क्यों भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे बेंजामिन नेतन्याहू का फिर प्रधानमंत्री बनना लगभग तय है

इजरायल। इजरायल के मतदाता मंगलवार, नौ अप्रैल को अपना अगला प्रधानमंत्री चुनने के लिए मतदान करेंगे. इस चुनाव में हर किसी की नजरें तीन बार से लगातार प्रधानमंत्री पद पर बने हुए बेंजामिन नेतन्याहू पर लगी हैं. चुनाव का नतीजा अगर उनके पक्ष में आता है तो वे रिकॉर्ड पांचवीं बार देश के मुखिया बनेंगे. लेकिन, नेतन्याहू के लिए इस बार मुश्किलें पहले से काफी अलग हैं. इजरायल के अटॉर्नी जनरल भ्रष्टाचार के तीन मामलों में पुलिस जांच के बाद उनके खिलाफ मुकदमा चलाए जाने की इजाजत दे चुके हैं.

इसके अलावा इस चुनाव में उनकी ‘लिकुड पार्टी’ के सामने एक बड़ी चुनौती मुख्य विपक्षी नेता बेनी गांट्ज़ भी हैं. इजरायली सेना के पूर्व प्रमुख जनरल बेनी गांट्ज़ बेहद ईमानदार और साफ़ छवि के नेता हैं. बीते दिसंबर में ही वे ‘इजरायल रेसिलिएंस’ नामक पार्टी बनाकर चुनावी मैदान में उतरे हैं. शुरुआत में उनकी पार्टी को बड़ी चुनौती नहीं माना जा रहा था, लेकिन बीती फरवरी में जब बेनी गांट्ज़ ने तीन पूर्व जनरलों को अपनी पार्टी से जोड़ा और देश की दो अन्य प्रमुख पार्टियां तेलेम और येश अतिद के साथ मिलकर ‘ब्लू एंड वाइट’ गठबंधन बनाया तो वे मुख्य लड़ाई में आ गए.

लेकिन, इस सर्वे के करीब एक महीने बाद यानी बीते हफ्ते हुए सर्वेक्षणों में चुनाव को लेकर स्थितियां फिर पलट गईं. इन हालिया सर्वेक्षणों के मुताबिक लिकुड पार्टी और ‘ब्लू एंड वाइट’ गठबंधन दोनों को 28-28 सीटें मिलने जा रही हैं. इजरायल की राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी बेंजामिन नेतन्याहू के लिए यह स्थिति काफी बेहतर मानी जा रही है. जानकारों का कहना है कि अगर असल परिणाम ऐसे ही रहे तो नेतन्याहू एक बार फिर गठबंधन की सरकार बनाने में कामयाब हो जाएंगे.

हालिया सर्वेक्षणों के बाद सबसे बड़ा सवाल यह पूछा जा रहा है कि आखिर वह क्या वजह है जिसके चलते भ्रष्टाचार के मामलों में घिरे होने और कुल चार बार सत्ता का सुख भोगने के बाद भी स्थितियां बेंजामिन नेतन्याहू के पक्ष में बनी हुई हैं.

इजरायल की चुनावी प्रक्रिया का भी योगदान

हालिया सर्वेक्षणों में अगर बेंजामिन नेतन्याहू के फिर प्रधानमंत्री बनने की बात कही जा रही है तो उसकी एक बड़ी वजह इजरायल की चुनावी प्रक्रिया भी है. यहां चुनाव ‘अनुपातिक-मतदान योजना’ के तहत होता है. इसमें वोटर को बैलेट पेपर पर प्रत्याशियों की जगह पार्टी को चुनना पड़ता है. किसी भी पार्टी को वहां की संसद (नेसेट) में पहुंचने के लिए कुल मतदान में से न्यूनतम 3.25 फीसदी वोट पाना जरूरी है. अगर किसी पार्टी का वोट प्रतिशत 3.25 से कम रहता है तो उसे संसद की कोई सीट नहीं मिलती. पार्टियों को मिले मत प्रतिशत के अनुपात में उन्हें संसद की कुल 120 सीटों में से सीटें आवंटित कर दी जाती हैं.

जानकारों की मानें तो इसी के चलते नेतन्याहू के एक बार फिर सत्ता में आने की संभावना है. नेतन्याहू की सरकार को इजरायल की अब तक की सबसे दक्षिणपंथी सरकार माना जाता है. वहीं सारी दक्षिणपंथी पार्टियां चुनाव नतीजे आने के बाद उन्हें ही अपना समर्थन देती रही हैं. हमेशा की तरह इस बार भी चुनाव में दक्षिणपंथी विचारधारा की पार्टियों की संख्या ज्यादा है, इसलिए माना जा रहा है कि बेंजामिन नेतन्याहू इनके समर्थन से फिर सरकार बना लेंगे.

हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक चुनाव में नेतन्याहू की पार्टी को भले ही केवल 28 सीटें मिलने का अनुमान हो, लेकिन चुनाव के बाद वे जब दक्षिणपंथी पार्टियों का गठबंधन बनाएंगे तो इसके पास 66 सीटें हो जाएंगी, जो बहुमत से पांच ज्यादा हैं. सर्वेक्षण के मुताबिक, विपक्षी ‘ब्लू एंड वाइट’ पार्टी के बेनी गांट्ज़ तमाम गठजोड़ के बाद भी केवल 54 सीटों तक ही पहुंच पाएंगे.

दक्षिणपंथ के नाम पर एक-एक वोट बटोरने की कोशिश

इजरायली राजनीति पर नजर रखने वाले जानकारों की मानें तो चुनाव से तुरंत पहले अपने खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा उठता देख, बेंजामिन नेतन्याहू को दक्षिणपंथ का ही सहारा दिखा. उन्होंने अपना पूरा ध्यान चुनाव को राष्ट्रवाद, दक्षिणपंथ और फिलस्तीन विरोध पर केंद्रित करने पर लगा दिया. नेतन्याहू ने देश की एक ऐसी कट्टरपंथी यहूदी पार्टी को अपने गठबंधन में शामिल कर लिया जिसके नेता माइकल बेन-अरी पर अमेरिका तक ने अपने यहां आने पर प्रतिबंध लगा रखा है. ‘ज्यूइश पावर’ नाम की इस पार्टी के नेताओं पर फिलस्तीनियों के खिलाफ हिंसा भड़काने के कई मामले दर्ज हैं. अमेरिका और पश्चिमी देशों में नेतन्याहू के इस फैसले की काफी आलोचना भी हुई है.

बेंजामिन नेतन्याहू ने चुनाव में फायदे के लिए अपने कूटनीतिक संबंधों का भी भरपूर इस्तेमाल किया है. बीते मार्च में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इजरायली प्रधानमंत्री की मांग को मानते हुए ‘गोलान हाइट्स’ क्षेत्र को इजरायल के इलाक़े के रूप में मान्यता दे दी. हालिया सर्वेक्षणों की मानें तो नेतन्याहू को अमेरिका के इस फैसले का चुनाव में बड़ा फायदा मिलेगा. इजरायल ने साल 1967 में युद्ध के दौरान सीरिया से गोलान क्षेत्र को छीन लिया था और साल 1981 में आधिकारिक तौर पर इस क्षेत्र पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था. लेकिन, अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इजरायल के इस कब्जे को अभी तक मान्यता नहीं दी है.

गोलान हाइट्स पर इजरायली कब्जे को मान्यता देने के बाद डोनाल्ड ट्रंप और बेंजामिन नेतन्याहू इससे जुड़े आदेश को दिखाते हुए | फोटो : एएफपी
गोलान हाइट्स पर इजरायली कब्जे को मान्यता देने के बाद डोनाल्ड ट्रंप और बेंजामिन नेतन्याहू इससे जुड़े आदेश को दिखाते हुए | फोटो : एएफपी

इसी हफ्ते इजरायली प्रधानमंत्री ने अपने एक और कूटनीतिक फैसले से सभी को हैरान कर दिया. उन्होंने चुनाव से पांच दिन पहले अचानक रूस जाने की घोषणा कर दी. इस यात्रा का मकसद भी चुनाव में फायदा लेना ही था. इस यात्रा के दौरान मास्को में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने घोषणा की कि सीरिया में रूसी सैनिकों ने 36 साल पहले युद्ध के दौरान मारे गए एक चर्चित इजरायली सैनिक ज़ाचरी बॉमेल के अवशेष खोजने में सफलता पाई है. इस दौरान इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने मीडिया को बताया कि उन्होंने दो साल पहले ज़ाचरी बॉमेल के अवशेष खोजने के लिए पुतिन से मदद मांगी थी.

बीते शनिवार को इजरायल में ज़ाचरी बॉमेल का अंतिम संस्कार किया गया, इस दौरान बेंजामिन नेतन्याहू भी मौजूद रहे और इसका वहां के राष्ट्रीय चैनल पर सीधा प्रसारण किया गया. जाहिर है कि चुनाव से कुछ रोज पहले इस मुद्दे को अचानक उठाकर बेंजामिन नेतन्याहू ने राष्ट्रवाद का पूरा फायदा उठाने की कोशिश की है.

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