रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में एक नया मोड़ आ गया है. मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में नई याचिका डालकर एक गुजारिश की है. गुजारिश ये कि अयोध्या में विवादित जमीन के अलावा बाकी बची जमीन को श्री राम जन्म भूमि न्यास ट्रस्ट को सौंप दिया जाए. गैर विवादित जमीन पर सुप्रीम कोर्ट अपना स्टे भी खत्म करे. सरकार ने अयोध्या में विवादित स्थल के आस-पास 67 एकड़ जमीन एक्वायर की है. सुप्रीम कोर्ट ने इस जमीन पर स्टे लगा रखा है. मतलब ये कि सुप्रीम कोर्ट से पूछे बिना इस जमीन पर किसी तरह की गतिविधियां नहीं हो सकती हैं. मोदी सरकार के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ 2.77 एकड़ जमीन का मुकदमा चल रहा है. इसमें भी विवाद सिर्फ 0.313 एकड़ जमीन को लेकर है. ऐसे में बाकी जमीन रामजन्म भूमि न्यास को सौंपी जा सकती है. क्या है अयोध्या का जमीन विवाद? क्या ये सिर्फ इतना ही है, जितना मोदी सरकार बता रही है? या फिर कुछ और?
अयोध्या के इस पूरे विवाद की शुरुआत आजादी के तीन साल बाद ही 1950 में ही हो गई थी. साल 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अयोध्या मसले पर याचिका दायर की. याचिका में उन्होंने विवादित स्थल पर हिंदू रीति-रिवाज से पूजा-पाठ की इजाजत देने की मांग की. इसके बाद 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने विवादित भूमि पर नियंत्रण की मांग शुरू कर दी. निर्मोही अखाड़ा की तर्ज पर मुस्लिम सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने भी विवादित भूमि पर कोर्ट में अपना दावा ठोक दिया. इस तरह रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद की जमीन पर मालिकाना हक का विवाद शुरू हो गया.
अयोध्या के लिए अहम तारीख है, 6 दिसंबर, 1992. अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी जाती है. तब की केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार पर हिंदू और मुसलमान दोनों पक्ष तरह-तरह के इल्जाम लगाते हैं. आरोपों से घिरी नरसिम्हा राव सरकार जनवरी, 1993 में संसद में एक कानून बनाती है. सरकार संसद में अयोध्या भूमि अधिग्रहण बिल पारित कराती है. तब के राष्ट्पति शंकरदयाल शर्मा के दस्तखत के बाद ये एक्ट लागू हो जाता है. इस कानून के जरिए नरसिम्हा राव सरकार अयोध्या में 2,77 एकड़ विवादित जमीन के साथ उसके आस-पास की करीब 67 एकड़ जमीन एक्वायर कर लेती है. नरसिम्हा राव सरकार कानून के रास्ते अयोध्या में राम मंदिर, एक मस्जिद, लाइब्रेरी और एक म्यूजियम बनाने की बात करती है. नरसिम्हा राव सरकार इस कानून के जरिए पहले के सारे सिविल मुकदमे खत्म कर देती है. वही मुकदमे जिनका जिक्र पहले किया गया है. यानी गोपाल सिंह विशारद, निर्मोही अखाड़ा और मुस्लिम सेंट्रल वक्ल बोर्ड के केस. मगर उस वक्त हिंदू और मुस्लिम पक्ष के साथ-साथ आज की सत्ताधारी दल बीजेपी भी इस कानून का विरोध करती है.
इस केस से जुड़े हिंदू और मुस्लिम पक्षकारों का कहना था कि संसद में कानून बनाकर पूर्व के मुकदमे खत्म नहीं किए जा सकते हैं. नतीजा ये हुआ सुप्रीम कोर्ट में नरसिम्हा राव सरकार के इस कानून का रिव्यू हुआ. साल 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने इस्माइल फारुखी जजमेंट में ज़मीन पर दावेदारी वाले सिविल केस को बहाल कर दिया. साथ ही सुप्रीम कोर्ट विवादित 2.77 एकड़ जमीन समेत अधिग्रहीत 67 एकड़ जमीन पर स्टे लगा देता है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जब तक विवादित जमीन के मालिकाना हक यानी टाइटल सूट का निपटारा किसी कोर्ट में नहीं हो जाता, तब तक इस कानून को लागू नहीं किया जा सकता है. केंद्र सरकार इस जमीन की सिर्फ कस्टोडियन रहेगी यानी सिर्फ देख-रेख करेगी. और जिसके हक में अदालत का फैसला आएगा, जमीन उसी पक्ष को सौंप दी जाएगी.
इस केस में साल 2010 एक खास पड़ाव है. सितंबर, 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट लखनऊ खंडपीठ ने टाइटल सूट पर फैसला सुनाया. जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एसयू खान और जस्टिस डीवी शर्मा की बेंच ने 2.77 एकड़ विवादित जमीन को 3 हिस्सों में बांट दिया. जिस जमीन पर रामलला विराजमान हैं उसे हिंदू महासभा को, दूसरे हिस्से को निर्मोही अखाड़े को और तीसरे हिस्से को सुन्नी वक्फ बोर्ड को देने का फैसला दिया. इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग अपील दाखिल की गईं. इस पर 9 मई, 2011 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी. यही मामला बीते 8 साल से सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. आज यानी 29 जनवरी को भी सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर मामले की सुनवाई थी. मगर ये टल गई. सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई पांच जजों की संवैधानिक पीठ कर रही है. बेंच में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस अब्दुल नजीर, जस्टिस एसए बोबडे और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ शामिल हैं.
मोदी सरकार ने आज यानी 29 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में एक नई याचिका दाखिल की है. इसके मुताबिक अयोध्या में हिंदू पक्षकारों को जो हिस्सा दिया गया है, वो रामजन्मभूमि न्यास को दे दिया जाए. विवादित 2.77 एकड़ जमीन में से कुछ हिस्सा भारत सरकार को लौटा दिया जाए. अयोध्या में रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद के विवादित स्थल के आस-पास की करीब 67 एकड़ जमीन केंद्र सरकार के पास है. इसमें से 2.77 एकड़ जमीन पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया है. इस जमीन में भी सिर्फ 0.313 एकड़ के टुकड़े पर ही विवाद है. ऐसे में इस जमीन को छोड़कर बाकी जमीन भारत सरकार को सौंप दी जाए. सुप्रीम कोर्ट अपना स्टे आदेश भी वापस ले.
इसमें अड़चन क्या है?
इसकी अड़चनें समझने के लिए एक बार सुप्रीम कोर्ट के 1994 के उस फैसले की ओर देखना होगा. सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि एक्वायर की गई जमीन पर केंद्र सरकार का पूरा और असीमित अधिकार है. मगर संविधान में देश धर्मनिरपेक्ष राज्य है. इसलिए मालिकाना हक का फैसला हो जाने के बाद भी सरकार खुद कोई धर्मस्थल नहीं बना सकती. अयोध्या एक्ट की धारा 6(1) में कहा गया है कि सरकार इस जमीन पर अपने अधिकार किसी निकाय या न्यास को सौंप सकती है. बशर्ते उसका गठन अधिग्रहण कानून पारित होने के दिन यानी तीन अप्रैल, 1993 के बाद किया गया हो. एक शर्त और भी है. वो ये कि अधिग्रहीत जमीन पर कानूनन वही निर्माण हो सकते हैं, जिनके लिए जमीन एक्वायर की गई है. और इसमें मस्जिद का निर्माण भी शामिल है. मुस्लिम पक्ष के वकील जफरयाब जिलानी के मुताबिक पहले अदालत मालिकाना हक तय करे. तब तक जमीन को केंद्र सरकार कस्टोडियन की तरह अपने पास रखे. कोर्ट का फैसला जिसके भी पक्ष में आए, सरकार उसे जमीन सुपुर्द करे.