राजेश श्रीवास्तव
कॉलम पढ़ने के पहले आपको बीते पांच साल पहले जाना होगा। जब मनमोहन सरकार के अंतिम चरण में नरेंद्र मोदी व भाजपा के दिग्गजों ने कसाब, धर्म, श्मशान, कब्रिस्तान आदि की खूब चर्चा अपने भाषणों में की थी और जनता ने उनका यह समझकर बाहें फैलाकर स्वागत किया था कि अभी उनके पास बताने के लिए कुछ नहीं हैं इसीलिए वह ऐसी बातें कर रहे हैं। अगर भाजपा को एक बार सरकार बनाने को मिल जाये तो शायद देश की तस्वीर बदल जायेगी, अच्छे दिन आ जायेंगे। हिंदू समुदाय का वर्चस्व हो जायेगा। मुस्लिम थर-थर कांपेगा। अयोध्या में राम मंदिर बन जायेगा। काला धन अपने देश में वापस आ जायेगा। देश में कोई भ्रष्टाचार नहीं रहेगा। रिश्वतखोरी समाप्त होगी। माफियाराज खत्म होगा। बहू-बेटियां खुले आम सड़कों पर चल सकेंगी। एक तरह से राम राज आ जायेगा। आरक्षण खत्म हो जायेगा। 37० खत्म हो जायेगी। आदि-आदि। लेकिन अब जब पांच साल खत्म हो गये हैं तब देश में यह सब कुछ भी नहीं हुआ। हुआ तो नोटबंदी, जीएसटी, जैसी सरकार की उपलब्धि वाली योजनाएं। जैसा सरकार दावा कर रही है कि नोटबंदी देश की बड़ी उपलब्धि है। जीएसटी से तस्वीर बदल गयी। जीडीपी कहां से कहां पहुंच गयी। पड़ोसी देशों से संबंध अच्छे हो गये। पाकिस्तान दहशत में है। सर्जिकल स्ट्राइक करके आतंकियों का सफाया कर दिया गया। महिलाओं को उज्जवला के तहत रसोईã गैस मिली। सबके बैंक खाते खुलवाये गये। शौचालय बनवाये गये। सड़कें गड्ढामुक्त हो गयीं। अपराध मुक्त देश हो गया। आदि-आदि।
अगर सरकार पांच साल तक इन योजनाओं पर इतराती रही और देश की जनता भी खुशी से झूम रही है। आम आदमी खुश है तो भाजपा नेता और खुद प्रधानमंत्री अपने चुनावी भाषणों में क्यों नहीं इन उपलब्धियों का जिक्र करते हैं। क्यों नहीं विकास को मुद्दा बनाते हैं। क्यों नहीं योजनाओं का बखान कर चुनाव को देश हित में बताते हैं। क्यों नहीं जनता को बताते कि उन्होंने पांच साल में देश को क्या-क्या उपलब्धियां दीं। क्यों नहीं बताते कि भाजपा को दोबारा विकास के लिए चुनना जरूरी है। क्यों अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले चुनाव की तरह गठबंधन को सराब करार दे रहे हैं। धर्म के नाम पर धु्रवीकरण कर रहे हैं। क्यों कह रहे हैं कि पांच साल उन्हें कांग्रेस ने काम नहीं करने दिया। क्या 44 सांसदों वाली पार्टी का इतना दम-खम हो गया कि वह भारी-भरकम भारतीय जनता पार्टी के काम में रोडा अटका सके। प्रधानमंत्री के पास पांच साल की उपलब्धियां हैं बताने के लिए ताकि देश की जनता को भी लगे कि पांच सालों में हमारे प्रधानमंत्री ने क्या-क्या काम किया है। पांच साल में उसके जीवन स्तर में कितना बदलाव हुआ है। पांच साल पहले वह कहां था और आज कहां हैं। भाजपा नेता क्यों नहीं समझते कि बार-बार काठ रूपी सांप्रदायिक हांडी नहीं चढ़ती। बार-बार जनता कसाब और शराब में फंसने वाली नहीं है। जनता को विकास चाहिए।
अकेले भाजपा ही क्यों सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि अपने-अपने कार्यकाल की उपलब्घियां बतायें और जो सरकार में नहीं रहे वह बतायें कि आखिर वह जीते तो जनता के हाथ क्या लगेगा। चुनाव आते ही जनता भ्रमित हो जाती है कि आखिर मुद्दों पर चुनाव क्यों नहीं लड़ते राजनीतिक दल। क्यों चुनाव से मुद्दे गायब हो जाते हैं। राजनीतिक दल भले ही इन मुद्दों को उठाकर चुनाव जीत जायें लेकिन देखा जाये तो हारती केवल जनता है। सांप्रदायिकता, मतों का धु्रवीकरण, जाति-मजहब की राजनीति, कसाब-सराब में जनता के असल मुद्दे खो जाते हैं और जनता के हाथ कुछ नहीं लगता। वास्तव में तो कभी-कभी यह कोरी बयानबाजी इतनी हावी हो जाती है कि जनता भी भ्रमित हो जाती है और अपनी असल समस्या को भूलकर आपाधापी की दौड़ में लग जाती है तो कभी इस बयानबाजी को ही अपनी विवशता मान लेती है। पर देखा जाये तो यह सियासत भारतीय लोकतंत्र के लिए कतई मुफीद नहीं है कि चुनावों में भी जनता के मुद्दों की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाये। जनता तो पांच साल इंतजार करती है कि कोई राजनीतिक दल आयेगा जो उसकी बात करेगा। पर जब मुद्दों पर बात करनी होती है तो सियासी दल बयानबाजी, जुमलेबाजी और लफ्फाजी पर उतर आते हैं और चुनाव जीतने के बाद तो उनकी जवाबदेही बनती नहीं है। उन्हें भी पता है कि चुनाव जीतने के बाद उन्हें किसी को जवाब नहीं देना है और जब जवाब देने का वक्त आयेगा तो वह जनता को उलझा लेंगे, यह भी वह भली-भांति समझते हैं। शायद यह भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी विवशता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में भी चुनाव के वक्त भी ठोस बातों के बजाय कोरी लफ्फाजी ही होती है।