राहुल गांधी की संसद सदस्यता आखिर क्यों नहीं समाप्त की जानी चाहिए?

नीरज कुमार दुबे
सदन नियमों और आसन के निर्देशानुसार चलेगा या राहुल गांधी की मर्जी से? दिक्कत यह है कि कांग्रेस में जितने भी वरिष्ठ नेता हैं या संसदीय राजनीति का लंबा अनुभव रखते हैं, आज वह किनारे किये जा चुके हैं इसलिए राहुल गांधी को पार्टी में सही राह दिखाने वाला कोई नहीं है।
आपातकाल के दौरान सुब्रह्मण्यम स्वामी पर देश विरोधी साजिशों में शामिल होने और भारतीय संसद और देश के महत्वपूर्ण संस्थानों को बदनाम करने का आरोप लगाकर 15 नवंबर 1976 को राज्यसभा से निष्कासित कर दिया गया था। ऐसे में सवाल उठता है कि विदेशी मंच से भारतीय संसद के बारे में अनर्गल बातें कहने पर क्यों नहीं राहुल गांधी की संसद सदस्यता समाप्त की जानी चाहिए?

बात सिर्फ एक मामले की ही नहीं है। राहुल गांधी पर आरोप है कि वह लगातार संसदीय नियमों की अनदेखी करते हैं। संसद के इसी बजट सत्र के पहले चरण में राहुल गांधी ने अडाणी मुद्दे पर कुछ ऐसी बातें कहीं थीं जो संसदीय नियमों के विरुद्ध थीं इसलिए लोकसभा अध्यक्ष ने उनकी टिप्पणी को सदन की कार्यवाही से हटवा दिया था। लेकिन इसके बावजूद राहुल गांधी की वह टिप्पणी उनके और कांग्रेस के आधिकारिक यू-ट्यूब चैनलों पर उपलब्ध है। इसलिए उन्हें आदतन अपराधी बताते हुए यह मामला विशेषाधिकार संबंधी संसदीय समिति को भी भेजा गया है। देखा जाये तो राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोलते हुए कई बार अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर निकल जाते हैं। हम आपको याद दिला दें कि अडाणी मामले की तरह ही उन्होंने पिछली लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए जब राफेल विमान खरीद में घोटाले का आरोप लगाते हुए फ्रांस के हवाले से संसद के भीतर कुछ दावे किये थे तब फ्रांस की सरकार ने बयान जारी कर राहुल गांधी के दावों का खंडन कर दिया था। ऐसे कई और मामले भी मिल जायेंगे जब राहुल गांधी संसदीय नियमों की अवहेलना करते दिखे। कभी वह सदन में बैठे हुए आंख मारते दिखे तो कभी प्रधानमंत्री की सीट पर जाकर उन्हें जबरन गले लगाते दिखे।

सवाल फिर से वही है कि सदन नियमों और आसन के निर्देशानुसार चलेगा या राहुल गांधी की मर्जी से? दिक्कत यह है कि कांग्रेस में जितने भी वरिष्ठ नेता हैं या संसदीय राजनीति का लंबा अनुभव रखते हैं, आज वह किनारे किये जा चुके हैं इसलिए राहुल गांधी को पार्टी में सही राह दिखाने वाला कोई नहीं है। आज जो लोग उनके इर्दगिर्द मौजूद हैं उन्होंने ऐसे मायाजाल बनाया हुआ है कि वह उनके वीडियो और फोटो पर आने वाले लाइक कमेंट को दिखाकर ही राहुल गांधी को यह अहसास कराते रहते हैं कि वह बड़े नेता बनते जा रहे हैं। ऐसे नेता यह समझने को तैयार नहीं हैं कि सत्ता का फैसला सोशल मीडिया पर नहीं बल्कि चुनावी मैदान में होगा। हाल ही में तीन राज्यों के चुनाव संपन्न हुए। कांग्रेस ने पूर्वोत्तर के इन राज्यों को छोटा प्रदेश मानते हुए इन चुनावों को गंभीरता से नहीं लिया। ऐसे में सवाल तो उठेगा ही कि छोटे राज्यों को कांग्रेस गंभीरता से नहीं लेती और बड़े राज्यों में वह बची नहीं है तो कांग्रेस आखिर है कहां?

विदेशी धरती से कांग्रेस नेता राहुल गांधी के दिये गये भाषणों की अन्य बड़ी बातों पर गौर करें तो उन्होंने आरोप लगाया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतंत्र को खत्म कर रहे हैं। उन्होंने पेगासस मुद्दा उठाते हुए अपना पुराना आरोप दोहराते हुए कहा है कि उनकी जासूसी की जा रही थी। सवाल उठता है कि राहुल गांधी विदेशी विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने गये थे या अपने ऊपर हो रहे कथित अत्याचारों का वर्णन करने गये थे? सवाल यह भी उठता है कि यदि भारत में लोकतंत्र कमजोर हो रहा है तो उसे मजबूत करने के प्रयास यहां करने होंगे या विदेशी विश्वविद्यालय में? सवाल यह भी उठता है कि मोहब्बत की दुकान खोलने का दावा करने वाले राहुल गांधी मोदी विरोधी नफरत का इजहार विदेशी मंचों से क्यों करते हैं?

बहरहाल, राहुल गांधी का हालिया इजहार ए नफरत तो और भी गंभीर है क्योंकि जिस समय जी-20 देशों के विदेश मंत्री तथा भारत के निमंत्रण पर जुटे अन्य देशों के प्रतिनिधि दिल्ली में संयुक्त और द्विपक्षीय रूप से चर्चाएं कर भारत के आर्थिक और रणनीतिक महत्व को स्वीकार कर रहे थे, वैश्विक मुद्दों का हल निकालने में भारत की भूमिका को स्वीकार कर रहे थे, उसी समय राहुल गांधी भारत के लोकतंत्र को कमजोर बता रहे थे। साधारण भाषा में राहुल की राजनीति को समझें तो राहुल गांधी ठीक उस समय भारत की छवि पर प्रहार कर रहे थे जब सरकार देश की छवि को मजबूत बनाने और उसे चमकाने का प्रयास कर रही थी।