SC के जस्टिस जोसेफ के नाम खुला खत: ब्राह्मणों के नरसंहार की बात पर मुस्कुराना बंद कर देंगे… इसी उम्मीद में

डियर जस्टिस जोसेफ,

मुझे उम्मीद है कि आपको इस खुले पत्र को पढ़ने का समय मिल गया होगा, क्योंकि अब काफी समय बीत चुका है। मुझे उम्मीद है कि आप ब्राह्मणों के नरसंहार के आह्वान के अपने आनंद से उबर चुके होंगे। सामान्य रूप से हिंदुओं का न्यायपालिका में हमेशा अटूट विश्वास रहा है। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता का प्रमाण नहीं है, बल्कि यह ‘न्याय’ के विचार का परिणाम है, जिसमें हिंदू विश्वास करते हैं।

आमतौर पर हिंदू जब भी न्याय के बारे में सोचते हैं (अंग्रेजी का जस्टिस शब्द शायद ही न्याय की अवधारणा के लिए ‘न्याय’ करता है) तो वे श्रीकृष्ण और महान योद्धा अर्जुन की छवियों के साथ श्रीमदभगवद गीता की सोच से प्रेरित होते हैं। न्यायपालिका और न्यायाधीशों के लिए सम्मान अनिवार्य रूप से न्याय प्रदान करने और एक व्यवस्थित, सुसंस्कृत, न्यायपूर्ण, धार्मिक समाज में संतुलन बहाल करने की कल्पना से उपजा है।

हिंदुओं में न्यायपालिका के प्रति सम्मान उसकी धार्मिक शिक्षाओं से उपजा है, न कि न्यायालय के कार्यों से। दिल्ली दंगों को कवर करते हुए मैंने लंबे समय तक न्याय की अवधारणा पर विचार किया है। न्याय क्या है? ऐसा कहा जाता है कि न्याय प्रदान नहीं किया जा सकता है, लेकिन ऐसा प्रतीत होना चाहिए कि इसमें शामिल पक्षों को मिल गया। इसका अर्थ है कि सभी पक्षों को यह महसूस होना चाहिए कि जब न्याय हुआ तो उन्हें वो मिल गया, जिसके वो अधिकारी थे।

इस तरह, मुस्लिम पक्ष कभी विश्वास नहीं करेगा कि उसे न्याय मिला है, जब तक कि अदालतें स्पष्ट रूप से झूठ बोलते हुए यह नहीं कहतीं कि इस्लामवादियों द्वारा महीनों तक किया गया दंगा वास्तव में मुस्लिमों के खिलाफ हिंदुओं द्वारा की गई हिंसा थी। इस हिंसा के पीड़ितों को न्याय कभी मिला ही नहीं। अपराधियों को सजा मिलने के बाद भी।

एक हिंदू दुकान मालिक, जिसकी दुकान जला दी गई थी, गवाही देने से इंकार कर देगा, क्योंकि उसे डर है कि अगर उसने ऐसा किया तो मुस्लिम भीड़ एवं उसके पड़ोसी उससे प्रतिशोध लेने आ जाएँगे। संतुलन बहाल करने में असमर्थ होने और उसके अधिकारों के लिए बोलने वाला कोई नहीं होने के कारण वह हमेशा अन्याय की आग में जलता रहेगा।

दिलबर नेगी की माँ को उनके बेटे के बिना हमेशा के लिए छोड़ दिया जाएगा। उनके हत्यारों को न्यायपालिका द्वारा अनुचित रियायतें दी जा रही हैं, क्योंकि मुस्लिम पक्ष का न्याय का विचार बहुत अलग है। भले ही दिलबर नेगी और अंकित शर्मा के हत्यारों को दंडित किया जाता है, लेकिन जिन लोगों ने 3 महीने से अधिक समय तक हिंसा भड़काकर हिंदुओं की जानें लीं, वे सजा से बचे रह जाएँगे।

न्याय की अवधारणा क्या है, इस पर मैं आपको उपदेश नहीं दे रही हूँ। न्याय की अवधारणा कहती है कि न्याय करने वाला निष्पक्ष होना चाहिए। वह सही और गलत के बीच की रेखा खींचने में सच्चा हो और उस रेखा को खींचने के बाद जो गलत है, उसको दंड देने का साहस भी रखता हो। जो लोग ‘न्याय’ देने वाले प्राधिकरण में बैठते हैं, उन्हें कम से कम ईमानदार एवं निष्पक्ष मूल्यांकन शुरू करना चाहिए।

जस्टिस जोसेफ, मैं विनम्रतापूर्वक आपसे पूछना चाहती हूँ कि क्या आपने अपने पूर्वाग्रहपूर्ण बयान को लेकर खुद से सवाल किया है। मैं यह कहने की हिम्मत कर सकती हूँ कि आपने कहा वह कम-से-कम इतना संकेत दे दिया कि आखिरकार आपका निर्णय क्या होगा। हिंदू समाज के वकील को जिस उपहास और अपमान का सामना करना पड़ा, वह न्यायपालिका के सामान्य नैतिक ताने-बाने और उन सिद्धांतों के खिलाफ है, जिनका समर्थन करने का न्यायाधीश दावा करते हैं।

जब वकील ने कहा कि उसकी दलील हिंदुओं के व्यापक हित में है तो वह तुरंत आपके गुस्से का शिकार हो गया। आपने कहा, “तो अब आप हमारे सामने हैं और आप रैलियाँ कर रहे हैं। क्या आपको कानून तोड़ने का अधिकार है? क्या आप देश के कानून को तोड़ सकते हैं?” यहाँ आपने पूछा है कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों का क्या होगा, जैसा कि हमारे पूर्वजों ने कल्पना की थी कि सहिष्णुता हमारी विरासत है और मुस्लिमों ने विभाजन के बाद रहने के लिए इस देश को चुना और उनकी गरिमा को बरकरार रखा जाना चाहिए। आपने यह भी कहा है कि वे हमारे भाई-बहन हैं और यदि कोई कानून तोड़ता है तो कानून उस पर टनों ईंटों की तरह गिरेगा।

मुझे विश्वास है कि अगर महात्मा गाँधी जीवित होते तो वे आपको जस्टिस जोसेफ अपना योग्य उत्तराधिकारी चुन लेते। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने जो कहा उससे मैं असहमत नहीं हूँ। सभी को रैली करने का अधिकार है, लेकिन उस रैली में क्या होता है यह विवाद का विषय है और इसी न्यायपालिका ने उस सिद्धांत को क्यों खारिज किया, इस पर हम इस लेख में आगे चर्चा करेंगे।

जस्टिस जोसेफ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत एक प्राचीन सभ्यता है। शायद आज हम जो धार्मिक संघर्ष देखते हैं, वह इसलिए है क्योंकि हमने देवताओं द्वारा स्थापित और पोषित सभ्यता को “संस्थापक पूर्वजों” में नहीं बदला है। आपने यह भी कहा था कि सहिष्णुता किसी पर दबाव डालना है, बल्कि मतभेदों को स्वीकार करना है। यह बयानबाजी में अच्छा लगता है, लेकिन सहनशीलता की वास्तविक परिभाषा ‘दर्द या कठिनाई सहने की क्षमता’ है।

यहाँ मैं आपसे सहमत हूँ। जब से हम एक राष्ट्र बने हैं, हिंदुओं में अत्यधिक सहिष्णुता विकसित हुई है। हमने नोआखाली नरसंहार को सहन किया। हमने डायरेक्ट एक्शन डे को बर्दाश्त किया। हमने हिंदुओं के मालाबार नरसंहार को सहन किया। हमें कहा जा रहा था कि हमें अपने चेहरों पर मुस्कान के साथ मरना चाहिए। हमने अपने स्वयं के नरसंहार के लिए जिम्मेदार ठहराए जाने को सहन किया। हम आज तक सहते हैं।

कल ही हमने रिपोर्ट किया था कि हिंदुओं को रामनवमी जुलूस निकालने के उनके अधिकार से वंचित कर दिया गया, क्योंकि एक साल पहले जहाँगीरपुरी में पीड़ित अल्पसंख्यक हनुमान जयंती के दौरान हिंदुओं के खिलाफ उग्र हो गए थे। हमने अपने अधिकारों को छीने जाने को सहन किया, ताकि वे नाराज न हों, मी लॉर्ड। हाँ, हम सहिष्णु हैं। हमारे पास एक विरासत है, अन्याय सहन करने की विरासत। आप हमसे उस दागदार विरासत का सम्मान करने के लिए कहते हैं, जो मुझे एक हिंदू के रूप में आहत करता है।

आप कहते हैं कि मुस्लिमों ने भारत में रहने का विकल्प चुना और वे हमारे भाई-बहन हैं। हम उनकी गरिमा और स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुँचा सकते। श्रीमान जी, मैं आपसे सहमत हूँ। अगर मैं इतना गुस्ताख़ हो सकता हूँ तो मैं यह बताना चाहूँगी कि आप सहिष्णुता के बारे में नहीं, बल्कि बहुलवाद के बारे में बात कर रहे हैं। यह एक ऐसी अवधारणा है, जिसके लिए हमें यह स्वीकार करना होगा कि हर आस्था में सच्चाई होती है और इसलिए, हर आस्था का सम्मान किया जाना चाहिए। हिंदुओं ने अपना काम किया, लेकिन क्या उन लोगों ने किया जिन लोगों की आपने रक्षा की?

“इस्लाम का भाईचारा मनुष्य का सार्वभौमिक भाईचारा नहीं है। यह मुसलमानों का भाईचारा मुसलमानों के लिए ही है। एक भाईचारा है, लेकिन इसका लाभ उस दीन के भीतर तक ही सीमित है।” ये मेरे शब्द नहीं, श्रीमान। आपने जिन हमारे ‘संस्थापक पूर्वजों’ का उल्लेख किया, ये उनमें से एक डॉ बीआर अंबेडकर के शब्द हैं।

उन्होंने आगे कहा है, “यथार्थवादियों को इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि मुसलमान हिंदुओं को काफिरों के रूप में देखते हैं, जो खत्म करने के योग्य हैं। यथार्थवादी को इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि जहाँ मुसलमान यूरोपीय को अपने से ऊपर मानता है, वहीं वह हिंदुओं को अपने से नीचे देखता है।”

उन्होंने एक बात और लिखी है, “कट्टरपंथी मुस्लिमों द्वारा मारे गए प्रमुख हिंदुओं की संख्या बड़ी हो या छोटी, यह बहुत कम मायने रखती है। मायने यह रखता है कि गिनती करने वालों का इन हत्यारों के प्रति क्या रवैया है। जहाँ कानून है, वहाँ हत्यारों ने दंड भोगा। हालाँकि, प्रमुख मुस्लिमों ने कभी भी इन अपराधियों की निंदा नहीं की। इसके विपरीत, उन्हें धार्मिक शहीदों के रूप में सम्मानित किया गया और क्षमादान के लिए आंदोलन चलाया गया।”

जहाँ तक इस बात का सवाल है कि मुस्लिम यहाँ इसलिए रह गए क्योंकि वे हमारे भाई हैं, मुझे यकीन है कि आप जानते हैं कि यह पूरी तरह सच नहीं है। साक्ष्य इसके विपरीत मौजूद है। मैं आपको केवल इस लेख की ओर इंगित करूँगी और इसे उस पर छोड़ दूँगा।

जब SG तुषार मेहता ने कहा कि अभद्र भाषा पर एक मामले की सुनवाई करते समय हिंदू समुदाय के खिलाफ किए गए अभद्र भाषणों पर भी विचार करना चाहिए तो आप मुस्कुराए। आपके बयान से यह आभास हुआ कि आप और आपके साथी न्यायाधीश उन कॉलों को सही ठहरा रहे थे। मैं समझती हूँ कि SG मेहता ने इसे क्यों उठाया – आप एक समुदाय को दूसरे समुदाय से अलग-थलग करने के लिए दोषी ठहरा रहे थे। जब अभद्र भाषा का मूल्यांकन धर्म के आधार पर किया जाता है तो दोनों पक्षों को अवश्य सुना जाना चाहिए। हालाँकि, आपने हिंदुओं को उस अवसर से वंचित कर दिया।

जब न्यायमूर्ति नागरत्ना ने एसजी से पूछा कि डीएमके नेता ने ‘क्यों’ कहा कि ‘यदि आप समानता चाहते हैं तो सभी ब्राह्मणों को कत्ल कर देना चाहिए’ तो दरअसल उन्होंने यह पूछा कि ब्राह्मणों ऐसा क्या किया है कि डीएमके नेता को उनके नरसंहार के लिए कहने को मजबूर होना पड़ा। जब आपने मुस्कुराकर एसजी से पूछा कि क्या वह जानते हैं कि पेरियार कौन हैं तो आपने बताया कि पेरियार ब्राह्मणों का नरसंहार चाहते थे। इसलिए डीएमके नेता का ऐसा कहना न्यायोचित है।

इसी तर्क के आधार सर, क्या आप भारत के बँटवारे की माँग को जायज कहेंगे, क्योंकि जिन्ना भी यही चाहते थे? क्या आप अलगाववादियों के आह्वान को उचित मानेंगे? अगर कोई मुस्लिम यह कहते हुए हिंदुओं के नरसंहार का आह्वान करता है कि जिस दिन बद्र की लड़ाई लड़ी गई और उसमें अल्लाह ने जीत हासिल की तो क्या आप मुस्कुराएँगे? यदि एक इस्लामवादी कहता है कि उसे गैर-मुस्लिमों को मारने का अधिकार है तो क्या आप कुरान को यह कहने के लिए उद्धृत करेंगे कि नरसंहार करने की बात उसकी उचित है?

आप यहीं नहीं रुके, सर। आपने आगे बढ़कर एक अभियुक्त आतंकी संगठन द्वारा हिंदुओं की हत्या को उकसाने वाले बयानों का संदर्भ दिया और इसके लिए हिंदुओं को दोषी ठहराया। जब एसजी मेहता ने जोर देकर कहा कि आप हिंदुओं के नरसंहार का आह्वान करते हुए पीएफआई की रैली में दिए गए भाषण की वीडियो क्लिप देखें तो आपने मना कर दिया। आपके फायदे के लिए मैं यहाँ उस रैली के वीडियो के कंटेंट दे रही हूँ, जिसे देखने के लिए एसजी मेहता आपसे कह रहे थे।

पीएफआई के सदस्य मलयालम में चिल्लाकर कह रहा था, “यदि तुम हमारी जमीन पर चुपचाप नहीं रहोगे तो अपने मृत्यु संस्कार के लिए तैयार रहो। यदि तुम चुपचाप नहीं रहोगे (हिंदुओं के लिए) तो अपने मुँह में चावल के गुच्छे डालकर तैयार हो जाओ। यदि तुम चुपचाप नहीं रहेंगे (ईसाइयों के लिए) तो अपने घर में अगरबत्ती जलाने के लिए तैयार रहो, क्योंकि हम आ रहे हैं। हम तुम्हारी मौत हैं। हम पाकिस्तान या बांग्लादेश नहीं जाएँगे। जैसा हम कहते हैं उसके अनुसार तुम्हें यहाँ रहना होगा, वरना हम जानते हैं कि तुम्हें चुप कैसे कराना है। हम पर हमला किया जाए तो भी हम तुम्हें मार देंगे। हमें शहीद होने पर गर्व है। अगर तुम चुप नहीं रहे तो हम ‘आजादी’ माँगना जानते हैं। अपनी मौत के लिए तैयार रहो।”

इसके अलावा, भीड़ ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विवादित भवन में फिर से ‘सुजूद’ (एक प्रकार की प्रार्थना) आयोजित करने की कसम खाई। भीड़ ने वाराणसी में एक मंदिर के खंडहर पर बनी ‘ज्ञानवापी मस्जिद’ नामक विवादित ढाँचे में ‘सुजूद’ जारी रखने का फैसला किया है। भीड़ ने कहा कि वे पाकिस्तान या बांग्लादेश नहीं जा रहे हैं और अगर वे ऐसा करते हैं तो वे संघ परिवार को साथ ले जाएँगे।

वीडियो में एक लड़के को नारा लगाते हुए सुना जा सकता है, “हिंदुओं को अपने अंतिम संस्कार के लिए चावल रखना चाहिए, और ईसाई अपने अंतिम संस्कार के लिए अगरबत्ती रखना चाहिए। अगर तुम शांति से रहते हैं तो हमारी जमीन में रह सकते हो और यदि ठीक से नहीं रहते तो हम आज़ादी (स्वतंत्रता) को जानते हैं।” शालीनता से, शालीनता से, शालीनता से जिएं। रैली में शामिल लोग नारा दोहरा रहे थे।

जस्टिस जोसेफ, इस भाषण के लिए आपने कहा कि अभद्र भाषा एक दुष्चक्र है और हर क्रिया की एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। आपने यहाँ जो संकेत दिया था, वह यह था कि हिंदुओं और ईसाइयों के नरसंहार का आह्वान एक प्रतिक्रिया थी। इसलिए यह उचित था। मैं आपको याद दिला दूँ कि पीएफआई एक प्रतिबंधित आतंकी संगठन है।

आपने अपनी टिप्पणी के साथ एक प्रतिबंधित इस्लामी आतंकी संगठन द्वारा नरसंहार संबंधी टिप्पणियों के लिए हिंदुओं को दोष देकर खत्म कर दिया। आप तब भी अपनी आग लगाने वाली टिप्पणी को दोहराते रहे, जब अधिवक्ता विष्णु जैन ने कथित ‘ईशनिंदा’ के आरोप में हिंदुओं के ‘सर तन से जुदा’ किए जाने की माँग का उल्लेख किया।

महोदय, एक ऐसे नागरिक और हिंदू के रूप में आपसे कुछ प्रश्न हैं, जिसने पिछले दशक के नफरत फैलाने वाले भाषणों और हिंदुओं के खिलाफ अपराधों का दस्तावेजीकरण किया है। मैं उम्मीद करती हूँ कि असहमति को लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व मानने वाली संस्था प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मेरे सवालों का जवाब देगी।

  1. 1. इससे पहले सुनवाई के दौरान आपने कहा था, “अगर आप कानून तोड़ेंगे तो कानून आप पर ईंटों के ढेर की तरह गिरेगा। यदि आप एक महाशक्ति बनना चाहते हैं तो कानून का शासन होना चाहिए”। मैं आपसे सहमत हूँ। मैंने लंबे समय से राज्य द्वारा अपनी रिट को बलपूर्वक लागू करने की वकालत की है। जब एसजी तुषार मेहता, विष्णु शंकर जैन और पीवी योगेश्वरन जैसे वकीलों ने हिंदू समुदाय को व्यक्तिगत रूप से या लोगों के समूह के रूप में उनके धर्म के आधार पर मौत, हत्या और नरसंहार की माँग की ओर इशारा किया तो आपने इस सिद्धांत को क्यों छोड़ दिया?

2. जब न्याय देने वाला कोई व्यक्ति ब्राह्मण नरसंहार के आह्वान के मात्र उल्लेख पर मुस्कुराता है और फिर एक राजनेता ने दशकों पहले जो कहा था, उसके आधार पर ऐसी माँगों का औचित्य पेश करने के लिए आगे बढ़ता है, तो क्या आप वास्तव में विश्वास करते हैं कि आपके पास न्याय करने की नैतिकता है?

3. यदि आप वास्तव में मानते हैं कि प्रत्येक क्रिया की एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है तो एक शिक्षित, न्याय के विधाता के रूप में क्या आप कहेंगे कि एक असहिष्णु समुदाय के रूप में हिंदू द्वारा अपने अधिकारों को रौंदे जाने के खिलाफ रैलियाँ निकालकर सरकार से उचित कार्रवाई की माँग भी प्रतिक्रिया है? मैं बताती हूँ।

2022 के “लव जिहाद” के 153 मामलों का हमने विश्लेषण करने का प्रयास किया, जिन्हें ऑपइंडिया ने रिपोर्ट किया था। उनमें से हर एक का एक धार्मिक कोण था, जहाँ हिंदू महिला को उसके धर्म के आधार पर सताया गया था। कुछ मुस्लिम पुरुषों ने हिंदू होने का नाटक किया। हिंदू महिलाओं को जबरन गोमांस खिलाया गया। इस्लाम में परिवर्तित किया गया या ऐसा करने के लिए दबाव डाला गया। जबरन हलाला के मामले के सामने आए।

153 मामलों में हमने देखा कि इनमें से 22 मामलों में मुस्लिम पुरुष ने या तो हिंदू महिला को जबरदस्ती गोमांस खिलाया, उसे हिजाब पहनने के लिए मजबूर किया या अपने धर्म का पालन करने से रोकते हुए मूर्तियों को तोड़ा और इस्लाम में परिवर्तित होने से रोका। ऐसे 21 मामलों में मुस्लिम व्यक्ति ने निजी वीडियो सार्वजनिक करने की धमकी दी थी और 3 मामलों में हिंदू महिला को सिर कलम करने की धमकी दी थी। 153 मामलों में से 125 मामले वयस्क पीड़ितों के साथ थे, जबकि 28 मामले नाबालिग पीड़ितों के थे।

ये केवल ऐसे मामले हैं, जिन्हें ऑपइंडिया कवर करने में कामयाब रहा। और भी बहुत ऐसे मामले होंगे, जिन्हें कवर करने से हम चूक गए होंगे या जिनके बारे में हमें पता नहीं था। यह सिर्फ एक साल का है। इन परिस्थितियों में क्या यह कहना उचित नहीं होगा कि महाराष्ट्र राज्य में धर्मांतरण विरोधी कानून की माँग को लेकर हिंदुओं की रैली एक उचित प्रतिक्रिया है? मैं निश्चित रूप से यह नहीं कहूँगी कि यह ‘समान और विपरीत प्रतिक्रिया’ है।

इसे और आगे बढ़ाते हैं। मुझे यकीन है कि आपने वह वीडियो देखा होगा, जिसमें दो इस्लामवादियों ने कन्हैया लाल का सिर काट दिया था। वह शख्स, जिसने हिंदुओं की आस्था का अपमान किया और नूपुर शर्मा को टेलीविजन पर बयान देने के लिए उकसाया, आज आजाद घूम रहा है। नूपुर शर्मा की जिंदगी हमेशा के लिए बर्बाद हो गई है। अदालत ने उस समय इस्लामवादियों द्वारा कई लोगों की हत्या के लिए नूपुर शर्मा की ‘ढीली जीभ’ को दोषी ठहराया था।

इस मामले में राज्य और न्यायपालिका से उम्मीद खोने के बाद अगर हिंदू कहते हैं कि वे अपने भाइयों की हत्या करने वाले समुदाय का आर्थिक रूप से बहिष्कार करेंगे तो क्या आप इसे ‘प्रतिक्रिया’ नहीं मानेंगे? DMK नेताओं और PFI आतंकवादियों द्वारा नरसंहार के आह्वान को आपके द्वारा ‘प्रतिक्रिया’ क्यों माना गया, लेकिन हिंदू समुदाय के विरोध को नहीं?

4. जब अदालत में हिंदुओं के खिलाफ अभद्र भाषा का मामला उठाया गया था तो आपने कहा था कि समय पर ऐसे अभद्र भाषा से निपटने में राज्य नपुंसक है। श्रीमान जी, मैं आपसे सहमत हूँ। जब असहिष्णु अल्पसंख्यक से निपटने की बात आती है तो राज्य नपुंसक होता है। मैंने उस प्रभाव के लिए विस्तार से लिखा है, लेकिन मेरे दो सवाल हैं।

सबसे पहले, जब राज्य नपुंसक हो जाता है तो नागरिक इस उम्मीद के साथ न्यायपालिका की ओर रुख करते हैं कि उनके अधिकारों की रक्षा होगी। अपने अधिकारों की माँग कर रहे हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने वाले हिंदू वकीलों की दलीलों को खारिज करते हुए एक मुस्लिम याचिकाकर्ता की दलीलों को सुनकर आप ज्यादा खुश क्यों थे?

दूसरे, यह कहकर कि राज्य नपुंसक है और उन्हें हिंदुओं के खिलाफ अभद्र भाषा के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए थी, आपने अनिवार्य रूप से यह संकेत दिया कि अदालत को उन पहलुओं में शामिल होने का कोई अधिकार नहीं है और इस तरह के नरसंहार को कम करना राज्य का काम है। यदि यह सच है तो मुस्लिम व्यक्ति की याचिका में भी आप उसी निष्कर्ष पर क्यों नहीं पहुँचे?

5. जस्टिस जोसेफ, आप मानते हैं कि राज्य की आलोचना करना आपका अधिकार है, जहाँ वह गलत है। इसलिए राज्य को नपुंसक कहना आपने उचित समझा। इस आकलन से मैं सहमत हूँ। हालाँकि, यदि अनिर्वाचित निर्वाचित को उनकी नैतिकता के आधार पर नपुंसक कह सकते हैं तो अदालत सामान्य नागरिकों के सवाल से ऊपर क्यों है? जब आपकी (न्यायालय की) राय पर सवाल उठाया जाता है तो अदालत ‘अवमानना’ के आरोपों में नागरिकों को फँसाना क्यों उचित समझती है?

सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में भारत के चुनाव आयोग बनाम एमआर विजयभास्कर, (2021) 9 एससीसी 770 केस में मद्रास उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश द्वारा की गई कुछ मौखिक टिप्पणियों के खिलाफ चुनाव आयोग द्वारा दायर एक याचिका में ‘ऑफ द कफ’ टिप्पणी का न्यायिक संज्ञान लिया था। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मौखिक टिप्पणी आधिकारिक रिकॉर्ड का हिस्सा नहीं है और कोई औपचारिक राय व्यक्त नहीं करती है और इसलिए, इसे हटाया नहीं जा सकता है। न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि इस तरह के अधिकांश मौखिक टिप्पणी जानकारी से संबंधित होते हैं।

हालाँकि, अदालत ने सुनवाई के दौरान वादियों के खिलाफ तीखी टिप्पणी की न्यायाधीशों में बढ़ती प्रवृत्ति के बारे में कुछ आशंकाएँ दूर कीं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि ‘हमें खुली अदालत में आकस्मिक टिप्पणियों में सावधानी बरतने के लिए न्यायाधीशों की आवश्यकता पर जोर देना चाहिए, जो गलत बयानी के लिए अतिसंवेदनशील हो सकते हैं’। चुनाव आयोग का मामला यह था कि कोविड-19 महामारी के संदर्भ में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा ‘हत्या के आरोप’ की मौखिक टिप्पणी गलत थी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संदर्भ में कहा कि उच्च न्यायालय की टिप्पणी कहा था।

यदि जस्टिस और न्याय के हित में नहीं तो कम-से-कम सुसंगत होने के हित में क्या आप अपनी मौखिक टिप्पणियों को लेकर अधिक सावधान रहेंगे? व्यक्तिगत रूप से मुझे एक संस्था के रूप में न्यायपालिका पर बहुत विश्वास है। हालाँकि, हिंदू समुदाय के एक सदस्य के रूप में मुझे विश्वास है कि जब अदालत के समक्ष सामूहिक अधिकारों का सवाल आएगा तो ‘न्याय’ उत्पीड़ित बहुसंख्यक समाज से हमेशा के लिए दूर हो जाएगा।

नूपुर जे शर्मा ( सभार……..)