कांटे सेे कांटा निकाल रहा है भाजपा का हाईकमान

राजेश श्रीवास्तव

मोदी के भरोसेमंद एके शर्मा को डिप्टी सीएम बनाए जाने की चर्चा महीनों चली लेकिन आखिर में उन्हें यूपी बीजेपी का सत्रहवां उपाध्यक्ष बना दिया गया। निश्चित रूप से उन्हें दो साल पहले यह कहकर तो आईएएस के पद से वीआरएस नहीं दिलाया गया होगा कि उन्हें उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष का डिप्टी बन कर काम करना होगा। सूत्रों की मानें तो जब वह वीआरएस ले रहे थे तो उन्हें पीएमओ में प्रिंसिपल सेक्रेटरी के पद का आफर मिला था । लेकिन उन्हें नहीं मालुम था कि वह उस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा कर रहे थे जिन्होंने कभी अपने गुरू कहे जाने वाले अरुण शौरी को पैदल कर दिया। राजनीतिक गुरू लालकृष्ण आडवाणी को बहुत अंदाज से घर में ही रहने को मजबूर कर दिया। ऐसे एक नहीं दर्जनों नाम हैं। प्रधानमंत्री ने शर्मा को भले ही अपना सबसे करीबी नौकरशाह बताया हो लेकिन उन्होंने शर्मा को अपनी राजनीति के एक मोहरे से ज्यादा कभी महत्व नहीं दिया। जब उन्हें लगा कि उत्तरप्रदेश उनके हाथ से निकल रहा है तो उन्हें यहां यह कहकर भ्ोज दिया कि वह यूपी के डिप्टी सीएम बनाये जायेंगे। उत्तर प्रदेश जैसे सियासी उर्वर वाले राज्य का डिप्टी सीएम बनने का ख्वाब संजोये जब शर्मा लखनऊ आये तो उनको नहीं पता था कि उनका पाला मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से पड़ेगा। जो जिद पर आता है तो किसी की नहीं सुनता। यह बात भाजपा एक बार पहले भी देख चुकी है । जब किसी तरह बात नहीं बनी तो उन्हें भाजपा के संगठन में समायोजित कर दिया गया। यानि कहें तो आये थ्ो हरि भजन को ओटन लगे कपास।
जनवरी 2०21 में एके शर्मा ने अचानक रिटायरमेंट लिया और बीजेपी में शामिल हो गए। इस कदम को लोग समझ पाते कि बीजेपी ने यूपी में उन्हें अपना एमएलसी घोषित कर दिया। एके शर्मा कोई आम आईएएस अधिकारी नहीं थे, जिन्हें यूपी भेजने पर चर्चा नहीं होती। शर्मा पीएम मोदी के सबसे खास और करीबी अधिकारियों में से एक हैं। गुजरात में मुख्यमंत्री रहने के दौरान मोदी ने कई साल तक उन्हें अपने साथ रखा, जब प्रधानमंत्री बने तो दिल्ली बुला लिया और रिटायरमेंट तक वो केंद्र सरकार के साथ तमाम अहम मंत्रालयों में काम करते रहे। उनकी यूपी में एंट्री के बाद से ही पीएम मोदी, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ के बीच विवाद की चर्चाएं तेज हुईं । यह विवाद इतना बढ़ेगा खुद न पीएम मोदी ने सोचा होगा न अरविंद शर्मा ने।
एके शर्मा ने खुद कहा कि उन्हें मोदी जी राजनीति में लाए और उन्होंने शुक्रिया भी कहा। लेकिन अंत में ऐसा कुछ नहीं हुआ। यानी नेतृत्व ने अगर कोशिश की थी, तो वो योगी आदित्यनाथ के सामने टिक नहीं पाईं। शर्मा को उपाध्यक्ष बना देने का साफ मतलब है कि फिलहाल उन्हें किनारे कर दिया गया है। कांग्रेस ने तो चुटकी भी ली है कि पीएमओ छोड़कर क्यों आए थे, प्रदेश उपाध्यक्ष बनने?
अब अगर एके शर्मा को सरकार में जगह नहीं मिलने को योगी की जीत कहा जा रहा तो इसे केंद्र सरकार की मजबूरी भी कहा जाना चाहिए। क्योंकि जाहिर सी बात है कि प्रधानमंत्री और केंद्रीय नेतृत्व के आगे किसी मुख्यमंत्री का टिक पाना इतना आसान नहीं है। इसके लिए बीजेपी नेतृत्व की ये मजबूरी थी कि चुनावों से पहले योगी की बगावत या फिर पार्टी में बड़ी कलह भारी पड़ सकती थी। वहीं चुनाव के नजदीक आकर कोई भी पार्टी मुख्यमंत्री बदलने से पहले 1०० बार जरूरी सोचेगी। क्योंकि इससे जनता में गलत मैसेज जाता ।
रणनीतिकारों की मानें तो प्रधानमंत्री भी सियासत में इतने कच्चे नहीं हैं कि अगर वह चाहते तो अरविंद शर्मा को कहीं समायोजित नहीं करा सकते थ्ो। उन्होंने योगी आदित्यनाथ और अरविंद शर्मा की ‘मुठभेड़’ कराकर एक तीर से दो शिकार किये। वह चाहते तो शर्मा को पीएमओ में आज भी कोई पद देकर समायोजित कर सकते थ्ो। या फिर केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी जगह दे सकते थी। ऐसा नहीं कि मऊ या उत्तर प्रदेश के किसी मंत्री को केंद्र में जगह नहीं मिली है। उन्हें केंद्र में मंत्री बनाकर भी यूपी की जिम्मेदारी दी जा सकती थी। लेकिन उससे उन्हें वह लाभ नहीं मिलता। क्योंकि वह प्रधानमंत्री हैं उनके सामने दर्जनों अरविंद कुमार शर्मा हैं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह वह सियासतदां हैं जिन्होंने 2०14 के बाद से अब तक कई धुरंधरों को सियासी पटकनी दी है, फिर चाहे वह पार्टी के बाहर का रहा हो या फिर भीतर का। शर्मा और योगी आदित्यनाथ के आमने-सामने आने से अब मुख्यमंत्री भी दबाव में हैं और शर्मा भी। मुख्यमंत्री के सामने जहां शर्मा को मंत्रिमंडल में न लेने के बावजूद उत्तर प्रदेश जिताने की जिम्मेदारी पूरी तरह से अब आ टिकी है और अगर वह उत्तर प्रदेश में अपने दम पर 3०० का आंकड़ा नहीं पार कर पाते हैं तो अरविंद शर्मा अगर भाजपा सरकार 2०22 में बनती है तो केंद्र जैसा चाहेगा, उन्हें समायोजित कर लेगा और तब योगी आदित्यनाथ उस स्थिति में नहीं होंगे कि दबाव बना सकें और शर्मा के लिए संदेश यह है कि वह संगठन में प्रदेश उपाध्यक्ष हैं उनके सामने पूर्वांचल यानि प्रधानमंत्री के संसदीय क्ष्ोत्र के आसपास के पूरे पूर्वांचल में कमल खिलाने की जिम्मेदारी भी। अब देखना है कि प्रधानमंत्री की कांटे से कांटा निकालने की यह रणनीति कितना सफल होगी। अमित शाह की चाणक्य नीति में दोनों घिरेंगे या बच कर निकल पायेंगे। देखा जाये तो इस रणनीति में कोई भी चूके लेकिन केंद्रीय नेतृत्व की विजय और जय-जय बिल्कुल तय है। ऐसे में यह कहना कि मोदी जी झुक गये हैं या फिर योगी आदित्यनाथ के सामने झुक गये हंै, कुछ अटपटा सा लगता है।