लखनऊ। उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव (Up assembly election) के लिए राजनीतिक बिसात बिछाई जाने लगी है. सूबे में योगी सरकार (Yogi govt) से मुकाबला करने के लिए प्रमुख विपक्ष दलों के बीच न तो किसी तरह का कोई सियासी तालमेल है और न ही कोई गठबंधन है. ऐसे में खुद को एक दूसरे से बीस साबित करने की होड़ मची है. सपा, बसपा (SP-BSP) और कांग्रेस (Congress) तीनों ही दल एक दूसरे के कोर वोटबैंक को साधने में जुटे हैं. इस तरह से यूपी के तीनों प्रमुख विपक्षी दल वोट ट्राइएंगल पर फंसे हुए हैं. ऐसे में देखना है कि इस शह-मात के खेल में कौन बाजी मारता है.
‘दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है’ की कहावत को आत्मसात करते हुए सपा अध्यक्ष अखिलेश इस बार किसी बड़े दल को साथ लेने के बजाय छोटे दलों के साथ गठबंधन करने के फॉर्मूले पर काम कर रहे हैं. अखिलेश सत्ता में वापसी के लिए हरसंभव कोशिशों में जुटे हुए हैं. ऐसे में उनकी नजर बसपा के अंसतुष्ट नेताओं को जोड़ने के साथ-साथ मायावती के कोर वोटबैंक दलित समुदाय पर भी है, जिसके सहारे अपनी चुनावी वैतरिणी पार लगाना चाहते है.
मायावती के साथ गठबंधन टूटने के बाद से ही अखिलेश यादव सूबे में दलित वोटों को अपने पाले में लाने की कोशिशों में जुटे हुए हैं. अखिलेश ने पहले बसपा के तमाम दलित नेताओं को अपने साथ मिलाया, खासकर जिन्होंने कांशीराम के साथ बीएसपी को खड़ा करने में अहम भूमिका दी और उनका अपने क्षेत्र में अपना सियासी कद है. इसमें इंद्रजीत सरोज से लेकर आरके चौधरी सहित करीब दो दर्जन नेता हैं.
बाबा साहेब वाहिनी का गठन कर रही सपा
बसपा को कोर वोटबैंक दलित समुदाय को साधने के लिए अखिलेश यादव बसपा के महापुरुषों को भी अपना रहे हैं. सपा ने 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती पर ‘दलित दिवाली’ मनाया. इतना ही नहीं समाजवादी पार्टी लोहिया वाहिनी के तर्ज पर ‘बाबा साहेब वाहिनी’ बना रहे हैं. इतना ही नहीं अब सपा के हर पोस्टरों में लोहिया, मुलायम सिंह के साथ डॉ. अंबेडकर की तस्वीर लगाई जा रही है ताकि दलितों के दिल में जगह बनाई जा सके.
दरअसल 2012-2017 के विधानसभा चुनाव और 2014-2019 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी के हुए बुरे हाल के बाद यह माना जा रहा है कि मायावती का दलित वोटबैंक से एकाधिकार खत्म हो चुका है. यूपी में करीब 22 फीसदी दलित मतदाता है, जिनमें करीब 12 फीसदी गैर-जाटव वोट हैं. जाटव वोट बसपा का हार्डकोर वोटर माना जाता है, जिस पर भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद की नजर पहले से है.
गैर-जाटव दलित समुदाय में करीब 50-60 जातियां और उप-जातियां हैं और इसी वोट को अखिलेश अपने साथ जोड़ने की दिशा में लगे हुए हैं ताकि 2022 के चुनाव में यादव-मुस्लिम के साथ दलित समीकरण बना सकें. यूपी में 11 फीसदी यादव और 20 प्रतिशत मुस्लिम के साथ अगर पांच फीसदी दलित जुड़ जाता है तो सत्ता में वापसी की उम्मीद बनती नजर आती है.
प्रियंका गांधी की नजर अखिलेश के वोटों पर
उत्तर प्रदेश में तीन दशक के सत्ता का वनवास झेल रही कांग्रेस को सूबे में दोबारा से खड़ा करने की जिम्मदेरी प्रियंका गांधी वाड्रा के कंधों पर है. कांग्रेस की नजर सपा के मुस्लिम और बसपा के दलित कोर वोटबैंक पर है. कांग्रेस ने प्रदेश की कमान अति पिछड़ा समुदाय से आने वाले अजय कुमार लल्लू को दी है, जो लगातार दलित और अल्पसंख्यक मुद्दों पर योगी सरकार को घेर रहे हैं. इसके अलावा कांग्रेस का यूपी अल्पसंख्यक संगठन सूबे के मुसलमानों को साधने के लिए तमाम तरह के जतन कर रहे हैं.
यूपी में करीब 20 फीसदी मुस्लिम मतदाता है, जो एक समय कांग्रेस का परंपरागत वोटर रहा है. 1990 के बाद मुस्लिम वोटों की पहली पसंद सपा और दूसरी बसपा बन गई है. कांग्रेस अब यूपी में दोबारा से मुस्लिम वोटों को जोड़ने की मुहिम पर जुटी है, जिसके लिए यूपी अल्पसंख्यक मोर्चा मुस्लिम उलेमाओं-इमामों से लेकर मदरसों और मुसलमानों के तमाम जातियों के साथ अलग-अलग वार्ता कर रहे हैं और उन्हें यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि सपा ने सिर्फ तुम्हारे वोटों के सहारे सत्ता हासिल की है और विकास यादव समाज का किया है.
कांग्रेस दलित-मुस्लिम को साधने में जुटी
कांग्रेस यह भी बताने की कोशिश की जा रही है कि यादवों का बड़ा तबका अब बीजेपी के साथ है. कांग्रेस नेता यह भी मुसलमानों को समझा रहे हैं, सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर अखिलेश यादव चुप थे जबकि प्रियंका गांधी और कांग्रेस पार्टी खुलकर आंदोलन के साथ खड़ी रही है. कांग्रेस इस चुनाव में मुसलमानों को बड़ी संख्या में टिकट देने और उनके मुद्दों को अपने घोषणा पत्र में जगह देने का भी भरोसा दिला रही है.
कांग्रेस की नजर बसपा के दलित वोटों पर भी है. दलित मुद्दों को कांग्रेस और प्रियंका गांधी आक्रमक तरीके से उठा रही हैं. सोनभद्र नरसंहार से लेकर हाथरस और आजमगढ़ सहित तमाम दलित समुदाय के मामलों में प्रियंका गांधी आक्रामक रहीं और घटनास्थल पर पहुंचकर योगी सरकार को घेरने का काम किया है. इतना ही नहीं कांग्रेस और प्रियंका गांधी भी आरोप लगा चुके हैं कि मायावती विपक्ष के तौर पर नहीं बल्कि बीजेपी के प्रवक्ता के तौर पर काम कर रही हैं. दलित वोटों को साधने के लिए कांग्रेस ने हरियाणा के प्रदीप नरवाल और महाराष्ट्र सरकार में मंत्री नितिन राउत को लगाया है. यह दोनों ही दलित समाज से आते हैं.
मायावती की नजर अखिलेश के वोटों पर
उत्तर प्रदेश की सियासत में 2012 के बाद से मायावती की पार्टी बसपा का ग्राफ नीचे गिरना शुरू हुआ और 2017 में सबसे निराशाजनक प्रदर्शन रहा है. लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव में 10 सीटें जीतकर बीएसपी दूसरे नंबर पर रही है. वहीं, 2022 के चुनाव के लिए मायावती ने लखनऊ में डेरा जमा रखा है और उनकी नजर सपा के ओबीसी वोटर पर है. बसपा ने अपने सेक्टर प्रभारियों को साफ निर्देश दिए हैं कि ओबीसी समुदाय के कैंडिडेट की तलाश करें और हर जिले में कम से कम दो सीटों पर ओबीसी के नाम भेंजे. इसके अलावा पश्चिम यूपी में मुस्लिम को बड़ी संख्या में टिकट देने की रणनीति मायावती ने बनाई है. मायावती के निशानों पर इन दिनो बीजेपी और सीएम योगी आदित्यनाथ से ज्यादा सपा प्रमुख अखिलेश यादव और कांग्रेस है.