इस्लामी आक्रांताओं की पोल खुली, सेक्युलर भी बोले ‘जय श्री राम’: राम मंदिर से ऐसे बदली भारत की राजनीतिक-सामाजिक संरचना

अनुपम कुमार सिंह

अयोध्या के राम मंदिर विवाद में जब सुप्रीम कोर्ट ने नियमित सुनवाई शुरू की, क्या उससे पहले किसी को उम्मीद भी थी कि अयोध्या में जन्मे भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर का निर्माण उनके जीते जी होगा? शायद नहीं। जिस तरह से बाबरी विध्वंस को मुद्दा बनाया गया था और इसे ऐसे पेश किया गया था कि जैसे वो अनंतकाल से वहाँ खड़ा रहा हो। जबकि सच्चाई ये थी कि उसे इस्लामी आक्रांताओं ने राम मंदिर को ध्वस्त कर के बनवाया था।

इसीलिए, जब 5 अगस्त, 2020 को अयोध्या में राम मंदिर का भूमिपूजन हुआ तो कई लोगों को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। इसीलिए नहीं हुआ, क्योंकि पिछली सरकार ने भगवान राम के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया था। उस सरकार के साझीदार पूछते थे कि भगवान राम ने किस इंजीनियरिंग कॉलेज से डिग्री ली थी? सुप्रीम कोर्ट में अर्जी देकर भगवान राम के अस्तित्व पर सवाल उठाए गए थे।

भाजपा के घोषणापत्र में राम मंदिर आज से नहीं, 90 के दशक से ही था। लेकिन, अटल बिहारी वाजपेयी की गठबंधन सरकार के दौरान इसका निर्माण संभव नहीं हो सका। भाजपा को इसे कई कारणों से कुछ दिन तक किनारे रखना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट में जब के पराशरण ने दलीलें शुरू की तो लोगों के भीतर एक आस जगी। केंद्र सरकार के पास भी इच्छाशक्ति थी, इसीलिए फैसला आते ही ट्रस्ट का गठन किया था।

राम मंदिर का निर्माण देश के राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्य में एक बहुत बड़ी घटना है। ये 500 वर्ष पहले जो घोर अन्याय हुआ था, उसका न्याय था। इसे लेकर कई बार दंगे हुए, आंदोलन हुए और समय-समय पर अलग-अलग नायक उभरे, लेकिन इस्लामी आक्रांताओं के शासनकाल में और मुस्लिम तुष्टिकरण वाली कॉन्ग्रेस सरकारों में ये संभव नहीं हो सका। आइए, यहाँ हम राम मंदिर के बाद बदले भारतीय परिदृश्य की बात करते हैं।

भारत के समाज एवं राजनीति पर राम मंदिर का प्रभाव

राम मंदिर का निर्माण शुरू होने का प्रभाव ये हुए कि देश के सभी नेताओं को समझ आ गया कि लोगों की श्रद्धा को किनारे रख कर राजनीति नहीं की जा सकती। अब उन्होंने भी भगवान राम की शरण में आने का दिखावा शुरू कर दिया, राजनीति के लिए। एक नई प्रतिस्पर्धा चल पड़ी, जिसमें सब ‘अपने-अपने राम’ लेकर आ गए। खुद को रामभक्त साबित करने की एक होड़ सी मच गई। ये राम मंदिर के प्रति जनता की श्रद्धा का कमाल था।

जिस मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाई थी और कई रामभक्तों को मार डाला गया था, अब उनकी ही पार्टी भगवान राम की शरण में आ गई है। राम मंदिर भूमिपूजन के समय अखिलेश यादव की प्रतिक्रिया देखिए। उन्होंने बड़ा ही धार्मिक होते हुए ‘जय महादेव जय सिया-राम, जय राधे-कृष्ण जय हनुमान’ लिखते हुए ट्वीट किया। किसी ‘सेक्युलर’ नेता इस तरह बयान देगा, ये शायद ही किसी ने सोचा होगा।

जिस देश में इस्लामी टोपी पहन कर नमाज के लिए हाथ फैलाना और इफ्तार की दावत उड़ाना ‘कूल’ माना जाता था, वहाँ ‘मौलाना मुलायम’ के बेटे जब वर्तमान व भविष्य की पीढ़ियों को मर्यादा पुरुषोत्तम के दिखाए राह पर चलने की बात करें, तो बदलाव दिख जाती है। आप दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की ही प्रतिक्रिया देख लीजिए। सर्जिकल स्ट्राइक तक के सबूत माँगने वाला अचानक से हिन्दू हो जाए तो बदलाव नजर आता ही है।

अरविंद केजरीवाल ने भूमिपूजन के लिए देश को बधाई देते हुए ‘जय श्री राम! जय बजरंग बली!’ लिख कर ट्वीट किया और लिखा कि भगवान राम का आशीर्वाद हम पर बना रहे। जो लोग बाबरी विध्वंस को केवल याद करते थे और राम मंदिर के पक्ष में भी बोलने से बचते थे, वो भी भूमिपूजन की खुल कर बधाई देने लगे। जबकि भूमिपूजन कार्यक्रम में RSS प्रमुख मोहन भागवत ने भी हिस्सा लिया था। वही संघ, जिसके विरोध पर भारत के दर्जनों राजनीतिक दलों की राजनीति टिकी है।

जो ‘सेक्युलर गिरोह’ अब तक ‘जय श्री राम’ को ‘वॉर क्राई’ बताता रहा है, अगर उसी गिरोह के नेता यही लिख कर भूमिपूजन की बधाई दें तो भारत की राजनीति में बदलाव दिखने लगता है। 9 नवंबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट का राम मंदिर के पक्ष में फैसला आया, 12 दिसंबर को इसके खिलाफ दायर समीक्षा याचिकाएँ खारिज की गईं और 5 फरवरी को भारत सरकार ने ‘श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र’ ट्रस्ट के गठन का ऐलान कर दिया।

जिस कॉन्ग्रेस के नेता केरल में बीच सड़क पर बछड़ा काटते हैं, उसी कॉन्ग्रेस की प्रियंका गाँधी जब ‘गऊ प्रेमी’ बन जाती हैं तो इसे राम मंदिर निर्माण शुरू होने के बाद हुआ बदलाव कहेंगे। दलितों की पार्टी कही जाने वाली बसपा जब अयोध्या से सम्मलेन की शुरुआत करती है और राम-राम जपती है, तो इसे बदलाव माना ही जाएगा। कॉन्ग्रेस-केजरी-ठाकरे जमात भक्त बन गए, लेकिन यही लोग पहले ‘तारीख़ नहीं बताएँगे’ वाला तंज कसते थे।

अब बात करते हैं सामाजिक बदलाव की। राम मंदिर का फैसला आने के 3 महीने बाद ही कोरोना का प्रकोप शुरू हो गया। ऐसे महामारी के समय में पूरे भारत से माँग उठी कि दूरदर्शन पर रामानंद सागर की ‘रामायण’ सीरियल चलाई जाए। आपदा के बीच इसे जिस तरह की प्रतिक्रिया मिली, उससे भारतीय जनमानस में हुए बदलाव का पता चलता है। भगवान राम में आस्था सब की पहले से थी, बस वो राम मंदिर पर फैसला आने के बाद और जाग्रत हो गई।

बॉलीवुड फिल्मों और सास-बहू की टीवी सीरियल वाले देश में 3 दशक पुराने ‘रामायण’ का ये प्रभाव बताता है कि किस तरह देश ने भगवान राम में अपनी आस्था को पुनर्जीवित किया। सोशल मीडिया पर राम व रामायण को लेकर वाद-विवाद शुरू हुआ। कोठरी बंधुओं जैसे राम मंदिर के लिए खुद को बलिदान करने वाले आम लोगों का सम्मान शुरू हुआ। मंदिर निर्माण के लिए जिस तरह से 1100 करोड़ रुपए से भी अधिक का चंदा लोगों ने दिया, उससे पता चला कि भारत के लोगों के लिए श्रीराम क्या हैं।

राम मंदिर निर्माण से ध्वस्त हुआ इस्लामी/वामपंथी प्रोपेगंडा

आइए, एक बार फिर से इतिहास देख लेते हैं। ‘हिन्दू पुनर्जागरण’ के इस समय में वामपंथी और इस्लामी ताकतों को सबसे बड़ा डर इसी बात का तो है कि कहीं हमें हमारा सही इतिहास न पता चल जाए। ‘रामकोट’ के पहाड़ में था बाबरी मस्जिद? इस बात का कोई सेन्स है? इससे पहले इसे ‘मस्जिद-ए-जन्मस्थान’ कहते थे? क्यों? किसका जन्म हुआ था यहाँ? 1528-29 में इसे बाबर की याद में उसके सरदार मीर बाकी ने बनवाया था।

‘रामकोट’ और ‘जन्मस्थान’ – इन दोनों नामों से ही स्पष्ट है कि यहाँ पहले हिन्दुओं का तीर्थस्थल था। अब देखिए, वामपंथियों का ये कुचक्र था कि वो हमें जीवन भर राम मंदिर विवाद में ही अटका कर रखें। अर्थात, वो कभी नहीं चाहते थे कि हम उन 30,000 मंदिरों की बात करें, जिन्हें इस्लामिक आक्रांताओं ने ध्वस्त किया और उनके ऊपर मस्जिदें खड़ी कर दीं। आज मथुरा-काशी के अलावा उन मंदिरों की भी बात होती है।

आज के भारत में अकबर पूजनीय नहीं है। हमें पता है कि मुग़ल आक्रांता थे और हम ये खुल कर बोलते हैं। इस्लामी कट्टरपंथियों और वामपंथियों ने यही तो प्रोपेगंडा का जाल बुना था कि हम आक्रांताओं को ‘अपना’ मानने लगें। उनके हर कुकृत्य को अच्छा बता कर पेश किया गया। हम तारीफ करते रहें कि वाह बाबरी मस्जिद की कला फलाँ किस्म की है, इसकी संरचना फलाँ तरह की है। लेकिन, अब ऐसा नहीं हो रहा।

हमें इतिहास की पुस्तकों में यही सब तो पढ़ाया गया है। लेकिन, आज जब RTI से पता चलता है कि NCERT के पास ऐसा कोई स्रोत ही नहीं है जो ये बता सके कि कुतुबमीनार का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक ने करवाया था, तो विद्यार्थी छला हुआ महसूस करते हैं। अतिक्रमण कर के और खून बहा कर बनाई गई हर एक इस्लामी संरचना पर बात होती है। यही तो है वामपंथी प्रोपेगंडा का ध्वस्त होना।

राम मंदिर से एक जमात की घृणा रह-रह कर सामने आती है

क्या कोई किसान भगवान राम का विरोधी हो सकता है? ‘राम राज्य’ में तो किसान आत्मनिर्भर होते थे और गाँवों में समृद्धि होती थी। आज के ‘किसान आंदोलन’ में अगर भगवान श्रीराम का विरोध हो तो पता चल जाता है कि ये देश व हिन्दू विरोधी तत्वों का आंदोलन है। ताज़ा उदाहरण देखिए। इस साल गणतंत्र दिवस पर उत्तर प्रदेश की ओर से आए भव्य राम मंदिर के मॉडल को प्रथम पुरस्कार के लिए चुना गया था।

गणतंत्र दिवस के मौके पर ‘किसान’ दंगाइयों ने तिरंगा के अपमान के साथ ही राम मंदिर को निशाना बनाते हुए राम मंदिर की झाँकी के कुछ हिस्सों को तोड़ दिया। दंगाइयों ने अयोध्या श्रीराम मंदिर की झाँकी के लिए बनाए गए राम मंदिर के गुम्बद को निशाना बनाकर उसे तोड़ डाला। ये घृणा कहाँ से आती है? क्या आपको पता है कि दिल्ली में हुए हिन्दू विरोधी दंगों में भी राम मंदिर के प्रति घृणा एक कारण थी?

राम मंदिर निर्माण में रामजन्मभूमि के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अल्पसंख्यकों को वर्तमान सरकार के खिलाफ भड़काने का प्रयास किया गया। उन्हें बड़ी संख्या में इकट्ठा करने का प्रयास किया गया ताकि उनका इस्तेमाल सांप्रदायिक दंगों को अंजाम देने के लिए किया जा सके। खुद दिल्ली पुलिस ने अपनी चार्जशीट में ये जानकारी दी थी। राम मंदिर का नाम लेकर मुस्लिमों को भड़काया गया और हिन्दुओं का कत्लेआम हुआ।

पूर्व छात्र नेता शरजील इमाम और AAP के पार्षद रहे ताहिर हुसैन जैसों ने जो पर्चे बँटवाए, उसमें राम मंदिर का जिक्र था। आप एक और बात पर गौर कीजिए। राम मंदिर का फैसला आने के बाद उसी गिरोह ने देश की सर्वोच्च न्यायालय को सबसे ज्यादा बदनाम करने की कोशिश की, जो न्यायपालिका की सौगंध खाते नहीं थकते थे। तत्कालीन CJI रंजन गोगोई पर छींटाकशी हुई। सुप्रीम कोर्ट को केंद्र सरकार के दबाव में बनाया गया।

और यही लोग संविधान की कसमें खाते नहीं थकते। कॉन्ग्रेस के मुखपत्र में काम करने वाली संजुक्ता बासु का बयान देख लीजिए। फैसला आने के बाद उन्होंने खुद को हिन्दू बताते हुए कहा था कि उन्हें अयोध्या में सिर्फ और सिर्फ मस्जिद चाहिए। उन्होंने खुद के शर्म आने की बात कही थी। खेद भी जताया था। वो दुःखी भी थीं। राम मंदिर पर फैसले ने लिबरल गिरोह को सुप्रीम कोर्ट का भी विरोधी बना दिया।

जमीयत उलेमा-ए-हिंद, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और एआईएमआईएम जैसे संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की। शायर मुनव्वर राना ने दावा कर डाला कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगोई ने अपने फैसले में लिखा कि कोई साक्ष्य नहीं मिला है कि वहाँ मंदिर तोड़कर मस्ज‍िद बनाई गई। उनकी बेटी सुमैया ने राम मंदिर परिसर में ही मस्जिद की माँग कर दी। सीपीआई की पोलित ब्यूरो की सदस्य सुभाषिनी अली ने राम मंदिर की जगह प्राचीन काल में बौद्ध विहार होने की बात कह दी।

गिरोध विशेष के ऐसे 40 लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डाली, जिनका मूल मुक़दमे से कोई लेनादेना ही नहीं था। इसमें इरफ़ान हबीब, शबनम हाशमी, अपूर्वानंद झा, नंदिनी सुंदर और हर्ष मंदर जैसे लोग शामिल थे। JNU में भी राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध हुआ। अब अयोध्या में बनने वाला यही मंदिर भारत का प्रतीक बनेगा। हमारी पहचान बनेगा। हमारी संस्कृति की झलक प्रस्तुत करेगा।

(सभर……..)