राजेश श्रीवास्तव
महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों के नतीजों की अगर ठीक से व्याख्या की जाए तो एक बात तो साफ हो जाती है कि वहां भारतीय जनता पार्टी की जीत नहीं हुई है। यह बात दूसरी है कि सरकार वहां भाजपा की ही बनेगी। लेकिन एक वाक्य में इन चुनावों में नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की हार हुई है। जिस तरह से दोनों राज्यों में कांग्रेस ने बहुत ही लचर प्रचार किया और दिग्गज नेताओं की सभाएं भी न के बराबर करायी और परिणाम स्वरूप कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को जो सीटें हासिल हुई हैं उससे साफ है कि अब जनता का भाजपा से मोहभंग हो रहा है। अगर यह कहा जाय्ो कि विधानसभा चुनावों में राष्ट्रवाद का भावनात्मक गुब्बारा फूट चुका है, जबकि स्थानीय मुद्दों को मतदाताओं ने तरजीह दी है, तो अतिशयोक्ति न होगी।
महाराष्ट्र में तो भाजपा-शिवसेना की महायुति को स्पष्ट बहुमत मिल गया है। लेकिन अलग-अलग दोनों इस स्थिति में नहीं हैं कि सरकार बना सकें। चुनाव के बाद जिस तरह से शिवसेना भाजपा हाईकमान को आंख दिखा रहा है उससे यह भी साफ है कि यह गठबंधन कुर्सी के लिए ही हुआ था। उधर हरियाणा में भी 75 पार वाला नारा भाजपा के काम नहीं आया, सरकार बनाने के लिए जरूरी आंकड़े वह नहीं जुटा पाई। वहां तो तकरीबन सरकार के दर्जन भर मंत्री ही चुनाव हार गऐ और अब यह नजर आ रहा है कि गोवा, मणिपुर, कर्नाटक जैसा खेल हरियाणा में भी खेला जाएगा।
लोकतंत्र का नाम लेने वाली, राष्ट्रवादी होने का दंभ भरने वाली किसी भी पार्टी के लिए यह शर्मनाक है कि वह जनादेश को स्वीकार करने के बजाय केवल सत्ता हासिल करने के लिए सारे प्रपंच रचे। लेकिन आज की राजनीति में इसे सहज मान लिया गया है, इसलिए भाजपा ने दुष्यंत चौटाला को अपने साथ मिला लिया और निर्दलियों का भी समर्थन हासिल कर लिया। इससे साफ है कि एक बार फिर सत्तारोही प्रपंच की जीत हुई। देखा जाए तो जनता के साथ सरासर धोखा है जिस तरह मात्र दस महीने पहले अस्तित्व में आयी जेजेपी ने पानी पी-पीकर चुनाव में भाजपा को कोसा था और चुनाव बाद उसी की गोद में बैठ गयी। इसे क्या कहा जाऐगा, परिभाषित करने को आपको छोड़ रहा हूं। कांग्रेस को तो पहले ही चुका हुआ मान लिया गया था, क्योंकि वहां चुनाव से ऐन पहले प्रदेश इकाई में बदलाव किया गया। लेकिन जिस तरह से दोनों राज्यों में उसे सीटें मिलीं उससे उसकी स्थिति में काफी इजाफा हुआ है।
महाराष्ट्र चुनाव में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन का प्रदर्शन उम्मीद से बेहतर रहा। और देखा जाए तो इस चुनाव में छत्रपति शरद पवार ही बन कर उभरे हैं। चुनाव प्रचार में उम्र और स्वास्थ्य की सीमाओं को नजरंदाज करते हुए उन्होंने कड़ी मेहनत की और राजनीति के युवा खिलाड़ियों को अपने खेल से चमत्कृत कर दिया। इन चुनावों के बाद भारत के राजनैतिक नक्शे में कोई खास बदलाव नहीं आने वाला है।
भाजपा का भगवा रंग अब भी सबसे ज्यादा उभर कर दिख रहा है। लेकिन राम मंदिर, अनुच्छेद 37०, सावरकर को भारत र‘, हाउडी मोदी ऐसे तमाम हथकंडे भी भाजपा को आम चुनावों वाली जीत का अहसास नहीं दिला सके हैं। और अब इस जीत के बावजूद भाजपा को यह विचार करना चाहिए कि जब उसे भारत पर राज करना ही है तो जमीन से जुड़े मुद्दों से वह कब तक आंख चुराएगी। आर्थिक मंदी, बेरोजगारी, शिक्षा, महिला सुरक्षा जैसे मसलों पर अपनी नाकामी की समीक्षा वह क्यों नहीं करती है। विधानसभा चुनाव तो स्थानीय मुद्दों पर ही केंद्रित होते हैं, लेकिन भाजपा को तो उपचुनावों में भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली है। जिन्हें दूसरे दलों से तोड़कर वह लाई थी, वे भी सफल नहीं हुए हैं। विधानसभा चुनावों में राजनैतिक दलों के रणनीतिक कौशल, मतदाता की राजनैतिक समझ की परीक्षा के साथ मीडिया की निष्पक्षता भी परखी जाती है। जिसमें पिछले कई चुनावों की तरह इस बार भी उसका प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा है। एक्जिट पोल की भविष्यवाणी के साथ आकाओं को खुश करने की परिपाटी अब उसे छोड़नी चाहिए और नीर-क्षीर विवेक के साथ काम करना चाहिए।
इन दोनों राज्यों के चुनाव परिणामों के संदेश को देखा जाए तो भाजपा के लिए यही है कि उसे आम आदमी की परेशानियों को समझना होगा। रोजगार के, आय बढ़ाने के, महंगाई कम करने, नौकरियों की संख्या बढ़ाने, उद्योग धंध्ो बढ़ाने आदि के उपायों पर विचार करना होगा, भूख्ो पेट से राष्ट्रवाद की आवाज पुरजोर नहीं होती। जबकि कांग्रेस के लिए संदेश यह है कि कांग्रेस हाईकमान को भी अब इस भरोसे नहीं बैठना चाहिए कि लोग भाजपा से ऊबेंगे तो खुद उसको ही वोट करेंगे। कांग्रेस को अपने संगठन को चाक-चौबंद कर सारे कील-कांटे दुरुस्त करना चाहिए क्योंकि जनता को विकल्प बनाने के लिए खुद को उसे मजबूत करना होगा।