प्रखर श्रीवास्तव
रविश कुमार ने सही कहा है कि वो इतने बड़े नहीं हुए कि वो किसी को हरा पाएं… सही तो है, रविश कुमार किसी को पार्षद तक का चुनाव नहीं हरा सकते, वो पीएम को क्या हराएंगे ??? लेकिन रविश जैसों की सोच… जिसे मैंने “रविश सिंड्रोम” का नाम दिया है उसने एक काम ज़रूर किया है… ये “रविश सिंड्रोम” मोदी को हरा तो नहीं पाया लेकिन इस “रविश सिंड्रोम” ने मोदी की जीत में बहुत बड़ा योगदान दिया है… खैर आगे बढ़ें उसके पहले मैं ये साफ कर देना चाहता हूं कि रविश खुद को बड़ा समझने की गलती ना करें, मैंने रविश के साथ 15 महीने NDTV में काम किया है, इसलिए मुझे सारे सच पता हैं… मैंने तो बस लोगों की सहूलियत के लिए एक प्रकार की मानसिक बीमारी को “रविश सिंड्रोम” का नाम दिया है, जिससे लोगों को मेरी बात समझने में आसानी हो…
आइये अब समझते हैं कि ये मानसिक बीमारी यानि “रविश सिंड्रोम” है क्या… जिसने इस देश के कई पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों को अपना शिकार बना लिया और जिसका सीधा फायदा मोदी को मिला। इसकी शुरुआत मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से करूंगा… इसी साल 24 फरवरी को कुंभ यात्रा के दौरान मोदी ने सफाई कर्मचारियों के पैर धोए… जैसे ही मैंने ये तस्वीर टीवी पर देखीं तो मैं खुल कर मोदी की तारीफ करने से अपने आप को रोक नहीं पाया… लेकिन मेरी ये तारीफ सुनकर पास ही खड़े एक शख्स (जो कि खुद “रविश सिंड्रोम” का शिकार है और सुबह कुल्ला करने से पहले ही सोशल मीडिया पर मोदी को गाली बकना शुरु कर देता है) ने बेहद नफरत से कहा “ये फोटोऑप है… ये मोदी फोटो खींचाने का कोई मौका नहीं छोड़ता, चुनाव आ रहे हैं और इसका ड्रामा शुरु”…
ये सुनकर मैं 5 मिनट के लिए सकते में आ गया… मैं आज कसम खाकर कहता हूं कि मोदी की जगह अगर मैंने पूर्व पीएम देवेगौड़ा, गुजराल, चरण सिंह को भी ये करते देखा होता तो मैं तारीफ ही करता और इतनी ही दिल खोलकर तारीफ करता… कोई माने या न माने छूआ-छूत आज भी हमारे समाज में जहर की तरह मौजूद है… रोज़ अपनी सोसाइटी में देखता हूं कि जैसे ही कोई सफाई कर्माचारी लिफ्ट में एंट्री लेता है तो लोगों के हाव-भाव बदल जाते हैं, वो अनकम्फर्ट महसूस करने लगते हैं… और सोचिए ऐसे समाज में एक प्रधानमंत्री सफाई कर्मचारियों के पैर धो कर 1500 साल पुरानी कुप्रथा को मिटाने की कोशिश कर रहा था और “रविश सिंड्रोम” से ग्रस्त लोग उसमें भी बुराई ढूंढ रहे थे… उस दिन सच में बहुत दुख हुआ… लेकिन उसी समय मैं समझ गया कि अब मोदी को इस देश से मिटाया नहीं जा सकता… चाहें वो हारे या जीते…
मोदी की बुराई करना कोई गुनाह नहीं है… लेकिन बुराई का मतलब ये नहीं होता कि आप उनके चलने फिरने, खाने पीने, हंसने रोने में भी बुराई ढूंढने लगो… और दरअसल इस “रविश सिंड्रोम” की शुरुआत 2014 में मोदी की एंट्री के साथ ही हो गई थी… मोदी संसद में जब दाखिल हुए तो उन्होने संसद की सीढ़ियों को नमन किया, लेकिन “रविश सिंड्रोम” से ग्रस्त लोगों को ये ड्रामा लगा… हैरत होती है कि खुद पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी तक ने मोदी के इस जैश्चर की तारीफ की, लेकिन इन “बीमार” लोगों को न तो तब कुछ समझ आया और न अब…
इनकी ये बीमारी 5 साल में इतनी लाइलाज हो गई कि इन्होने अपने चैनल पर मोदी की मिमिक्री तक कर डाली, वो भी पूरे 30 मिनट तक… माफ करना ये व्यंग्य नहीं था, ना ये पॉलिटिकल सटायर था… ये आपके अंदर मौजूद नफरत का वो “जहरीला सांप” था जिसने सबसे पहले आपके खुद के विवेक को डंसा और फिर उसे हमेशा के लिए खत्म कर दिया… यही वो नफरत से भरा “रविश सिंड्रोम” है जिसने मोदी के लिए हमदर्दी पैदा की… इसीलिए इस “रविश सिंड्रोम” का मोदी की जीत में बहुत बड़ा योगदान है।
देश के बुद्धिजीवी उन “बल्लेबाज़” पत्रकारों का तो विरोध करते हैं जिन्होने पूरे पांच साल तक मोदी के लिए बैटिंग की… लेकिन उन्हे उन “गेंदबाज़” पत्रकारों की गलती नज़र नहीं आती जिन्होने हमेशा मोदी को नो बॉल पर आउट करने की कोशिश की है… इसीलिए मोदी आज तिहरा शतक बना कर “नॉट आउट” हैं… और ये बुद्धिजीवी पत्रकार ऐसे ही मोदी को “नो बॉल” फेंकते रहे तो यकीन मानिए 2024 में मोदी ब्रायन लारा के नॉट आउट 400 के रिकॉर्ड को भी तोड़ देंगे।
(वरिष्ठ पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से)