श्रीराम चरित मानस की कुछ चौपाइयों पर सियासत की रोटी सेंकना कहां तक जायज़!
संघ प्रमुख मोहन भागवत के स्वप्न और विचारों को आत्मसात करने की जरूरत, उन्होंने जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए हाल ही में उठाई थी आवाज
राहुल कुमार गुप्ता
हाल ही में फिर श्री राम चरित मानस की कुछ चौपाइयों पर सवाल उठे हैं और यह सवाल जब कोई राज नेता उठाता है तो आमजन के द्वारा यह समझा जाता है कि अपनी राजनीति को धार देने के लिए उठाये जा रहे हैं। पर कारण कुछ और भी हो सकते हैं, अल्पज्ञान और उस विषय पर सही पकड़ न होना!
भाषा विज्ञान, व्याकरण और शब्दों के ज्ञान रखने वालों को श्रीराम चरित मानस पर गलतियां हरगिज़ नहीं दिखाई दे सकतीं क्योंकि आदर्शों से भरा यह महाकाव्य समाज को जोड़ने और सुधारनें की दिशा में सदैव से अग्रसर रहा है। यह नैतिकता की हिरण्यगर्भा है। अल्पज्ञान के चलते हर चीज में जो हमें पसंद नहीं है उनमें खामियां दिखना लाज़िमी है।
पहले एक दृष्टांत पर चर्चा कर समझने का प्रयास करते हैं फिर आगे बढ़ते है:- हाथी की महिमा (विशालकायता) के बारे में चार अंधे दोस्तों ने सुन रखा था। उन्हें हाथी की विशालकायता पर विश्वास नहीं जम रहा था। उन्होंने तय किया कि वो खुद प्रयोग कर बतायेंगे हाथी कैसा है? कुछ लोगों की मदद से उन अंधों ने अलग-अलग एंगल से हाथी को टटोल कर परखा। दो अंधे हाथी के अलग-अलग पैर पकड़े थे और एक ने पूंछ पकड़ रखी थी। एक सूंड़ के पास वाले सिरे के पास खड़े हो जैसे ही सूंड़ को हाथ से टटोला, दूर ठिठक कर खड़ा हो गया। अब आपस में गुफ्तगू शुरू होती है। जिसने पूंछ टटोला था उसके ज्ञान ने कहा हाथी रस्सी जैसा पतला है। दो ने कहा, हाथी मोटा खंभा जैसा होता है। जिसने सूंड़ डर के मारे छोड़ दी थी उसने कहा, कि हाथी किसी मोटे सांप जैसा है। आपस में निष्कर्ष ये निकाला गया की हाथी वास्तव में एक ऐसा मोटा सांप है जिसके दो मोटे पैर और एक पतली पूंछ है।
फिर इसी बात पर उनकी जानकार लोगों से वार्तालाप हुई तो वो जानकार लोगों की बातों से किनारा कर के अपने द्वारा गठित कल्पना को ही हाथी बताते रहे।
मतलब बेचारे अंधों को जितना ज्ञान था उन्होंने उतना बताने की कोशिश की इसमें उनका भी कोई दोष नहीं।
इस वाकया को बड़बोले नेताओं से जोड़कर भी देखा जा सकता है।
श्रीराम चरित मानस की इन दो चौपाइयों को लेकर ज्यादा विवाद सामने आता है:- यह सुंदर कांड की एक चौपाई है:-
“ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।
जब समुद्र सजीव रूप में आकर श्री राम से याचना करता है तब यह चौपाई आती है। क्षमा मांगने वाला व्यक्ति ये कभी नहीं कहता की हम मारने के अधिकारी या योग्य हैं। अधिकारी या योग्य शब्द भी सकारात्मकता को परिभाषित करता है। यहां तमाम संतजन उस शब्दों के कई अर्थों के कारण कई अर्थ निकालते हैं। ये सभी तारने के अधिकारी हैं, देखने (ताड़ना) के अधिकारी हैं। शिक्षित न होने के कारण विवेक की भी कभी है अतः हम सब क्षमा योग्य हैं।
हां! समुद्र ने यहां खुद को शूद्र की श्रेणी में रखकर क्षमायाचना की है। जबकि समुद्र श्रीराम के पूर्वज रहे। एक दूसरी चौपाई :- “पूजहिं विप्र सकल गुण हीना, शूद्र न पूजहिं वेद प्रवीना” को लेकर भी एक ग़लत भावना उपजती है।
शूद्र के विशेषण रूप में और अर्थ भी हैं जैसे निकृष्ट, संवेदनहीन आदि! अब संवेदनहीन व्यक्ति को कितने भी शास्त्र रट जायें, वह घातक ही हो सकता है।
तमाम उदाहरण हैं भी बहुत से हाई एजुकेटेड लोग भी अनीति के मार्ग पर चलते रहते हैं।
विप्र का एक अर्थ संवेदनशील से भी है जगत कल्याण से भी है, अगर ऐसे व्यक्ति के पास ज्ञान का भंडार नहीं है तो वो अनीति के मार्ग पर चलने वाले उन महाज्ञानियों की अपेक्षा पूज्य है।
जैसे रावण महाज्ञानी होते हुए, संवेदनहीन था, जगत कल्याण की भावना नहीं थी, अत: वो पूज्य नहीं हुआ। भले उसकी जाति ब्राह्मण थी लेकिन अर्थ जातिवाचक न लेकर विशेषण के रूप में लिया गया। और काव्य में विशेषण का प्रयोग ज्यादा प्रचलित है। इसी प्रकार जाति से शूद्र होते हुए वाल्मीकि विशेषण रूप में विप्र थे, जगत के कल्याण का भाव लिए संवेदनशील थे। अत: वो पूज्य हुए। सभी ने उनको पूजा।
इसी प्रकार संत रैदास, कबीर तो पूजे ही गये। ये धर्म ग्रंथों से देखने को मिला अब इतिहास की तरफ झांकते हैं।
भारत के कई हिस्सों में भी बहुत से शूद्र राजाओं और उनके वंशजों ने राज किया। जैसे मगध में नागवंशी, नंदवंश, मौर्यवंश और मौर्यवंश की स्थापना में ब्राह्मण कौटिल्य का ही हाथ था। तब छुआछूत नहीं मानी गई। शाक्यवंशीय राजकुमार तथागत गौतम बुद्ध जी को भी तब ब्राह्मण ने ही शिक्षा प्रदान की। विष्णु के दसवें अवतार के रूप में उन्हें आज भी पूजा जाता है। तमाम पिछड़ी जाति के राजा अंग्रेजी शासन के समय भी राज कर रहे थे, तब खुद को उच्च समझे जानेवाले उनके समर्थन में ही थे न कि विरोध में।
इस ऐतिहासिक काल में भी जब शूद्र जातिवाचक के रूप में है तब कोई समस्या नहीं। इसका विशेषण रूप इसको अलग ही अर्थ देता है।
हां! आज जो शूद्र और पिछड़ी जाति के रूप में हैं उन्हें कालांतर में (उत्तरवर्ती मुगल काल और अंग्रेजी शासन के बाद से) काफी अमानवीय स्थिति में रखा गया जो कि भारतीय इतिहास का एक न मिटने वाला कलंक है। लेकिन जब इसके पहले हम झांकते हैं तो स्थितियां ऐसी कदापि नहीं थीं। धर्म ग्रंथों में शूद्र जातिवाचक न होकर अधिकांशतः विशेषण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। हम इतिहास के उस कलंक को भुलाकर ही हम प्रेम, शांति, प्रगतिशील और सौहार्द पूर्ण समाज का निर्माण कर के इस धरा को पुनः खुशियों का संसार बना सकते हैं। लेकिन इसके लिए जाति के रूप में खुद को उच्च वर्ण समझने वालों को ही आगे होना होगा। क्योंकि कालांतर में (लगभग चार दशकों से) मिशनरी तरीके से एक बड़े समुदाय में इतना जहर भर दिया गया है कि उसे निकालने में काफी वक्त लगेगा।
इनमें यह जहर भरने का अप्रत्यक्ष कारण उच्च वर्ग का ही अमानवीय व्यवहार था। लेकिन यह लगातार कम होता जा रहा है।
यह जहर इन दिलों से निकालने के लिए दोनों तरफ के शुभ चाहने वाले विप्रों को इस नफरत की खाईं को पाटने के लिए एक साथ आना होगा।
कुछ दिनों पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी जाति परंपरा को पाटने की आवाज उठाई थी। यह हिंदू समाज ही है जो सर्वाधिक लोचदार है अपने अंदर बहुत सी रूढ़ियों को बाहर कर वो संकीर्णता की जंजीरों से बाहर निकल आकाश की ओर निहारता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है।
धर्म इंसान की सहूलियत के लिए बनाए गए तात्कालीन कानून थे समय के अनुसार उचित संशोधन सबमें जरूरी है।
एक बेहतर भारत के निर्माण के लिए सरकार और समाज को इस दिशा में भी प्रयास करना होगा। केवल आर्थिक अंधी दौड़ से भारत के पुनः विश्वगुरु बनने का सपना पूर्ण नहीं होगा।