गोविंद पंत राजू
समाजवादी पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष अखिलेश यादव इन दिनों पशोपेश में हैं. इस पशोपेश की वजह हैं उनके पिता और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव. जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी तो प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए अखिलेश यादव ने यादव परिवार में चल रहे सत्ता संघर्ष में मुलायम सिंह को पार्टी के अध्यक्ष पद से उखाड़ फेंकने में जरा भी संकोच नहीं दिखाया था. मगर अब मुलायम उनकी मजबूरी बन चुके हैं. अखिलेश अपनी मर्जी से राजनीति करना चाहते हैं, मगर मुलायम का राजनीतिक कद उनके आकार से इतना बड़ा है कि बार-बार अखिलेश को उलझन में डाल देता है.
एक जनवरी 2017 को लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में आनन-फानन में बुलाए गए सम्मेलन में शोरगुल के बीच नाटकीय अंदाज में मुलायम सिंह यादव को समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटा कर अखिलेश यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया था. अखिलेश ने उस समय अपने पिता और राजनीतिक गुरू को पदच्युत करने में जरा भी हिचक नहीं दिखाई थी. आहत मुलायम सिंह यादव ने अगले ही दिन एक जनवरी के सम्मेलन को असंवैधानिक घोषित कर दिया था. इसके बाद पार्टी पर अधिकार के दावे के लिए वे चुनाव आयोग भी पहुंचे. लेकिन अन्ततः पुत्र मोह उन पर भारी पड़ा और उन्होंने अपना दावा वापस लेकर अखिलेश के कब्जे को अपनी स्वीकृति दे दी.
इस दौरान मुलायम के अखिलेश से रिश्ते ‘कभी हां कभी ना’ की तरह रहे. कभी ऐसा लगता कि वे अखिलेश के साथ हैं तो कभी वे एकदम शिवपाल के साथ दिखाई देते. समाजवादी पार्टी और लोहिया ट्रस्ट के दफ्तरों पर कब्जे को लेकर भी काफी समय तक संशय बना रहा. मुलायम शिवपाल के साथ सार्वजनिक मंचों पर दिखाई देते. उधर, अखिलेश उनके साथ न दिखने की पूरी कोशिश करते. लोहिया जयंती जैसे कार्यक्रमों से भी अखिलेश या तो पिता के आने से पहले ही निकल जाते या उनके जाने के बाद पहुंचते.
2017 में हुए विधानसभा चुनावों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति बनी रही. इन चुनावों में मुलायम सिंह यादव ने अपने दूसरे पुत्र और अखिलेश यादव के सौतेले भाई प्रतीक यादव की पत्नी और भाई शिवपाल यादव के अलावा एक दो अन्य उम्मीदवारों के लिए ही चुनावी सभाओं में हिस्सेदारी की. सत्ताधारी दल होने के बावजूद कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ने और सौ से अधिक सीटें कांग्रेस को दे देने के अखिलेश यादव के फैसले से भी वे असहमत दिखे. बार बार शिवपाल यादव के पक्ष में उनके बयान भी आते रहे.
मुख्यमंत्री रहते हुए लगभग साढ़े चार साल अपने पिता के पूर्व मुख्यमंत्री वाले आवास में रहने के बाद अखिलेश यादव अपने लिए खास तौर पर बनवाए गए करोड़ों रु के सरकारी आलीशान महल में रहने के लिए चले गए थे. तभी यह साफ हो गया था कि दूरियां राजनीतिक रिश्तों में ही नहीं पारिवारिक रिश्तों में भी आ गई हैं. इसके बाद सैफई में होली के मौके पर होने वाले सालाना जमावड़े में भी पिता-पुत्र के एक साथ मौजूद न होने से भी इस धारणा की पुष्टि हुई. संसद में भी मुलायम बाकी समाजवादी सांसदों से अलग अलग ही दिखाई देते रहे. शिवपाल यादव द्वारा अलग मंच बनाने और बाद में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बना लिए जाने के दौरान भी मुलायम यदा-कदा शिवपाल के समर्थन में बयानबाजी करते दिखाई देते रहे और शिवपाल को आशीर्वाद भी देते रहे.
मगर इस सब के बावजूद अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह को समाजवादी पार्टी के कोटे से मैनपुरी से चुनाव लड़ने को राजी कर ही लिया. हालांकि चुग्गा तो शिवपाल यादव ने भी फेंका था लेकिन मुलायम पर पुत्र मोह ही भारी पड़ा. मैनपुरी में नामांकन से पहले शिवपाल यादव ने मुलायम के पास पहुंच कर उन्हे शुभकामनाएं दीं और अपनी ओर से रिश्तों की डोर को बनाये रखने का दांव भी खेला. लेकिन मुलायम ने मीडिया से बातचीत में चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी का बहुमत होगा, कह कर अखिलेश यादव को फिर पशोपेश में डाल दिया. समाजवादी पार्टी के नेताजी का आशीर्वाद पार्टी के साथ है और उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, कह कर उन्होंने मामले में लीपापोती करने की कोशिश की.
मगर मुलायम सिंह यादव जिस तरह अटपटे सवालों से बचते रहे उससे तो यही लगता है कि वे अखिलेश और मायावती का गठबंधन अभी भी पचा नहीं पा रहे हैं. मुलायम मीडिया से बातचीत में बसपा का नाम लेने से बचते रहे और प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती की संभावनाओं को भी बहुत सावधानी से टाल गए. यहां तक कि 19 अप्रैल को मैनपुरी में प्रस्तावित मायावती की रैली पर भी उन्होंने गोलमोल ही जवाब दिया. मुलायम की असहजता अखिलेश यादव को परेशान करती रही. नामांकन के दौरान इसीलिए उन्हें अखिलेश और परिवार के अन्य सदस्य घेरे रहे. यहां तक कि मुलायम को मैनपुरी के समाजवादी पार्टी के दफ्तर में आयोजित चुनावी सभा में भी नहीं ले जाया गया. ऐसा पहली बार हुआ कि नामांकन के बाद मुलायम ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित नहीं किया जबकि कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ वहां उनका इंतजार कर रही थी.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अखिलेश यादव ने ऐसा जानबूझ कर किया क्योंकि उन्हें डर था कि कार्यकर्ताओं के बीच मुलायम कुछ ऐसा न कह दें जो गठबंधन में गांठ पैदा कर दे और मायावती नाराज हो जाएं. शायद यही ‘डर’ था कि समाजवादी पार्टी के स्टार प्रचारकों की पहली सूची में मुलायम का नाम नदारद था. बाद में उनका नाम पहले नंबर पर आ तो गया मगर यह तय माना जा रहा है कि इक्का दुक्का चुनिंदा सीटों को छोड़ कर मुलायम को चुनावी सभाओं में ले जाया ही नहीं जाएगा.
अखिलेश यादव की मजबूरी थी कि उन्हें पिछले 20 वर्षों से समाजवादी पार्टी के कब्जे में रही मैनपुरी सीट पर जीत पक्की करने के लिए मुलायम सिंह यादव को चुनावी मैदान में उतारना ही पड़ा. लेकिन मुलायम के भीतर का खांटी राजनेता अभी इतना मजबूर नहीं हुआ है कि अपनी पसंद-नापसंद को जाहिर न कर पाए. यही बात है जो अखिलेश के लिए पशोपेश की वजह बनी हुई है. उनके लिए मुलायम ऐसी समस्या बन गए हैं कि न उगलते बने और न निगलते.