पुलकित भारद्वाज
लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण के तहत गुजरात में मतदान प्रक्रिया पूरी हो चुकी है. प्रदेश में इस बार 63.73 फीसदी मतदान हुआ है जो 2014 के 63.66 प्रतिशत के मुकाबले .07 प्रतिशत ज्यादा है. कुछ गिने-चुने राजनीतिक विश्लेषक इस बढ़त को ‘अंडरकरंट’ यानी सरकार के प्रति नाराज़गी से जोड़कर देख रहे हैं. हालांकि ज्यादातर की राय में यह अंतर कुछ खास नहीं है और इसका सीधा मतलब यह है कि कांग्रेस राज्य में अपनी स्थिति बेहतर करने में नाकाम रही है. उनके यह बात कहने का एक प्रमुख आधार यह भी है कि 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के लिए किसी नायक की तरह उभरे तीन नेताओं में से एक- अल्पेश ठाकोर हाल ही में पार्टी से बग़ावत कर चुके हैं तो वहीं हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी कोई बड़ा असर छोड़ते नहीं दिखे.
सवा साल पहले विधानसभा चुनाव में इन तीनों नेताओं का तिलस्म गुजरात के सिर इस कदर चढ़ा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तक को अपने ही गृहराज्य में भरी सर्दी पसीना आ गया था. लेकिन अब स्थिति कुछ और नज़र आती है. सवाल है कि ऐसा क्या हुआ कि गुजरात में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर का प्रभाव इतनी तेजी से क्यों घटता नज़र आया है?
लेकिन बीते साल अल्पेश एक बार फिर अचानक से पिछले साल सुर्ख़ियों में शामिल हुए. वजह थी गुजरात में परप्रांतीय लोगों पर बड़ी संख्या में हुए हमले. तब गुजरात में 14 महीने की एक बच्ची के साथ दुष्कर्म के एक मामले में बिहार के एक मज़दूर को गिरफ़्तार किया गया था. इसके बाद राज्य के कई इलाकों में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के ख़िलाफ़ जबर्दस्त हिंसा भड़क गई और कई लोगों को गुजरात छोड़ना पड़ा था. हिंदीभाषी इन पीड़ितों ने उस समय ख़ुद पर हुई ज्यादती के लिए अल्पेश ठाकोर और उनके नेतृत्व वाली ‘गुजरात क्षत्रिय-ठाकोर सेना’ को भी जिम्मेदार ठहराया.
विश्लेषक बताते हैं कि ऐसा करके ठाकोर ने लोकसभा चुनाव से पहले क्षेत्रीय राष्ट्रवाद को भुनाने की कोशिश की थी, लेकिन लगभग नाकाम रहे. तिस पर उनकी वजह से कांग्रेस को पूरे गुजरात में बड़ी संख्या में मौजूद बिहार-उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले प्रवासियों का रोष झेलना पड़ा सो अलग. इसके अलावा लंबे समय से उनके कांग्रेस से बनते-बिंगड़ते रिश्तों की भी ख़बरें खूब सामने आईं. एक वरिष्ठ पत्रकार इस बारे में कहते हैं, ‘इस सब से आमजन के बीच अल्पेश ठाकोर की छवि उनके राजनैतिक गुरु शंकरसिंह वाघेला की तरह दलबदलू नेता के ही तौर पर स्थापित होने लगी थी, जो उनके लिए ठीक साबित नहीं हुई.’ इसलिए कई जानकारों का कहना है कि अल्पेश के अलग राह चुनने से कांग्रेस को नुकसान होने की संभावना तो बनी है, लेकिन उनके साथ रहने से से पार्टी को कोई खास फायदा हो जाता, यह कहना मुश्किल है!
अब बात हार्दिक पटेल की. वे पिछले महीने ही कांग्रेस में शामिल हुए थे, लेकिन उनका यह फैसला हाल-फिलहाल न तो उनके काम आता दिखा और न ही कांग्रेस के. पाटीदार आरक्षण आंदोलन के दौरान हुई हिंसा के आरोपों के चलते अदालत ने पटेल को चुनाव लड़ने के अयोग्य माना.
यही वजह थी कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस कई पाटीदार बहुल क्षेत्रों में भी बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाई. इसके सटीक उदाहरण के तौर पर गुजरात के उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल की मेहसाणा सीट को लिया जा सकता है. मेहसाणा पाटीदार बहुल इलाका है और हार्दिक पटेल के आंदोलन का केंद्र रहा है. नितिन पटेल को हराना हार्दिक ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था और पाटीदारों का रुख़ भी कुछ-कुछ ऐसा दिख रहा था. लेकिन हार्दिक पटेल अपनी इस कवायद में नाकाम रहे.
बाद में गुजरात में अपना असर बनाए रखने के लिए हार्दिक बीते साल सितंबर में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठ गए. लेकिन इस बार उन्होंने अपनी मांगों में पाटीदारों को आरक्षण के अलावा कृषि कर्ज़ माफ़ी को भी प्रमुखता से शामिल किया. उनके इस निर्णय को विश्लेषकों ने पाटीदारों के बीच आरक्षण आंदोलन के प्रति बढ़ रही उदासीनता से जोड़कर देखा.
18 दिन चले इस अनशन के दौरान देश और प्रदेश की राजनीति के कई दिग्गज तो हार्दिक से मिलने पहुंचे थे. लेकिन इस अनशन से जुड़ी भीड़ की संख्या (तीन साल में) लाखों से घटकर कुछ सौ पर ही सिमट गई थी. हालांकि इसके पीछे हार्दिक ने तर्क दिया कि प्रशासन की सख़्ती के चलते उनके समर्थक उन तक नहीं पहुंच पाए. लेकिन गुजरात के कई राजनीतिकार इस तर्क से सहमत नहीं दिखे. उनका कहना था कि सरकार ही नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट तक की आंख में आंख डालकर चुनौती देने वाले हार्दिक अपनी दलीलों की आड़ में यह छिपाने की कोशिश कर रहे थे कि उन्हें मिलने वाला अपार जनसमर्थन अब खिसक चुका है.
अब सवाल जिग्नेश मेवानी का. गुजरात विधानसभा चुनाव में मेवानी के लिए कांग्रेस ने अपनी सुरक्षित मानी जा रही वड़गाव सीट खाली की थी. वड़गाव में दलित-मुस्लिम आबादी बहुमत में है. विधायक बनने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में जिग्नेश अपने समकक्ष हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर की तुलना में तेजी से चमके हैं. लेकिन यह बात गुजरात में उनके और कांग्रेस के लिए बहुत फायदे का सौदा साबित नहीं हुई है.
वड़गाव के स्थानीय लोगों को शिकायत है कि क्षेत्र के बजाय राष्ट्रीय राजनीति में ज्यादा मशगूल होने की वजह से उनके विधायक अधिकतर नदारद ही रहते हैं. वड़गांव विधानसभा क्षेत्र के सुफियान यूसुफ़ पादरवाला का इस बारे में कहना है, ‘मेवानी के पास स्थानीय मुद्दों की फ़रियाद ले जाने पर वे अक्सर उन्हें छोटे-छोटे काम घोषित कर उनमें अपनी दिलचस्पी नहीं दिखाते.’ अपनी परेशानियों को हमसे साझा करते हुए पादरवाला आगे जोड़ते हैं, ‘चुनाव में हमने जिग्नेश भाई की वोट और नोट दोनों से मदद की थी. लेकिन जब उन्हें क्षेत्रीय स्तर के काम करने ही नहीं थे तो विधायक के चुनाव में इतनी हायतौबा मचाई ही क्यों? उन्हें सीधे सांसद का ही चुनाव लड़ना चाहिए था.’
हालांकि मेवानी समर्थक उनके बचाव में दलील देते हैं कि उनकी अनुपस्थिति में उनका कोई न कोई प्रतिनिधि लोगों की बात सुनने के लिए क्षेत्र में मौजूद रहता है. वहीं मेवानी से ख़फा एक मतदाता इस बात की काट के तौर पर कहते हैं, ‘हमने उन्हें अपना प्रतिनिधि इसलिए नहीं चुना था कि वे खुद गायब रहकर प्रतिनिधियों की चेन तैयार कर दें.’
जिग्नेश मेवानी के इस रुख़ की वजह से प्रदेश के दलितों के बीच भी एक भ्रम की स्थिति पैदा हो गई. प्रदेश के दलित कार्यकर्ता किरीट राठोड़ इस बारे में कहते हैं कि गुजरात के दलितों के लिए गर्व की बात है कि उनके बीच से निकला नेता राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने में सफल रहा है. लेकिन इतने भर से प्रदेश के दलितों की परेशानियां दूर नहीं होंगी. उन्हें सुलझाने के लिए यहां टिकना पड़ेगा. बकौल राठोड़, ‘वोटिंग के एक दिन पहले तक राज्य के कई दलितों ने हम से इस बाबत संपर्क किया है कि चुनाव में वोट किसे दें? अपनी रैलियों में जिग्नेश भाई ने ये तो कहा कि भारतीय जनता पार्टी और मोदी को वोट मत देना. लेकिन उन्होंने खुलकर यह नहीं कहा कि हमें कांग्रेस के साथ जाना है या बसपा के साथ या फिर कोई और विकल्प तलाशना है?’ गुजरात कांग्रेस से जुड़े एक पदाधिकारी सवालिया लहजे में अपना रोष ज़ाहिर करते हुए कहते हैं, ‘दलित वोट बंटने की वजह से कांग्रेस को नुकसान और भाजपा को फायदा होना तय है. ऐसे में इसका जिम्मेदार कौन होगा?’
गुजरात में हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी की पकड़ ढीली होने के पीछे प्रदेश के समाजशास्त्री गौरांग जानी कुछ और कारण भी बताते हैं. वे कहते हैं, ‘बीते ढाई दशक के भाजपा के कार्यकाल में वैचारिक तौर पर लोगों को, जिनमें खासतौर पर युवा शामिल हैं, बहुत कमजोर कर दिया गया है. लिहाजा मतदाता के तौर पर ये लोग सही और गलत का फैसला लेने में बड़े स्तर पर नाकाम रहे हैं. इसलिए हार्दिक और जिग्नेश को यहां अपनी जगह बचाए रखने में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.’ हालांकि जानी आगे ये भी जोड़ते हैं, ‘चूंकि जिग्नेश और हार्दिक भी गुजरात के इसी माहौल में पले-बड़े हैं इसलिए वे भी वैचारिक तौर पर समाज की जड़ों से जुड़ पाने में उतने मजबूत साबित नहीं हो पा रहे हैं. उन दोनों के पास काल्पनिक विचारधारा तो है, लेकिन उसे जमीन से जोड़ पाने का हुनर उन्हें सीखना पड़ेगा.’