लैब लीक थ्योरी: भारतीय वैज्ञानिकों की रिसर्च में Covid-19 की उत्पत्ति को लेकर कई बड़े खुलासे, पढ़िए सबकुछ

चीन के वुहान शहर में पहली बार कोविड-19 का पता चलने के डेढ़ साल बाद भी यह सवाल रहस्य बना हुआ है कि दुनियाभर में कोरोना वायरस कहाँ से फैला। दरअसल, चीन की वुहान लैब से डेढ़ साल पहले SARS-CoV-2 वायरस के लीक होने की खबरों ने जोर पकड़ा था, जिसे सिरे से खारिज कर दिया गया था। इसके बाद अमेरिकी लेफ्ट लिबरल ने इन संभावनाओं पर नए सिरे से सोचना प्रारंभ कर दिया था।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जब यह कहा था कि कोरोना वायरस की उत्पत्ति चीन में हुई है। यह चाइनीज वायरस है। तब इस बात को हर किसी ने यह कहते हुए नजरअदांज कर​ दिया था कि यह ट्रंप की कोरी कल्पना है। हालाँकि, अब खुद वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कोरोना वायरस कहाँ से फैला इसकी जाँच के आदेश दिए हैं। इस बात को लेकर अमेरिका और चीन एक बार फिर से आमने-सामने आ गए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने इंटेलिजेंस एजेंसियों को 90 दिनों के अंदर यह पता लगाने का आदेश दिया है कि कोरोना वायरस कहाँ से फैला है। यह मीडिया को जगाने और वायरस के नेशनल ओरिजिन थ्योरी (national origin theory) पर सवाल उठाने के लिए मजबूर करता है।

सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम के तहत डॉ. एंथनी फौसी के हजारों ईमेल प्राप्त होने के बाद लैब-लीक थ्योरी को लेकर कई और खुलासे हुए हैं। ईमेल से पता चला कि इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (Wuhan Institute of Virology) में कोविड-19 वायरस कैसे विकसित हुआ। वे चमगादड़ से विकसित हुए कोरोना वायरस को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए इस पर रिसर्च कर रहे थे।

वहीं, ईमेल और अन्य स्टडी को लेकर हाल ही में जो रिपोर्ट्स सामने आई हैं, उसके मुताबिक शोधकर्ताओं, अमेरिकी प्रशासन सहित खुफिया एजेंसी से जुड़े कई लोग चीनी लैब की भूमिका की जाँच कराना चाहते थे, लेकिन डॉ. फौसी और अन्य कुछ लोगों ने इसकी मंजूरी नहीं दी। ऐसा इसलिए क्योंकि इसमें उनका स्वार्थ छिपा था। दरअसल, अमेरिकी सरकार उन्हें वुहान लैब में वायरस पर रिसर्च करने के लिए मोटी रकम देती थी। इस जाँच प्रक्रिया में वह महत्वपूर्ण भूमिका में थे।

फौसी द्वारा ध्यान में लाए गए कुछ स्टडी (रिसर्च) में एक रिसर्च पेपर ऐसा भी था, जिसे भारत के कुछ वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किया गया था। पिछले साल जनवरी में आईआईटी दिल्ली (IIT DELHI) में कुसुमा स्कूल ऑफ बायोलॉजिकल साइंसेज और दिल्ली यूनिवर्सिटी के आचार्य नरेंद्र देव कॉलेज के शोधकर्ताओं ने एक पेपर प्रकाशित किया था, जिसमें उन्होंने पाया था कि SARS-CoV-2 के स्पाइक ग्लाइकोप्रोटीन (S) (spike glycoprotein (S)) में चार इंसर्शन थे, जो कि एचआईवी (HIV) वायरस के समान हैं और अन्य किसी कोरोना वायरस के रूप में नहीं पाए जाते हैं। इस स्टडी ने इन संभावनाओं को मूर्त देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यानी हो सकता है कि SARS-CoV-2 को मौजूदा कोरोना वायरस और एचआईवी वायरस के इस्तेमाल से bio-engineered किया गया हो।

रिसर्च पेपर को इन भारतीय वैज्ञानिकों ने तैयार किया था

यह रिसर्च पेपर प्रशांत प्रधान, आशुतोष कुमार पांडे, अखिलेश मिश्रा, पारुल गुप्ता, प्रवीण कुमार त्रिपाठी, मनोज बालकृष्णन मेनन, जेम्स गोम्स, पेरुमल विवेकानंदन और बिश्वजीत कुंडू द्वारा सभी उपलब्ध कोरोना वायरस अनुक्रमों का अध्ययन करने के बाद तैयार किया था, जो एनसीबीआई वायरल जीनोम डेटाबेस (NCBI viral genome database) में उपलब्ध हैं।

स्पाइक (एस) ग्लाइकोप्रोटीन कोरोना वायरस को मानव के शरीर में मौजूद कोशिकाओं में प्रवेश करने के लिए सक्षम बनाता है। स्टडी के मुताबिक, ग्लाइकोप्रोटीन एक विशेष आकार का होता है, जो कोशिकाओं से जुड़ने में मदद करता है और यह क्षमता SARS-CoV-2 के लिए बेहद यूनिक मानी जाती है। जैसे SARS-CoV अन्य किसी भी प्रकार के कोरोना वायरस में नहीं पाया जाता है। खासतौर पर कोरोना वायरस के स्पाइक ग्लाइकोप्रोटीन (एस) को दो सबयूनिट्स एस 1 और एस 2 में बाँटा गया है। S1 टागेट सेल कोशिकाओं पर रिसेप्टर के साथ जुड़ने में मदद करता है। वहीं, S2 सबयूनिट कोशिका झिल्ली के साथ मिलाने में मदद करता है।

दरअसल, SARS-CoV-2 में ग्लाइकोप्रोटीन का यह विभाजन इसके लिए यूनिक है। यही कारण है कि भारतीय शोधकर्ता इस पर स्टडी करना चाहते थे कि यह विकास कैसे हुआ। इस स्टडी को करने के लिए उन्होंने SARS-CoV-2 के स्पाइक ग्लाइकोप्रोटीन अनुक्रमों की तुलना SARS-CoV से की और उनमें क्या अंतर हैं, इसका विश्लेषण किया। इसकी सावधानीपूर्वक जाँच करने पर उन्होंने पाया कि SARS-CoV-2 स्पाइक ग्लाइकोप्रोटीन में 4 इंसर्शन (insertions) या 4 सेग्मेंट होते हैं, जो कि कोरोना वायरस के पहले के कम संक्रामक रूपों में नहीं पाए जाते हैं।

स्टडी में पाए गए चार इंसर्शन इस प्रकार हैं, जीटीएनजीटीकेआर (GTNGTKR), एचकेएनएनकेएस (HKNNKS), जीडीएसएसएसजी (GDSSSG) और क्यूटीएनएसपीआरआरए (QTNSPRRA)।

इसे खोजने के बाद उन्होंने मानव शरीर में पाए जाने वाले वायरस के सभी उपलब्ध फुल-लेंथ अनुक्रमों (sequences) का अध्ययन किया। इस दौरान उन्होंने पाया कि उन सभी में इंसर्शन मौजूद थे, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सेग्मेंट चमगादड़ में पाए जाने वाले एक ही वायरस के स्पाइक ग्लाइकोप्रोटीन सिक्वेंस में नहीं थे।

जब उन्होंने इसके संभावित मूल (possible origin) को जानने के लिए इन 4 सेग्मेंट का और अधिक विश्लेषण किया, तो उन्होंने पाया कि ये चारों ह्यूमन इम्युनोडेफिशिएंसी वायरस-1 (एचआईवी -1) प्रोटीन के खंडों से मेल खाते हैं। पहले 3 खंड HIV-1 gp120 में अमीनो एसिड अवशेषों के सेग्मेंट से मेल खाते हैं, जबकि चौथा खंड HIV-1 Gag से मेल खाता है। चार में से पहले दो 100% मैच हैं, जबकि बाकी दो में कुछ अंतर हैं। ये प्रोटीन वायरस की पहचान करने में बेहद कमजोर साबित होते हैं।

शोधकर्ताओं के अनुसार, SARS-CoV-2 और HIV-1 वायरस दोनों में प्रोटीन का ऐसा मेल अपने आप संभव नहीं हो सकता है। वे यह भी कहते हैं कि चमगादड़ या कोरोना वायरस के अन्य सभी रूपों में पाए जाने वाले एक ही वायरस में सेग्मेंट नहीं थे। इसलिए यह बहुत ही चौंकाने वाला है, क्योंकि बहुत कम समय में स्वाभाविक रूप से इस तरह का बदलाव होना संभव नहीं हैं। ध्यान दें कि ऐसा दावा किया जाता रहा है कि वायरस सीधे या चमगादड़ जैसे किसी जानवर के माध्यम से इंसान के अंदर प्रवेश कर सकता है।

भारतीय वैज्ञानिकों ने वायरस की उत्पत्ति पर आगे की जाँच का दिया था सुझाव

हालाँकि, भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा की गई रिसर्च में यह दावा नहीं किया गया था कि वायरस को एक लैब में बनाया गया था, लेकिन इन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि यह एक लीक से हटकर (unconventional evolution) था। इसके चलते रिसर्च पेपर में वायरस की उत्पत्ति कहाँ से हुई इस पर आगे की जाँच का सुझाव दिया गया था।

रिसर्च पेपर का प्रीप्रिंट 31 जनवरी, 2020 को बायोरेक्सिव (bioRxiv) पर प्रकाशित किया गया था, जो एक ओपन-सोर्स पोर्टल है। यह बॉयोलॉजिकल रिसर्च के लिए फेमस है। इसे शोधकर्ताओं द्वारा 2 फरवरी, 2020 को वापस ले लिया गया था। वापसी के नोट में कहा गया था कि उन्होंने तकनीकी दृष्टिकोण और परिणामों की उनकी व्याख्या पर रिसर्च कम्यूनि​टी से प्राप्त टिप्पणियों के जवाब में इसे संशोधित करने का फैसला किया है।

वैज्ञानिकों और अमेरिकी प्रशासन ने इसे लेकर गंभीरता नहीं दिखाई

मालूम हो कि कोरोना महामारी के शुरुआती दिनों में लैब लीक थ्योरी काफी मजबूत था, लेकिन इसे वैज्ञानिकों और अमेरिकी प्रशासन के एक बड़े वर्ग द्वारा गंभीरता से नहीं लिया गया था। राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा समय-समय पर इस मुद्दे को उठाया गया, इसके बावजूद किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। लैब लीक थ्योरी पहले से ही 19 फरवरी, 2020 तक थी, जब द लैंसेट ने एक बयान में प्रकाशित किया था, जिसमें इस तरह की संभावनाओं को सिरे से खारिज कर दिया गया था कि वायरस वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी से लीक हो सकता है। इस तरह एक प्रभावशाली हेल्थ पत्रिका (medical journal) द्वारा प्रकाशित 27 वैज्ञानिकों द्वारा हस्ताक्षरित बयान ने वायरस की उत्पत्ति को लेकर जारी रिसर्च को प्रभावी ढंग से समाप्त कर दिया था, क्योंकि उन्होंने इसको लेकर एक एंगल को पूरी तरह से बंद कर दिया था।

अब फौसी के ईमेल से पता चलता है कि जब उनसे भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा इस रिसर्च पेपर के बारे में पूछा गया था, तो उन्होंने इसे ‘वास्तव में अजीब’ कहकर खारिज कर दिया था। कई अन्य ईमेल से यह भी पता चला है कि डॉ. फौसी को चेताया गया था कि हो सकता है COVID-19 को ‘engineered’ किया गया हो, लेकिन उन्होंने उन सभी बातों को खारिज कर दिया था।

भारतीय शोधकर्ता आज भी अपनी बात पर कायम हैं

रिसर्च करने वाले भारतीय शोधकर्ताओं में से एक आशुतोष कुमार पांडे से हमारे संवाददाता ने बात की। इससे पहले उन्होंने ट्विटर पर कमेंट किया था कि वे अपने निष्कर्ष पर कायम हैं कि SARS-CoV-2 स्वाभाविक नहीं है। उन्होंने ट्वीट किया था, ”हमने जनवरी 2020 में यह कहा था, हम आज यही फिर से कह रहे हैं।”

उन्होंने फिर दोहराया और कहा कि यह रिसर्च पेपर उन लोगों के लिए बेहद अजीब था, जो यह साबित करने में जुटे थे कि वायरस की उत्पत्ति प्राकृतिक रूप (natural origin) से हुई है। उन्होंने कहा कि उनकी रिसर्च में जीनोम (genome) के उन वर्गों की सही पहचान की गई थी, जो इस वायरस की खासियत थी। यह पूछे जाने पर कि उन्होंने कागज वापस क्यों ले लिया। इस पर पांडे ने कहा कि स्वार्थी लोगों के दबाव के कारण इसे वापस ले लिया गया था।

यह वायरस छूने से क्यों फैलता है

पांडे ने यह भी कहा कि यह पेपर उनके द्वारा की गई विभिन्न रिसर्च का सिर्फ एक भाग था। वे रिसर्च के पूरे निष्कर्षों को अपडेटेड वर्जन में शामिल करना चाहते थे, लेकिन संशोधित कॉपियों (revised manuscripts) पर प्रकाशकों द्वारा कड़ी रोक लगा दी गई थी। उन्होंने कहा कि संशोधित कॉपियों में उन्होंने इस बात की जानकारी दी है कि यह वायरस छूने से क्यों फैलता है और यह इंसान को इतनी आसानी से क्यों संक्रमित करता है, लेकिन इस रिसर्च को कभी बाहर ही नहीं लाने दिया गया।

एक विशेष एजेंडे के तहत वैज्ञानिकों द्वारा कैसे एक रिसर्च पेपर को ब्लॉक किया जा रहा है। इस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा, “विज्ञान नया मध्ययुगीन चर्च है, जो इसके पोप हैं अपनी इच्छानुसार सेंसर करते हैं।”

वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी पहले भी ऐसे कई प्रयोग कर चुका है

हालाँकि, भारतीय शोधकर्ताओं ने यह दावा नहीं किया है कि SARS-CoV-2 वायरस एचआईवी (HIV) वायरस के सेग्मेंट्स (segments) का उपयोग करके बनाया गया था। वे केवल इस पर और रिसर्च करना चाहते थे। तथ्य यह है कि इस तरह के अध्ययन नियमित रूप से किए जाते रहे हैं। दरअसल, वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी पहले भी ऐसे कई प्रयोग कोरोना वायरस पर ही कर चुका है।

2007 से 2017 के बीच लैब ने स्पाइक प्रोटीन में विभिन्न रिसेप्टर बाइंडिंग मोटिफ्स के साथ 8 नए काइमेरिक कोरोना वायरस (chimeric coronaviruses) बनाए थे। 2019 से अभी तक इस तरह का शोध चल रहा था, जिसके लिए अमेरिकी सरकार ने फंडिंग भी की थी। उदाहरण के लिए 2008 का यह पेपर targeted RNA recombination का उपयोग करके कोरोना वायरस जीनोम के हेरफेर के बारे में खुलासा करता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी और मिनेसोटा यूनिवर्सिटी (University of Minnesota) के वैज्ञानिकों द्वारा 2019 के एक रिसर्च पेपर ने कोरोना वायरस पर अपनी रिसर्च के उद्देश्यों को वर्णन करते हुए यह कहा था, ”इन विट्रो और इन विवो लक्षणों का वर्णन SARSr-CoV स्पिलओवर रिस्क के साथ, स्थानिक और phylogenetic विश्लेषण, पब्लिक हेल्थ कंसर्न और वायरस की पहचान करने के लिए हम सब मिलकर इन विट्रो और इन विवो संक्रमण प्रयोगों और रिसेप्टर बाइंडिंग के विश्लेषण में एस प्रोटीन अनुक्रम डेटा, संक्रामक क्लोन तकनीक का उपयोग करेंगे।”

ध्यान दें कि यहाँ संक्रामक क्लोन तकनीक का अर्थ है लाइव सिंथेटिक वायरल क्लोन बनाना। इन विट्रो का अर्थ है टेस्ट ट्यूब में किए गए सूक्ष्म जीवों पर अध्ययन और विवो में इसका मतलब लैब में जानवरों पर की गई रिसर्च से है।

राजू दास (सभार ………)