मिजोरम : कैसे उत्तर-पूर्व में कांग्रेस का आखिरी किला ढहा और भाजपा ने अपनी राह बनाई

मिजोरम के ताजा विधानसभा चुनाव में जोरामथांगा की अगुवाई वाले मुख्य विपक्षी दल मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) की जीत पर किसी को हैरानी नहीं है, क्योंकि ज्यादातर एग्जिट पोल के मुताबिक भी इस पार्टी को सत्ताधारी कांग्रेस पर बढ़त मिल रही थी. हालांकि इस बात पर संदेह जताया जा रहा था कि पार्टी 40 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत यानी 21 सीटें हासिल कर पाएगी. लेकिन कल आए नतीजों के मुताबिक पार्टी ने यहां बहुमत से पांच ज्यादा यानी 26 सीटें जीती हैं और इस तरह वह मिजोरम में अगली सरकार बनाने जा रही है.

मिजोरम में सत्ताधारी कांग्रेस का किला कैसे ढह गया?

मिजोरम को 1987 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला था और इसी साल हुए पहले विधानसभा चुनाव में एमएनएफ ने ही सरकार बनाई थी. पूर्वोत्तर के इस राज्य में छोटे-मोटे क्षेत्रीय दल हमेशा से रहे हैं लेकिन मुख्य मुकाबला कांग्रेस और एमएनएफ के बीच ही होता रहा है. कांग्रेस की अगुवाई में 1993 में यहां वह पहली सरकार बनी थी जो पांच साल पूरे कर पाई. इसके बाद 1998 से 2008 तक लगातार दस साल एमएनएफ के हाथों में सत्ता रही. इस दौरान जोरमथांगा मुख्यमंत्री थे. वहीं 2008 से 2018 तक ललथनहॉला के नेतृत्व में यहां कांग्रेस सत्ता पर काबिज रही.

चूंकि अभी तक मिजोरम की जनता ने किसी भी पार्टी को तीसरा कार्यकाल नहीं दिया है, इस वजह से भी मुख्यमंत्री ललथनहॉला के नेतृत्व वाली सरकार की वापसी मुश्किल लग रही थी. हालांकि यहां दो मुद्दे ऐसे भी थे जिनके चलते सत्ता में कांग्रेस की वापसी की राह और मुश्किल हो गई.

करीब 87 प्रतिशत ईसाई आबादी वाले मिजोरम पर चर्च और ईसाई धार्मिक संगठनों का बहुत असर है. पूर्वोत्तर में यही एक राज्य है जहां शराबबंदी हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रहा है. यहां 1991 से शराबबंदी थी. लेकिन कांग्रेस सरकार ने 2015 में इसे खत्म कर दिया. एमएनएफ ने चुनाव में इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया था. उसने कहा था कि सरकार बनने पर वह शराबबंदी लागू करेगी. माना जा रहा है कि एक बड़ा धार्मिक तबका इस वादे से प्रभावित हुआ.

हालांकि शराबबंदी वह अकेला मसला नहीं है जिसने यहां एमएनएफ को बढ़त दिलाई. कांग्रेस सरकार के दौरान सड़कों की खस्ताहालत भी यहां एक बड़ा चुनावी मुद्दा था. अगर राजधानी आईजॉल को छोड़ दें तो मिजोरम का ज्यादातर इलाका ग्रामीण है जहां सड़कों की हालत बहुत ही खराब है. एमएनएफ ने इस मुद्दे को भी चुनावों में जमकर भुनाया. इसके अलावा रोजगार और विकास से जुड़े अन्य परंपरागत मुद्दे तो थे ही.

ये मुद्दे कांग्रेस के लिए कितने भारी पड़े, इस बात का अंदाजा इससे भी लगता है कि मुख्यमंत्री ललथनहॉला दो जगहों से चुनाव लड़ रहे थे और उन्हें दोनों सीटों पर हार का सामना करना पड़ा है. वहीं पिछले विधानसभा चुनाव में 34 सीटें जीतने वाली इस पार्टी के पास अब सिर्फ पांच या छह सीटें ही रहने जा रही हैं.

भाजपा के लिए मिजोरम का यह चुनाव ऐतिहासिक साबित हुआ है

उत्तर-पूर्वी भारत के आठ राज्यों में से सात में भाजपा या भाजपा समर्थित गठबंधन की सरकार है. जहां तक मिजोरम की बात है तो पार्टी 1998 से यहां लगातार विधानसभा चुनाव लड़ रही है. हालांकि अब तक उसे यहां एक भी सीट जीतने में कामयाबी नहीं मिल पाई थी. लेकिन ताजा विधानसभा चुनाव पार्टी के लिए इस मायने में ऐतिहासिक कहा जाएगा कि इसमें पहली बार उसके किसी उम्मीदवार को जीत मिली है. पार्टी ने इस बार यहां 35 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे और इनमें से तुईचॉन्ग सीट के उसके उम्मीदवार बुद्धा धन चकमा ने एमएनएफ के रसिक मोहन चकमा को 11 हजार से ज्यादा वोटों से हराया है. वहीं पिछले विधानसभा चुनाव में 0.4 प्रतिशत वोट हासिल करने वाली भाजपा को इस चुनाव में आठ प्रतिशत वोट मिले हैं.

यह भी पहली बार था कि भाजपा ने यहां चुनाव लड़ने में काफी जोर लगाया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और गृहमंत्री राजनाथ सिंह सहित पार्टी के उत्तर-पूर्वी राज्यों के कई नेताओं ने यहां चुनावी रैलियां की थीं.

भाजपा ने यहां चुनाव लड़ने की एक विशेष रणनीति भी अपनाई थी. पार्टी ने यहां अपना सारा ध्यान उन सीटों पर लगाया जहां चकमा, ब्रू या अन्य गैर-मिजो जनजातियों की बहुलता है. मिजो आबादी और इन जनजातियों के बीच एक लंबे अरसे से तनाव की स्थिति रही है. यही वजह है कि यहां भाजपा के लिए जगह बनाने की गुंजाइश थी और उसका एकमात्र उम्मीदवार ऐसी ही सीट से चुनाव जीता है.

एक और दिलचस्प बात यह है कि भाजपा ने उत्तर-पूर्वी राज्यों में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए 2016 में क्षेत्रीय पार्टियों के साथ मिलकर उत्तर-पूर्वी लोकतांत्रिक गठबंधन (नीडा) बनाया था और एमएनएफ नीडा में शामिल है. यह अलग बात है कि वह विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर नहीं लड़ी. हालांकि अब यह देखने वाली बात होगी कि भाजपा के एकमात्र विधायक को जोरामथांगा सरकार में कोई भूमिका मिलती है या नहीं. फिर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि भाजपा ने ‘उत्तर-पूर्वी भारत को कांग्रेस मुक्त’ कर दिया है.

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