नई दिल्ली। सामान्य वर्ग को 10% आरक्षण की व्यवस्था को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया. मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस संजीव खन्ना की बेंच ने 10% आरक्षण पर रोक लगाने से इंकार कर दिया है. सवर्णों को नौकरियों में आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण देने के मामले में यूथ फॉर इक्विलिटी सहित अन्य याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर ये जवाब मांगा है. इस याचिका में संविधान संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. याचिका में कहा गया है कि ये संशोधन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है और आर्थिक आधार पर आरक्षण नही दिया जा सकता.
गैर सरकारी संगठन यूथ फॉर इक्वेलिटी और कौशल कांत मिश्रा ने याचिका में इस विधेयक को निरस्त करने का अनुरोध करते हुए कहा है कि एकमात्र आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता. याचिका में कहा गया है कि इस विधेयक से संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन होता है क्योंकि सिर्फ सामान्य वर्ग तक ही आर्थिक आधार पर आरक्षण सीमित नहीं किया जा सकता है और 50 फीसदी आरक्षण की सीमा लांघी नहीं जा सकती.
बता दें कि मोदी सरकार के मास्टर स्ट्रोक के रूप में देखे जा रहे सवर्ण आरक्षण बिल को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मंजूरी दे दी है. राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए. इसके साथ ही सरकारी नौकरियों और शैक्षाणिक संस्थानों में दस फीसदी आरक्षण का रास्ता साफ हो गया है. सरकार ने अधिसूचना जारी कर दी है. तीन राज्यों ने इसे लागू कर दिया है. जिनमें गुजरात, झारखंड और यूपी इसमें शामिल है.
जिन सवर्णों के पास अधिसूचित नगर पालिका क्षेत्र में 100 गज से कम का आवासीय प्लॉट है वे इस आरक्षण का लाभ उठा सकेंगे. इसके अलावा जिन सवर्णों के पास गैर अधिसूचित नगर पालिका क्षेत्र में 200 गज से कम का आवासीय प्लॉट है उन्हें इस आरक्षण का लाभ मिल सकेगा.
संविधान में सामाजिक असमानता है आरक्षण का आधार
दरअसल, संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक असमानता के आधार पर है. वहीं, मोदी सरकार का हालिया फैसला आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने का है. संविधान के अनुसार, आय और संपत्ति के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है. संविधान के अनुच्छेद 16(4) के अनुरूप आरक्षण का आधार केवल समाजिक असमानता ही हो सकती है. वर्तमान में पिछड़े वर्गों का कुल आरक्षण 49.5 फीसदी है. इसमें अनुसूचित जाति (एससी) को 15, अनुसूचित जनजाति (एसटी) 7.5 और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को 27 फीसदी आरक्षण मिलता है. वर्ष 1963 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरक्षण की सीमा को आमतौर पर 50 फीसदी से ज्यादा नहीं बढ़ाया जा सकता है.
वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के सभी फैसलों में कहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन है. आइए नजर डालते हैं न्यायपालिका द्वारा पूर्व में दिए गए उन फैसलों पर जब उसने आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के फैसलों पर रोक लगाई….
गुजरात हाईकोर्ट ने साल 2016 में गुजरात सरकार द्वारा आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण देने की घोषणा को असंवैधानिक घोषित किया था. गुजरात सरकार ने 6 लाख रुपये से कम वार्षिक आय वाले परिवारों को 10 फीसदी आरक्षण देने की बात की थी.
- राजस्थान हाईकोर्ट ने साल 2015 में राजस्थान सरकार द्वारा आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 14 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा को गैरकानूनी घोषित किया था.
- साल 1978 में बिहार सरकार ने भी आर्थिक आधार पर सवर्णों को तीन फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया था. इस फैसले को कोर्ट ने रद्द कर दिया था.
- साल 1991 में मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू होने के ठीक बाद पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने भी आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया था. इस फैसले को 1992 में कोर्ट ने रद्द दिया था.