के विक्रम राव
रांची के न्यायिक मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी) द्वारा जमानत हेतु अपने आदेश (16 जुलाई) में कुरान को वितरित कराने वाली विचित्र शर्त जो रखी थी वह सर्वथा अमान्य है| इसे दण्ड संहिता के प्रावधान में स्वतः शामिल कर न्यायाधीश मूल संसदीय कानून से भी काफी ऊपर उठ गये| गनीमत है कि जज मनीष कुमार सिंह ने अपने इस फैसले को स्वयं निरस्त कर दिया| वर्ना कानूनी संकट उभर सकता था| सामाजिक तूफान उठ जाता|
अभियुक्त उन्नीस-वर्षीया छात्रा ऋचा भारती पर आरोप यह था कि उसने सोशल मीडिया ग्रुप में इस्लाम पर कथित रूप से अनुचित टिप्पणी प्रसारित की थी| भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153 के अनुसार ऐसे जुर्म पर तीन अथवा पांच साल की सजा अथवा जुर्माना या दोनों का प्रावधान है| मगर न्यायिक मजिस्ट्रेट ने अपने स्वविवेक का इस्तेमाल कर आरोपी को निर्दिष्ट किया कि वह स्थानीय अंजुमन को कुरान की कुछ प्रतियाँ पुलिस की उपस्थिति में दे| शायद प्रायश्चित में| रांची बार एसोसिएशन और पुलिस ने साफ बता दिया कि ऐसे आदेश का पालन संभव नहीं है| (लखनऊ इंडियन एक्सप्रेस, प्रथम पृष्ठ : 18 जुलाई|)
विवाद इतने मात्र से समाप्त नहीं हो जाता| मुद्दा है कि न्यायाधीश ने ऐसा आदेश जो कानून की सीमाओं के ऊपर और बाहर है को पारित ही क्यों किया? दस वर्ष पूर्व ऐसा आदेश शायद सहिष्णु हिन्दू अपने दब्बू स्वाभाव के कारण सेकुलरवाद के हित में मान भी लेता| मगर बदले हुए माहौल में, नये वातावरण में, मुस्लिम तुष्टिकरण वाले शासकीय दुराचार की बौद्धिक खिलाफत में अब ऐसा मजहबी भेदभाव गवारा नहीं हो सकता है| इसी मुकदमे में यदि आरोपी ऋचा भारती के बजाय कोई रुखसाना सुलताना नामवाली होती तथा उसने हिन्दू आस्था का सोशल मीडिया में मखौल उड़ाया होता तो? तब यदि न्यायिक मजिस्ट्रेट फैसला देते कि दण्ड स्वरुप “अपराधी रुखसाना बेगम” रामचरित मानस और गणेश प्रतिमा बांटे, तो ? मुसलमान दंगा करते| उनके कठमुल्ले फतवा जारी करते| न्यायाधीश का सर कलम करने वाले पर इनाम रखते| प्रियंका गाँधी अदालत में धरना देतीं| कांग्रेस पार्टी सेक्युलर मोर्चा बनाकर राष्ट्रव्यापी बवंडर उठा देती| मगर रांची के न्यायाधीश द्वारा समय पर सुधरा हुआ निर्णय लेने से स्थिति बिगड़ी नहीं| प्रतिष्ठित देवबंद दारुल उलूम से प्रगतिशील, सेक्युलर कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को बर्खास्त किया गया था, महज इसलिए कि एक स्कूली जलसे में उन्होंने छात्रों को गणेश की मूर्ति भेंट की थी| (जनसत्ता, 22 फ़रवरी 2011|)
ठीक ऐसी ही घटना रांची में हुई थी 1991 में| तब वहां के दैनिक “आज” के संपादक के विवेकहीन कार्य के परिणाम में बड़ी संख्या में मुसलमानों की लाशें गिर गयीं थी| भारतीय प्रेस काउंसिल की जाँच समिति के सदस्य होने के नाते रघुवीर सहाय (दिनमान संपादक) और मैं रांची गए थे| मसला था कि मीडिया ने अयोध्या काण्ड की रिपोर्टिंग में नियम कैसे तोड़े? दैनिक “आज” के संपादक से मैंने पूछा था कि : “अयोध्या के बवाल पर एक भ्रामक खबर आपने आठ कालम (बैनर) छापी| आपको पता था कि दूसरे ही दिन समीप की दरगाह पर एक संत का सालाना उर्स था, जहाँ हजारों मुसलमान जमा होते| आप अन्दर के पृष्ठ पर एक कालम में छोटी सी सूचना छापते| प्रथम पृष्ठ पर न प्रकाशित करते|” उनके हर बहाने को अस्वीकार कर हमने उनपर दंडात्मक कार्यवाही की सिफारिश की थी|
अतः यहाँ भी मेरा मानना है कि कुरान वितरित करने का आदेश देने वाले न्यायाधीश मनीष कुमार सिंह पर माननीय हाई कोर्ट कदम उठाये| नजीर बन जायेगी| वकीलों और पुलिस ने विभीषिका टलवा दी| वर्ना विस्फोट के लिये अदालत ने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी|
(ये लेखक के निजी विचार हैं)