कांग्रेसी-वामपंथी राजनीति के जमूरे बनते राकेश टिकैत

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
किसानों के नाम पर राजनीति चमकाने और बेशुमार दौलत की प्राचीर खड़े करने वाले तथाकथित किसान नेताओं ने सबसे ज्यादा किसानों को छलने का काम किया है। राकेश टिकैत उनमें से एक नाम हैं ,जो मीडिया फुटेज खाने की अपनी आदत और लच्छेदार जुगाली फेंकते हुए किसानों के नाम पर अपनी स्वार्थ सिध्दि तथा कांग्रेसी, वामपंथी जमीन को उपजाऊ बनाने में लगे हुए हैं। वे अपनी निजी हठधर्मिता में इतने मुग्ध हैं कि उन्हें लगता है,जैसे उन्होंने किसानों की ठेकेदारी ले रखी है।
असल में राकेश टिकैत ,कोई किसान नही हैं।बल्कि वे किसानों की ओट लेकर कांग्रेसी राजनीति के जमूरे हैं,जिनका उद्देश्य केवल और केवल कांग्रेसी गोदी में बैठकर अपने प्रश्रयदाताओं के लिए वोटबैंक की जमीन मजबूत करना है। भारतीय किसान यूनियन वैसे भी कांग्रेस के किसान मोर्चे का संगठन है।
वामपंथी मीडिया के पोपटों ने इनको अगले कदम के रुप में चुनावी राज्यों में ‘किसान’ की सहानुभूति का नाम लेकर भाजपा के विरुद्ध वोट न! करने के लिए कठपुतली की तरह नचा रहे हैं। और राकेश टिकैत उसमें खरे उतरने के लिए घूम-घाम रहे हैं। वाकई यह अपने आप में अनूठा तरीका है। लेकिन जब यही करना था तो फिर किसान जैसे श्रध्देय शब्द की आड़ क्यों ली?भाजपा विरोध ही लक्ष्य था तब तो इन्हें राजनीति के मैदान में सीधे कूच कर जाना चाहिए ।क्या इसी से स्पष्ट नहीं हो जाता है कि इनका असली मकसद क्या था और है? सरकार विरोध -भाजपा विरोध। किसानों को बरगलाकर,कुछ को प्रलोभन के दम पर इकठ्ठा कर और देशी-विदेशी फण्डिंग के खेल को क्या नजरअंदाज कर दिया जा सकता है? राकेश टिकैत और उनकी जमूरेबाजी क्या कहीं और से संचालित नहीं हो रही है?वामपंथी, कांग्रेसी जैसा और जब चाहते हैं,ठीक उसी तरह ये कूदते रहते हैं। तो इसे क्या माना जाए? जो वास्तविक किसान हैं,वे ऐसे सभी जमूरों को जान-पहचान रहे हैं। इनके मंसूबों से खेत पर डटा हुआ किसान और देश भलीभाँति परिचित हो चुका है।
कुछ लोग तो वे कूदते रहते हैं,जो भाजपा के धुरविरोधी रहे हैं -और हैं साथ ही वे जिनका राजनीतिक वजूद खत्म हो चुका है। वैसे ही किस्म के अवसरवादी तथाकथित लोग अपने राजनीतिक अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए किसानों की संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि शायद!इससे वे अपने बुझे हुए चेहरे में चमक ला सकें,लेकिन जब उनका ध्येय ही कुटिल और फरेबी नौटंकी है।तब बेचारे अपनी लानत-मलानत स्वयं करवा रहे हैं। ये अपने आप में वाकई नायाब तरीके के जमूरे हैं,जो खुद को संसद, न्यायपालिका से सर्वोच्च मानने की मदान्ध दम्भ में डूबे हुए नजर आते हैं। ये किसानों के नाम पर रुदाली पाखण्ड रचकर देश से ऊपर हो जाएँगे? क्या ये तथाकथित इतने बड़े हैं कि ये संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को चोट खुलेआम पहुँचाते रहेंगे? और देश इन्हें बर्दाश्त करता रहा आएगा?
आश्चर्य की बात है कि ये आज तक कृषि कानूनों में कमी नहीं बता पाए कि उसमें सुधार किया जा सके। ये कह रहे हैं कि कानून वापस लिए जाएँ । मतलब क्या ये संसद और न्यायपालिका से बढ़कर हैं?जहाँ ये भीड़ इकठ्ठी कर संवैधानिक नियमानुसार पारित कानून को रद्द करने की सनक दिखाएँगे ।जैसे देश के सभी किसानों के यही ठेकेदार हों? हालाँकि इनका परेशान होना,कांग्रेसी और वामपंथी रणनीति का हिस्सा और आढ़तियों की दलाली बन्द होना है। क्योंकि जब किसान खुशहाल होंगे तो इनकी स्वार्थी राजनीति और ब्लैकमेलिंग का धन्धा चौपट हो जाएगा। साथ ही इनके प्रश्रयदाताओं की राजनीतिक साँस जो टूट रही है,वह पूर्णतया बन्द हो जाएगी। यह सब उसी के लिए है। यह भी सब बढ़िया है।
इनसे सवाल पूँछा जाए गणतन्त्र दिवस के दिन राष्ट्रीय धरोहरों, प्रतीकों का अपमान करने वाले आतंकवादियों ने जो किया ।उसके असली अपराधी कौन हैं?क्या उसे आसानी से भुलाया जा सकता है? इन सभी ने जिस प्रकार से राष्ट्र की अस्मिता को चुनौती दी है और सम्प्रभुता को खण्डित करने के लिए ‘टूलकिट गैंग’,मानवाधिकार के नाम पर तमाशेबाजी की है।देश के आन्तरिक मामलों में विदेशी शक्तियों की मदद लेकर राष्ट्र की छवि को नकारात्मक दिखलाने के कृत्य क्या क्षमा योग्य हैं ? इन सबका हिसाब और जवाब तो इनसे देश माँगेगा ही। किसान अपने खेतों में हैं तथा वे इन पाखण्डियों के चेहरे के मुखौटों को उतार कर इनका असली चेहरा देख चुके हैं। उपद्रवियों ने जिस प्रकार से किसानों के नाम पर अपना स्वार्थी प्रपंच रचकर खेल खेला है,उसे सारा देश अच्छी तरह से समझ चुका है। अब वे दिन लद गए हैं,जब किसानों के नाम पर या झूठी लफ्फाज़ी करके किसानों को अपने राजनैतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल आसानी से कर लिया जाता था।
प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर अपने राष्ट्र के कृषकों के साथ सहानुभूति है,लेकिन इन तथाकथित किसान नेताओं ने जिस प्रकार से किसान को राजनैतिक गलियारे में अपने स्वार्थ का मोहरा बनाकर घसीटा है।उससे किसानों की अन्तरात्मा खुद को ठगा और आहत महसूस कर रही है। आखिर! कोई कैसे अपने तिरंगे का अपमान सहन कर ले? लाल किले का ताण्डव, पुलिस बलों के साथ मारपीट, हथियारों की प्रदर्शनी से भयक्रांत करने वाले कौन थे?इसका जवाब कौन देगा? राकेश टिकैत हों या अन्य,राष्ट्रीय अस्मिता से खिलवाड़ करने के लिए इनकी जिम्मेदारी तो तय होनी ही चाहिए। क्योंकि क्या भीड़ इकठ्ठी करके देश की सम्प्रभुता ,अस्मिता से खिलवाड़ करने की छूट दी जा सकती है? चाहे वे राकेश टिकैत हों या कोई और यदि उन्हें राजनीति करनी है तो मुख्य भूमिका के साथ राजनीतिक वार-पलटवार, सियासी बिसात बिछाएँ। लेकिन किसानों की ओट लेकर राजनैतिक स्वार्थ सिध्द करना पाप ही नहीं बल्कि महापाप है।