न खाता न बही, जो राहुल कहें वही सही, जानिए क्यों कांग्रेस में नहीं तय हो पा रहा कि ‘परिवार’ बचाया जाए या ‘पार्टी’

प्रशांत मिश्र

सुदृढ़ और उर्जावान नेतृत्व की कमी, खेमेबाजी और क्षमता की बजाय चाटुकारिता को मिल रहे प्रश्रय से जूझ रही कांग्रेस की हालत कुछ ऐसी हो गई है एक दीवार को संभालने की कोशिश होती है तो दूसरी भरभराने लगती है। सोमवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भी यही दिखा। पार्टी के अंदर यही तय नहीं हो पा रहा है कि परिवार बचाया जाए या पार्टी। या यूं कहा जाए कि अब तक पार्टी नेता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि परिवार और पार्टी अलग अलग है और नेता कार्यकर्ता पार्टी के लिए हैं, परिवार के लिए नहीं?

बताते हैं कि सोमवार की बैठक मे राहुल गांधी ने वरिष्ठ नेताओं का जिस तरह अपमान किया वह यही जताता है कि राहुल का भी परम विश्वास है कि परिवार ही पार्टी है। हालांकि तत्काल इसकी लीपापोती भी हो गई और कहा जाने लगा कि राहुल ने ऐसा कुछ कहा ही नहीं। जो लोग पार्टी और राहुल के तौर तरीके व कामकाज से परेशान हैं वह भी मान गए कि राहुल ने ऐसा कुछ नहीं कहा। दरअसल उन्हें आशंका है कि परिवार नाराज हुआ तो पार्टी कैसे चलेगी। अध्यक्ष का चुनाव हो भी जाए तो आशीर्वाद तो चाहिए ही।

भाजपा से साठगांठ का आरोप

जमाना सर्वे का है और इसीलिए मेरा विश्वास है कि आज जनता के बीच सर्वे हो जाए कि राहुल गांधी ने भरी बैठक में वरिष्ठ नेताओं पर भाजपा से साठगांठ का आरोप लगाया या नहीं तो अधिकतर लोग हां में जवाब देंगे। जो भी राहुल को फॉलो करते हैं वह इसे सहज समझ सकते हैं। क्या राहुल गांधी ने संप्रग (यूपीए) काल में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुए कैबिनेट फैसले की कापी को सार्वजनिक रूप से नहीं फाड़ा था?

क्या राहुल गांधी के समर्थक पिछली कई बैठकों में पार्टी 30-40 साल से सेवा कर रहे नेताओं को नीचा दिखाने की कोशिश नहीं की थी? यह सबकुछ जनता ने देखा और सुना है। दरअसल राहुल गांधी रौ में काम करते हैं। जिस तरह दो दर्जन नेताओं ने पहली बार खुलकर मोर्चा खोला है और निशाने पर परोक्ष रूप से राहुल ही हैं उसमें यह सहज माना जा सकता है कि उन्होंने ऐसी बातें की होंगी। यही कारण है कि हर बात पर ट्वीट करने वाले राहुल ने इतने विवादों के बाद भी ट्वीट नहीं किया।

आधार खोती जा रही है पार्टी

अब बात हो रही है कि अगले कुछ महीनों में नया अध्यक्ष चुन लिया जाएगा। लेकिन जिस तरह कांग्रेस नेता शरणागत हैं उसमें क्या यह माना जा सकता है कि गांधी परिवार की इच्छा और आशीर्वाद के बगैर कोई सफल हो सकता है। पिछले एक साल से ज्यादा वक्त से राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष नहीं है। पार्टी में उन्हें कोई जिम्मेदारी नहीं है लेकिन जो लाइन वह खींच दें वही पार्टी की लाइन। यह क्या बताता है। यह हर किसी को पता है कि वरिष्ठ नेता और बहुत सारे युवा नेता भी इस सनक से परेशान हैं। वह दबे छुपे रोना भी रोते हैं कि पार्टी आधार खोती जा रही है लेकिन रोके कौन। ऐसे में जो भी आशीर्वाद के साथ पद पाएगा वह उसी राह चलेगा। वरना ऐसा क्यों होता कि आज भी पार्टी में बड़ी संख्या में लोग सोनिया या राहुल को ही अध्यक्ष बनाए रखने की मांग करते। परिवार के संरक्षण में पार्टी चलाना शायद कांग्रेस की मजबूरी है।

लेकिन यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि कांग्रेस में एक वक्त सीताराम केसरी अद्यक्ष हुआ करते थे। उनके समय में भी ऐसी ही था- न खाता न बही, जो केसरिया कहे वही सही। उन्हें बाहर का रास्ता दिखाकर ही सोनिया गांधी का प्रवेश हुआ था। अगर रुख वही होगा तो परेशानी बढ़नी ही है। आज सवाल उठ रहे हैं, कल विद्रोह की स्थिति हो सकती है।

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