नई दिल्ली। लोकसभा का समर सामने है. प्रत्याशियों की घोषणाएं शुरू हो गई हैं. पूरे देश के लिए रणनीति और जोड़तोड़ शुरू हो गई है. लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी सबसे ज्यादा सुर्खियां यूपी बटोर रहा है. इसलिए नहीं कि यहां बीजेपी को सपा-बसपा के गठबंधन से कड़ी चुनौती मिल रही है. न ही इसलिए कि यूपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वाटरलू साबित हो सकता है. बल्कि यहां पार्टियों में यह होड़ मची है कि खुद को बीजेपी का सबसे प्रमुख विरोधी साबित करें, भले ही ऐसा करने में आपस में तू-तू, मैं-मैं होने लगे.
एक हफ्ते में कांग्रेस, सपा और बसपा के बड़े नेताओं के बयानों और रणनीतियों पर नजर डालें तो दिलचस्प तस्वीर उभरती है. कांग्रेस पार्टी यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि वह अपने दम पर चुनाव लड़ जरूर रही है, लेकिन उसकी सद्भावना सपा-बसपा-आरएलडी के गठबंधन के साथ है. इसलिए पार्टी ने स्पष्ट किया कि वह उन सात सीटों पर चुनाव नहीं लड़ेगी, जहां से गठबंधन के बड़े नेता चुनाव लड़ेंगे.
दूसरी तरफ सपा-बसपा का गठबंधन है, जिसने हमेशा की तरह इस बार भी राहुल गांधी की सीट अमेठी और सोनिया गांधी सीट रायबरेली से प्रत्याशी खड़े नहीं किए हैं. इससे पहले जब सपा और बसपा अलग-अलग चुनाव लड़ती थीं, तब भी दोनों पार्टियां इन दोनों नेताओं के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारती थीं.
कांग्रेस को इन दो सीटों पर वाकओवर देने के बारे में सपा और बसपा के सुर अलग हैं. अखिलेश यादव ने एक बयान में यहां तक कहा कि कांग्रेस गठबंधन में कैसे नहीं है, हमने कांग्रेस के लिए दो सीटें छोड़ी हैं. दरअसल विधानसभा चुनाव 2017 में कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ चुके अखिलेश यादव को अब तक ‘यूपी को यह साथ पसंद है’ वाला नारा भूला नहीं है. इसीलिए वे एक तरफ गुलदस्ता लेकर मायावती से मिल आते हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस की तरफ भी मुस्कान बिखेरते हैं. अखिलेश की रणनीति दिखाती है कि उन्हें कांग्रेस से कोई परहेज नहीं है.
लेकिन मायावती की स्थिति इससे अलग है. वे जितना हमला भारतीय जनता पार्टी पर नहीं कर रही हैं, उससे ज्यादा हमला कांग्रेस पर करती नजर आ रही हैं. शुरू में तो लगा कि कांग्रेस पर हमला सधा हुआ राजनैतिक अभिनय हो सकता है, लेकिन अब लग रहा है कि इसमें कुछ वजूद है. क्योंकि जिस तरह से गठबंधन के लिए सात सीटें छोड़ने पर मायावती ने कहा कि कांग्रेस चाहे तो 80 सीटों पर चुनाव लड़ ले. मायावती ने जोर देकर कहा कि कांग्रेस गठबंधन के करीब होने का भ्रम न फैलाए.
तो सवाल यह है कि अखिलेश यादव को जब कांग्रेस के मामले में संयम से पेश आ रहे हैं तो मायावती क्यों इतनी ज्यादा मुखर हो रही हैं. क्योंकि अगर कांग्रेस की रणनीति देखें तो कांग्रेस ने मुख्य रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश पर फोकस किया है. प्रियंका गांधी को इसी इलाके के लिए महासचिव बनाया गया है. उनकी चुनावी नौका यात्रा भी इसी इलाके में हो रही है. और यह भी दिलचस्प बात है कि गबठबंधन में इस इलाके की बहुत सी सीटें सपा के पास हैं.
वहीं बसपा के पास मुख्य रूप से पश्चिम यूपी की सीटें हैं. तो मायावती के कांग्रेस के साये से बचने की वजह पश्चिमी यूपी में छिपी है. शायद हां. पश्चिमी यूपी में मुसलमान वोटर निर्णायक होता है. यहां की कम से कम 20 सीटें स्पष्ट तौर पर मुस्लिम वोटों से तय होती हैं. अगर कांग्रेस चुनाव मैदान में खुलकर उतरती है तो मुस्लिम वोटों का रुझान कांग्रेस की तरफ भी हो सकता है. अगर इस वोट का ठीकठाक हिस्सा कांग्रेस के पास गया तो बसपा के लिए बड़ी मुसीबत हो जाएगी.
मायावती को यह डर अखिलेश की तुलना में इसलिए भी ज्यादा सता रहा है कि बसपा अतीत में बीजेपी के साथ सरकार बना चुकी है. बीजेपी के खिलाफ राजनीति में बसपा का खूंटा सपा की तुलना में कमजोर माना जाता है. वैसे भी लोकसभा का चुनाव प्रधानमंत्री के लिए होता है मुख्यमंत्री के लिए नहीं. ऐसे में मोदी के सामने अगर कोई आदमी पीएम पद का दावेदार है तो कम से कम मायावती तो नहीं ही हैं. अतीत में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस इन समीकरणों का लाभ उठाकर मुस्लिम वोट अपनी तरफ खींचती रही है. अगर कांग्रेस ने इस बार भी ऐसा कर लिया तो बसपा को बहुत बड़ा घाटा हो जाएगा.
शायद यही वह कुछ वजहें हैं जिससे मायावती अभी से यह स्पष्ट करने में जुट गई हैं कि कांग्रेस से उनका कोई वास्ता नहीं है. वह जनता को संदेश देना चाहती हैं कि कांग्रेस पार्टी कमजोर और अलग-थलग है, ऐसे में यूपी का वोटर उसे किसी तरह के राजनैतिक विकल्प के तौर पर न देखे. वही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को असली टक्कर देंगी, इसलिए मुसलमानों को अगर किसी को वोट देना है तो वह सिर्फ सपा बसपा आरएलडी का गठबंधन ही है.
लेकिन मायावती की इस रणनीति में एक बार फिर वही पुराना पेंच फंसेगा. कहीं कांग्रेस पर ज्यादा हमला करने के चक्कर में कांग्रेस बीएसपी को बीजेपी की बी टीम साबित करने का प्रचार न करने लगे. अगर कांग्रेस ऐसा करती है तो मायावती को यह दांव उलटा भी पड़ सकता है. वैसे इस सारे दांव-पेंच से शुद्ध मुनाफा बीजेपी को ही होना है.