अभिषेक उपाध्याय
साक्षी मिश्रा के मामले में तथाकथित खुले और आजाद विचार वाले लोगों की जमात कल से बार बार एक ही तर्क का परमाणु विस्फोट कर रही है उसे संविधान ने आजादी दी हुई है। वो जिसे चाहे चुने, आपको क्या? आप कौन होते हैं, सलाह देने वाले? या फिर ज्ञान देने वाले? कोई साक्षी किसी गंजेड़ी से शादी करे, आपको क्या? कोई साक्षी किसी शराबी से शादी करे आपको क्या? कोई साक्षी किसी अपराधी या गंजेडी को उलझाकर शादी करे, तो आपको क्या? उसके जाल में उलझकर शादी करे आपको क्या? कोई साक्षी प्रेमचंद के निर्मला उपन्यास की तरह के किसी खिजाब से बाल रंगे हुए बूढ़े से शादी कर ले तो क्या? या फिर किसी तलाकशुदा और दर चरित्रहीन बूढ़े को फंसाकर उससे शादी कर ले तो आपको क्या? कोई साक्षी श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी के शिवपालगंज के रहने वाले गंजे सनीचर से शादी कर ले आपको? आप होते कौन हैं? मने तरह तरह की बातें और हर बात के मूल में यही कि आपको क्या? आप कौन?
तो आज की पोस्ट घर के सोफासेट पर पांव पसारकर चाय की चुस्कियां लेते संविधान के इन्हीं महान विश्लेषकों के नाम समर्पित है-
** हां संविधान हम सबको चुनने की आज़ादी देता है पर संविधान ये कहीं नही कहता कि हम चुनते समय अपने विवेक को ऊनी कपड़े के होल्डाल में बांधकर अपने डबल बेड के भीतर डाल दें। संविधान में कहीं नही लिखा है कि हम अपनी अपनी बहनों के लिए रिश्ता तय करते समय किसी शराबी, किसी आवारा, किसी अपराधी या फिर किसी तलाक़शुदा चरित्रहीन बूढ़े से उसकी शादी न करें। पर हम विवेक का इस्तेमाल करते हैं। हम उनका ब्याह वहां करते हैं, जहां उनका भविष्य सुरक्षित होता है।
संविधान ने हमे जो मूल अधिकार दिए हैं उनकी स्थापना ही विवेक पर आधारित है। अगर इस विवेक का इस्तेमाल न होता तो आर्टिकल 32 के तहत दिए गए संवैधानिक उपचारों के मूल अधिकार को क्रियान्वित करने में पसीने छूट जाते क्योंकि हर व्यक्ति अपने मतलब के हिसाब से कानून और संविधान की व्याख्या करता है। फिर भी सुप्रीम कोर्ट के लिए संविधान की आत्मा सर्वोपरि होती है। ये संविधान की आत्मा क्या है? ये उसका विवेक ही है। वही विवेक जो हमारे घर की साक्षियों को किसी गंजेड़ी, किसी अपराधी, किसी चरित्रहीन तलाकशुदा बूढ़े से विवाह करने से रोकता है। अब जो फंस जाए, या फंसा ले, उसके लिए क्या कर सकते हैं हम? हम तो तब भी कुछ नही कर सके थे जब बीजगुप्त की गणिका चित्रलेखा पाप और पुण्य की खोज करती हुई चरित्रहीन कुमारगिरि के फंदे में फंस गई थी।
** संविधान में तो ये भी कहीं नही लिखा है कि आप अपनी मोटरसाइकिल चलाते समय सड़क के बीच मे आए गड्ढों से अपना बचाव करते रहेंगे। फिर भी आप विवेक का इस्तेमाल करते हैं। गड्ढे को बचाते हैं, सड़क पर मोटरसाइकिल चलाते हैं। अगर आप गड्ढे में भी मोटरसाइकिल कूदा देंगे तो संविधान को इससे क्या? संविधान आपका कुछ कर लेगा क्या? पर आपका विवेक आपको ऐसा करने से रोकता है!
** संविधान में तो ये भी कहीं नही लिखा है कि आप अपने बच्चों के बीच बैठकर शराब नही पी सकते या फिर सिगरेट नही सुलगा सकते मगर फिर भी आप उनके भविष्य का ख्याल करते हुए अपने विवेक का इस्तेमाल करते हैं और उन्हें ऐसी छायाओं से दूर रखते हैं। ये आपका विवेक ही है जो कदम कदम पर आपको सही च्वाइस की ओर खींचता है। आप प्रेम में भी होते हैं तो विवेक के सहारे। प्रेम के लिए किसी बलात्कारी को नही चुन लेते बल्कि कदम क़दम साथ निभाने वाले को चुनते हैं। यही तो विवेक है।
ये तो चंद उदाहरण हैं। यहां ऐसे उदाहरणों की भरमार है। मसला हर जगह विवेक का आ जाएगा। ऐसे तो कोई भी आवारा, कोई भी गंजेड़ी, कोई भी तलाक़शुदा चरित्रहीन बूढ़ा, उन प्रगतिशीलों के भी घर पहुंच जाएगा जो आज साक्षी मिश्रा के चुनने के अधिकार का डंका पीट रहे हैं। उनकी बेटियों से रिश्ता मांग बैठेगा। क्या वे अपनी बेटियों की मर्ज़ी होने पर भी पाप की ऐसी छायाओं को अपने घर का रिश्ता देने को तैयार होंगे? अगर नही तो साक्षी मिश्रा के मामले पर भी उन्हें ज्ञान देने का कोई हक नही है। कोई कटे उंगलियों वाला घोषित गंजेड़ी, कोई तमंचेबाज़, कोई चरित्रहीन तलाकशुदा बूढ़ा किसी भी समय की साक्षी का भविष्य नही हो सकता। बाकी जो फंसने-फंसाने के हिस्ट्रीशीटर हैं, उनकी बात मैं नही कर रहा।
(टीवी पत्रकार अभिषेक उपाध्याय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)