पर हुआ था। अर्थात, ‘द क्विंट’ ने सुप्रीम कोर्ट से राम के जन्मस्थान की ‘अक्षांश और देशांतर रेखाओं (Longitude & Latitude)’ की माँग की है। जहाँ हज़ार पेज के फ़ैसले में कई महत्वपूर्ण बातें थीं, ‘द क्विंट’ उस जज का नाम खोजता रहा, जिसने ये फ़ैसला लिखा होगा।
2. सुप्रीम कोर्ट ने साहसी फ़ैसला नहीं दिया, अपेक्षित ही नहीं था: The Wire
‘द वायर’ की तो पूछिए ही मत। उसमें मार्कण्डेय काटजू का एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें ऑल्टन्यूज़ के प्रतीक सिन्हा के बयान का जिक्र कर यह साबित करने की कोशिश की गई कि मुस्लिमों से एक तो मस्जिद भी छीन लिया गया और ऊपर से उस ज़मीन का हक़ उन हिन्दुओं को दे दिया गया, जिन्होंने मस्जिद तोड़ी थी। प्रतीक सिन्हा ने स्कूली बच्चों के झगड़ों का उदाहरण देकर इसे समझाया। करोड़ों हिन्दुओं की भावनाएँ इन मीडिया वालों के लिए स्कूली बच्चों के झगड़े की तरह ही है। अब आप समझ सकते हैं कि राम मंदिर पर आकलन करते समय क्यों इनका इतिहास सन 1528 के बाद से ही शुरू होता है?
काटजू ने ‘द वायर’ में लेख लिख कर इस पूरे फ़ैसले को ही विचित्र करार दिया। इसी पोर्टल में अपूर्वानन्द ने एक लेख लिखा, जिसमें जजों के पास हौसला न होने की बात कही गई। क्या जज जेएनयू के वामपंथियों की तरह मारपीट करने के लिए अदालत में बैठते हैं? ‘द वायर’ ने एनआरसी और जम्मू कश्मीर का जिक्र करते हुए लिखा कि राम मंदिर मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से तो ‘साहसी फ़ैसला’ अपेक्षित भी नहीं था। यही सीजेआई रंजन गोगोई ने जब अन्य जजों के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस किया था, तब मसाला की भूखी मीडिया ने उन्हें अपना लाडला बना लिया था। अब? अब शायद अत्यधिक मात्रा में मसाला का सेवन करने के कारण मीडिया के उस धड़े का हाजमा ख़राब हो गया है।
3. रामायण और संविधान की तुलना करने वाला BBC
बीबीसी की तो पूछिए ही मत। जम्मू कश्मीर मुद्दे पर भारत के ख़िलाफ़ प्रोपेगेंडा चला चुके मीडिया संस्थान ने एक कार्टून के जरिए अयोध्या फ़ैसले पर निशाना साधा। उस कार्टून में रामायण और संविधान की तुलना की गई। इसका क्या तुक बनता है? सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में रामायण से भी उद्धृत किए गए अंश हैं और संविधान के अनुसार तो पूरा का पूरा फ़ैसला ही हुआ है। क्या बीबीसी इस्लामिक देशों में वहाँ की पवित्र पुस्तकों का कार्टून में इस्तेमाल कर के इस तरह मजाक बनाने की हिम्मत रखता है? नहीं रखता है। बीबीसी ने दिखाया कि न्यायपालिका के तराजू में रामायण संविधान से ज्यादा भारी दिख रहा है और इसीलिए फ़ैसला उधर की तरफ़ झुक रहा है।
बीबीसी एक क़दम और आगे बढ़ा और उसने पूरे फ़ैसले को ही निराशाजनक करार दिया। इन मीडिया संस्थानों की चाल होती है कि ये सड़क से किसी को भी उठा कर ले आते हैं और उसके बयान या लेख के आधार पर मनगढ़ंत दावे कर देते हैं। किसी गली के कुत्ते के कंधे पर भी बन्दूक रख कर चलाना कोई इनसे सीखे। ताज़ा मामले में बीबीसी दौड़ कर डीएन झा के पास गया, जो उन इतिहासकारों में शामिल थे, जिन्होंने अयोध्या पर ऐसी मनगढ़ंत रिपोर्ट तैयार की थी कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें लापरवाह बता कर फटकार लगाई। डीएन झा के हवाले से बीबीसी ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को निराशाजनक बताते हुए लिखा कि इस फ़ैसले में हिन्दुओं की आस्था और ‘दोषपूर्ण’ एएसआई की रिपोर्ट को तवज्जो दी गई है।
4. ‘द प्रिंट’ को अब सता रहा सबरीमाला फ़ैसले का डर
शेखर गुप्ता के ‘द प्रिंट’ ने एक ही चीज को दो तरीके से पेश कर के ख़ुद को एक न्यूट्रल पोर्टल साबित करने की कोशिशों को जारी रखा है। इनका मीडिया पोर्टल कहता है कि सुप्रीम कोर्ट काफ़ी बदल गया है। उसने लिखा कि पिछले साल सबरीमाला मामले में कोर्ट ने कहा था कि आस्था और विश्वास के आधार पर किसी से बराबरी का अधिकार छीना नहीं जा सकता, वहीं अब सुप्रीम कोर्ट ने जुडिशल ज्ञान से बाहर जाकर आस्था पर भरोसा जताया है। मीडिया पोर्टल सबरीमाला और अयोध्या के फ़ैसलों में क्या चीजें भिन्न हैं, इसे लेकर निशाना साधता रहा। क्या सारे फ़ैसलों को सिर्फ़ एक ही तराजू से तौला जा सकता है?
इसके बाद ख़ुद शेखर गुप्ता ने मोर्चा संभाला। गुप्ता ने एक लम्बे-चौड़े लेख में बताया कि कैसे मोदी जिस ‘राष्ट्रवाद’ की लहर पर चढ़ कर यहाँ तक पहुँचे हैं, वह अब राम मंदिर पर फ़ैसले के बाद ख़त्म हो जाएगा। शेखर गुप्ता ने पोस्ट तो अयोध्या पर लिखी लेकिन वो उसमे अर्थव्यवस्था लेकर आ गए और पूछा कि उसका क्या? उन्हें इस बात की चिंता खाए जा रही है कि अब अगला चुनाव किन मुद्दों पर होगा? एनआरसी, अयोध्या और पाकिस्तान मुद्दे को गुप्ता ने ‘इमोशनल पॉपुलिजम’ करार दिया है।
5. रक्तपात से बने मंदिर में पूजा करने कौन जाएगा?: नेशनल हेराल्ड
कॉन्ग्रेस के मुखपत्र ‘नेशनल हेराल्ड’ में एक अजीबोगरीब लेख प्रकाशित कर राम मंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का विरोध किया है। सुजाता आनंदन ने इस लेख में लिखा है कि उन्होंने जब 1992 में बाबरी विध्वंस की ख़बर सुनी, तभी उन्होंने यह फ़ैसला किया था कि यदि यहाँ मंदिर बनता भी है तो वे कभी पूजा करने नहीं जाएँगी। सुजाता ने लिखा कि वो किसी ऐसी जगह पर मंदिर को देखना ही नहीं चाहती हैं, जहाँ पहले मस्जिद रहा हो। उन्होंने दावा किया कि इस संघर्ष में ख़ूब ख़ून-ख़राबा हुआ है और भगवान कभी ऐसा नहीं चाहेंगे कि ख़ून की इन बूँदों से मंदिर की शुद्धता भंग हो।
सुजाता ने लिखा है कि आडवाणी ने प्रधानमंत्री का पद पाने के लिए राम मंदिर आंदोलन में हिस्सा लिया, जो न तो उन्हें कभी मिला और न ही आगे मिलेगा। अडवाणी की आलोचना करते हुए सुजाता ने आगे लिखा कि उनका पीएम न बनना ‘कर्म के फल’ की विचारधारा में उनका विश्वास पक्का करता है। आडवाणी पर उन्होंने निर्दोषों का ख़ून बहाने का आरोप भी लगाया। सुजाता ने ‘नेशनल हेराल्ड’ में लिखा कि आडवाणी के साथ जब भी कुछ बुरा होता है तो उन्हें ख़ूब ख़ुशी होती है। साथ ही वो नरेंद्र मोदी पर आडवाणी के साथ दुर्व्यवहार करने का आरोप लगाना भी नहीं भूलीं।
6. वृंदा करात और स्वाति चतुर्वेदी जैसे ट्रोल्स की शरण में एनडीटीवी
यहाँ अगर एनडीटीवी की बात न की जाए तो शययद ये सूची अधूरी ही रहेगी। एनडीटीवी ने अयोध्या फैसले के बाद अपनी पीठ थपथपाते हुए दावा किया कि उस दिन सबसे ज्यादा उसे ही देखा गया। एनडीटीवी वाले शायद ये भूल गए कि लोग उस दिन उनके चैनल पर इसीलिए गए थे, ताकि उनका रुदन देख सकें, स्टूडियो में उतरे हुए चेहरों को देख सकें। यही कारण है कि जब चुनावों में भाजपा जीत रही होती है तो लोग एनडीटीवी का ही रुख करते हैं। एनडीटीवी दौड़ कर सीधा वामपंथी नेता वृंदा करात के पास पहुँचे और वहाँ से एक लेख लिखवा कर लाए। करात को इस बात से आपत्ति है कि मंदिर पक्ष को ‘हिन्दू पक्ष’ क्यों बोला जाता है क्योंकि वो नहीं चाहते कि वहाँ आज तक जो कुछ भी हुआ, उसमें उनका नाम इस्तेमाल हो।
करात ने जजमेंट को विरोधाभासी करार दिया। करात इस बात से भी नाख़ुश हैं कि भारतीय क़ानून में देवता को ‘ज्यूरिस्टिक पर्सन’ क्यों माना जाता है और वो इसे विचित्र बताती हैं। ट्रोल स्वाति चतुर्वेदी ने भी एनडीटीवी में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने अजीबोगरीब दावे किए। उन्होंने लिखा कि अयोध्या आंदोलन के एक नेता उनके सामने रोने लगे क्योंकि राम मंदिर का इस्तेमाल ‘बहुसंखयक मसल फ़्लेक्सिंग’ के लिए किया जा रहा है। स्वाति राम मंदिर और अनुच्छेद 370 के बाद अब जनसंख्या नियंत्रण और यूनिफॉर्म सिविल कोड आने वाला है। वो लिखती हैं कि ऐसी नीतियों के मामले को गंभीरता से लें क्योंकि मोदी सरकार जो कहती है, वो कर के दिखाती है।
7. अख़बारों ने फ़ैसले को उत्सव के रूप में क्यों देखा?: न्यूज़लॉन्ड्री
हिन्दू देवी-देवताओं को उनका कार्टून बना कर मजाक उड़ाना मीडिया के लिए एक सामान्य प्रक्रिया बन गई है क्योंकि बाकी किसी भी अन्य मजहब के ईश्वर तो दूर, गुरुओं के साथ भी उन्हें ऐसा करने की हिम्मत नहीं है। इसी क्रम में न्यूज़लॉन्ड्री ने एक ख़बर में राम मंदिर को लेकर मीडिया में चल चुकी बहस पर निशाना साधा। मीडिया पोर्टल ने उस कार्टून में दिखाया कि भगवान राम माँ सीता की गोद में लेट कर रो रहे हैं और हनुमान उनके पाँव दबा रहे हैं। राम पूछते हैं कि उनका घर कहाँ है? इन कार्टून को काफ़ी अपमानजनक तरीके से बनाया गया। पोर्टल को इस बात से दिक्कत है कि रामायण से जुड़े नाटक क्यों खेले जाते हैं और मीडिया राम मंदिर पर बहस ही क्यों करती है?
हिन्दू धर्म में आपको बहुत सारी लिबर्टी है लेकिन इसे मजाक का विषय बनाने वालों से पूछा जाना चाहिए कि किसी अन्य मजहब के साथ वो ऐसा क्यों नहीं करते? और हाँ, यही नियम हिन्दू धर्म पर भी क्यों लागू नहीं करते? राम मंदिर पर फ़ैसले के अगले दिन हिंदी ख़बर हिंदी अख़बारों की हैडलाइन बनी और देश की भावनाओं के अनुरूप इसे बड़ा कवरेज दिया गया। न्यूज़लॉन्ड्री को इस बात से दिक्कत थी कि इन समाचारपत्रों ने इस फैसले को एक ‘विजय उत्सव’ के रूप में क्यों लिया? क्या 500 साल बाद सुप्रीम कोर्ट देश की धरती के साथ, संवेदनाओं के साथ न्याय करता है तो इसे विजय के रूप में नहीं लिया जा सकता?
8. मुस्लिमों को हाशिये पर भेजा रहा रहा है: स्क्रॉल ने राम मंदिर का श्रेय कॉन्ग्रेस को दिया
इसी तरह स्क्रॉल ने भी राम मंदिर पर फ़ैसले की व्याख्या की। स्क्रॉल थोड़ा और पीछे गया और उसने बीफ-विरोधी क़ानून और धर्मांतरण रोकथाम क़ानून का जिक्र करते हुए लिखा कि हिन्दू राष्ट्रवाद धीरे-धीरे भारत के सेक्युलर आईडिया पर हावी हो रहा है। कथित लीगल स्कॉलर फैज़ान मुस्तफा के हवाले से स्क्रॉल ने लिखा कि सुप्रीम कोर्ट ने आस्था और विश्वास को क़ानून से ऊपर रख कर फ़ैसला दिया। स्क्रॉल ने अपने आकाओं को ख़ुश करने के लिए याद दिलाया कि कैसे कॉन्ग्रेस ने 1986 में मंदिर का ताला खुलवा कर राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत की? अब स्क्रॉल कहीं जवाहरलाल नेहरू को ही कारसेवक न घोषित कर दे!
राम मंदिर मुद्दे को जबरदस्ती कई डरावनी चीजों से जोड़ कर देखा गया जबकि ये मुद्दा भारत की ज़मीन पर विदेशी इस्लामी आक्रांताओं के अतिक्रमण से जुड़ा था। स्क्रॉल ने दावा किया कि मुस्लिमों को हाशिये पर भेजा जा रहा है और सामाजिक-आर्थिक रूप से वो दलितों से भी बदतर स्थिति में हैं। इस डाटा या सूचना को राम मंदिर पर लिखे गए लेख में घुसेड़ कर आख़िर स्क्रॉल साबित क्या करना चाहता है? स्क्रॉल लिखता है कि अपनी पत्नी को छोड़ने पर एक मुस्लिम को अब सज़ा हो सकती है। महिला अधिकार की बात करने वाले इन मीडिया पोर्टल्स को महिलाओं के भले के लिए बने क़ानून से भी दिक्कत है? और हाँ, दिक्कत है तो इसका अयोध्या से क्या सम्बन्ध?
अनुपम कुमार सिंह