बंगाल की गद्दी किसे सौंपेंगी? गाँधी-पवार की राजनीति को साधने के लिए कौन सा खेला खेलेंगी ममता बनर्जी?

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पाँच दिनों के दिल्ली दौरे पर हैं। ऐसे दौरे राष्ट्रीय राजनीति की महत्वाकांक्षा रखने वाले क्षेत्रीय नेताओं के लिए नई बात नहीं है। ऐसे दौरों के लिए सार्वजनिक तौर पर बहाना चाहे जो रहे, सुश्री बनर्जी से पहले भी कई क्षेत्रीय छत्रप यह काम करते रहे हैं, कभी विपक्षी दलों की एकता के नाम पर, कभी केंद्र सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ भारत को एक करने के नाम पर तो कभी देश में बढ़ती ‘फासिस्ट’ ताकतों के नाम पर। इस किरदार में कभी चंद्रबाबू नायडू नज़र आए, कभी के चंद्रशेखर राव तो कभी शरद पवार। वर्तमान में यह काम ममता बनर्जी ने अपने जिम्मे ले लिया है क्योंकि फिलहाल राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका को तलाशने वाले लोगों में सबसे आगे वही हैं।

ऐसा नहीं कि राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका की खोज में ममता बनर्जी पहली बार उतरी हैं। इससे पहले 2014 लोकसभा चुनाव के समय भी उन्होंने यह प्रयास किया था। तब उनके साथ अन्ना हजारे थे। हजारे को अपनी लोकप्रियता पर भरोसा था और इसीलिए उन्होंने ममता बनर्जी को राष्ट्रीय स्तर पर लॉन्च करने की जिम्मेदारी उठाई थी। यह बात अलग है कि तब उनका प्रयास नाकाम रहा था।

अब ममता बनर्जी दोबारा अपनी भूमिका खोजने निकली हैं। किसी भी राजनीतिक नेतृत्व के लिए यह स्वाभाविक है कि जब तक वो राजनीति में सक्रिय है, अपने लिए वृहद भूमिका की तलाश करता रहे। ऐसे में ममता बनर्जी का यह प्रयास राजनीति के लिहाज से सही भी है और तार्किक भी। जो बात यहाँ देखने वाली है, वह ये है कि विपक्षी दलों की सोच में एकजुटता को लेकर तारतम्य कितना है?

हाल ही में जब प्रशांत किशोर ने शरद पवार से मुलाकात की थी, तब पवार एक नॉन बीजेपी नॉन कॉन्ग्रेस फ्रंट बनाने के पक्ष में थे। उसके बाद प्रशांत किशोर राहुल गाँधी से मिले। तब लग रहा था कि राहुल गाँधी के साथ उनकी मुलाक़ात पंजाब की राजनीति से सम्बंधित थी पर अब ममता बनर्जी के दिल्ली दौरे और उसमें होने वाली बैठकों के बाद लग रहा है कि फिलहाल पवार के नॉन कॉन्ग्रेस नॉन बीजेपी फ्रंट के प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया है और विपक्षी दल अब केवल भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध एकजुट होने के प्रस्ताव पर सहमत हो गए हैं।

विपक्षी एकता में गाँधी-वाम के प्रश्न

प्रश्न यह है कि एकजुटता के इस प्रस्ताव में कौन से दल शामिल हैं और कौन-कौन से एकजुट होंगे? वामदलों की भूमिका क्या होगी, खासकर तब जब वे दो राज्यों में से एक पश्चिम बंगाल में अपने बचे-खुचे वोट तृणमूल कॉन्ग्रेस को देकर अपना राजनीतिक भविष्य ही नहीं बल्कि अस्तित्व दाँव पर लगा चुके हैं।

वामदलों की भूमिका के बाद यह प्रश्न महत्वपूर्ण रहेगा कि कॉन्ग्रेस की ओर से गाँधी परिवार इस प्रस्ताव पर अपनी भूमिका कहाँ देख रहा है? राष्ट्रीय राजनीति में शीर्ष की खोज में वर्षों तक मेहनत से लगे रहने वाले राहुल गाँधी इस एकजुटता में खुद को कहाँ पाते हैं?

क्या राहुल खुद से प्रश्न नहीं करेंगे कि; पश्चिम बंगाल में अपनी पार्टी के वोट ममता बनर्जी को क्या इसलिए दिलवाए थे कि वे राज्य की राजनीति छोड़कर दिल्ली का रुख कर लें? शरद पवार की क्या भूमिका रहेगी? क्या ममता बनर्जी खुद को केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित रखते हुए राष्ट्रीय राजनीति के शीर्ष पर पहुँच पाएँगी? और यदि वे अन्य राज्यों में अपने दल के लिए जमीन तलाशेंगी, तो इस पर और विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया क्या होगी?

यह प्रश्न भी उठेगा कि एकजुटता की यह तैयारी अगले लोकसभा चुनावों के लिए हो रही है या फिर उससे पहले होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए? ये ऐसे प्रश्न हैं, जो केवल एक बार नहीं बल्कि बार-बार उठेंगे और इन पर किसी तरह की अस्पष्टता विपक्षी एकजुटता के आड़े आएगी।

बंगाल में हिंसा, केंद्र में राजनीति

ममता बनर्जी के वर्तमान दिल्ली दौरे का समय चयन बड़ा दिलचस्प है। वे इस दौरे पर तब हैं, जब कलकत्ता उच्च न्यायालय चुनाव उपरांत राज्य में हुई हिंसा पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट पर सुनवाई कर रहा है और रिपोर्ट से तमाम ऐसी बातें और घटनाएँ सामने आ रही हैं, जिन्हें सत्ताधारी दल ने अभी तक किसी न किसी तरीके से रोक रखा था। साथ ही सुनवाई सम्बंधित राज्य सरकार की दलीलें, तर्क और असंवैधानिक कार्यकलाप सामने आ रहे हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर इन बातों की चर्चा क्या उस महत्वाकांक्षी नेत्री के लिए शुभ हैं, जो अपने लिए वृहद राजनीतिक भूमिका की खोज में निकली है? वैसे भी केंद्र से अपने संबंधों को लेकर विवाद में रहने वाली सुश्री बनर्जी के लिए आने वाले दिन बहुत सुलभ होंगे, इस बात की संभावना कम ही लगती है। दिल्ली में भूमिका की तलाश में निकली ममता बनर्जी क्या पश्चिम बंगाल सरकार को अपने राजनीतिक वारिस को पूरी तरह से सौंपने का जोखिम उठा सकेगी?

फिलहाल दिल्ली में ममता बनर्जी और अन्य नेताओं के बीच होने वाली बैठकें उत्साहजनक भले प्रतीत होती हों पर इन बैठकों में विश्वास की मात्रा कम है। हाल में शरद पवार की प्रधानमंत्री मोदी के साथ हुई बैठक पर लगातार बातें हो रही हैं। पेगासस स्पाईवेयर को आगे रख कर ममता बनर्जी बयान दे सकती हैं पर उन्हें भी यह पता है कि इस तथाकथित जासूसी के बारे में शुरुआती धुल धक्कड़ अब जम चुका है। ऐसे में पेगासस को राजनीतिक बयानों के लिए काम में लगाया तो जा सकता है पर परिणामों को लेकर उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता।

फिलहाल ममता बनर्जी का यह दौरा पानी नापने की एक कोशिश से अधिक प्रतीत नहीं होता। इसके राजनीतिक परिणाम विपक्ष को एकजुट करने में कोई भूमिका निभा सकेंगे, इसे लेकर संदेह लम्बे अरसे तक बना रहेगा।

शिव मिश्रा (सभार……)