के. विक्रम राव
सबकुछ ठीकठाक था, पंजाब तथा उत्तराखण्ड में। क्या सूझी, कैसे कौंधी, सोनिया गांधी को कि उथल—पुथल मचा दिया ? सुखमा झील से सटे चण्डीगढ़ में एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री (अमरेन्द्र सिंह) को उखाड़ दिया? गंगातट के निकट देहरादून (उत्तराखण्ड़) में एक बुजुर्ग पार्टी पुरोधा (हरीश रावत) के मुख्यमंत्री पद पर आरुढ होने में लंगड़ी लगा दी । पार्टी मुखिया जिस डाल पर बैठीं उसी पर कुल्हाड़ी मार दी? अचरज तो इसलिये होता है कि ”बुल फाइट” तो स्पेन का राष्ट्रीय खेल है। तो दो हजार किलोमीटर दूर भूमध्यसागर के उस पार इटली की ये सोनिया गांधी को यह कैसे भाया? लाल कपड़ा लहरा दिया? शायद इटली का राष्ट्रीय खेल फुटबाल महिला कम ही खेलती हैं। मगर उनके भारतीय ससुराल की प्रवृत्ति तो केकड़ावाली है।
पिछले वर्षों में वे भूल गयीं कि कितनी कठिनाई से कांग्रेस सरकार को पदच्युत करने की साजिश को नैनीताल हाईकोर्ट ने पलट दिया था। तब रावत सत्ता पर डटे रहे।
इन दलबदलू कांग्रेसी साजिशकर्ता नवरत्नों में थे पूर्व मुख्यमंत्री और महान पिता के आत्मज विजय बहुगुणा और हरख सिंह रावत, दोनों भाजपा तथा कांग्रेस को वेटिंग रुम बना चुके थे कि उन सबका आवागमन चलता रहा। आज राहुल गांधी की दिमागी उपज है कि इन घाघ (वर्तमान में) भाजपाई विधायकों को कांग्रेस में प्रवेश कराकर दो—तीन माह के बाद होने वाले आम चुनाव में पार्टी फिर बहुमत हासिल कर राज करें। मगर हरीश रावत को अपने इन पुराने धुर शत्रुओं से आशंका है। अर्थात् सोनिया की भांति हरीश लाल कपड़ा क्यों लहराये कि ”आ बैल मुझे मार ?” यूं कांग्रेस से रावत कई शत्रुओं को खदेड़ चुकें हैं। वे निष्ठावान कांग्रेसी हैं। इन तथ्यों को मां—बहन—भाई भूल जाते हैं। आदत रहीं कि उदीयमानों को गिरा दो।
सारांश यह है कि सोनिया गांधी अनमने ढंग से ही सही नरेन्द्र मोदी के हसीन सपने को साकार करने में जुटीं है : कांग्रेस—मुक्त भारत ! हालांकि नैनीताल हाईकोर्ट के आदेश पर (31 मार्च 2016) कांग्रेसी मुख्यमंत्री को पुनर्स्थापित कर दिया गया था। सोनिया वह पीड़ा भूल गयीं?
यूं भी उनकी 136—वर्षीय पुरानी पार्टी मानो पनडुब्बी आकारवाली ह्वेल (तिमिंगल) मछली की फितरत वाली बन गयी है जिसमें खुदकुशी की मनोवृत्ति बलवती होती है। तब वह सागरतट पर बालू में पसर जाती है। प्राण तज देती है। सोनिया—कांग्रेस भी इसी व्याधि से ग्रसित दिखती है। ऐसी उसकी आदत बन गयी है।
नरेन्द्र मोदी का गुर कारगर रहा है कि कैसे मुख्यमंत्री पलटा दो (कमलनाथ को भोपाल में) या बनेबनाये मुख्यमंत्री (भूपेन्द्र सिंह बघेल को रायपुर) को डगमगा दो। अभी तक सोनिया ने पार्टी के ऐसा गुर सीखा नहीं। मोदी सवा सेर रहे। छटाक ही रहीं सोनिया राजनीतिक दांवपेंच में। उनकी पार्टी के दो लोकसभाई थे उत्तर प्रदेश से। बेटी जुटी तो अमेठी खो दी। बची बमुश्किल सिर्फ एक सीट रायबरेली की। अब बेटे को मोदी की पोस्ट दिलाने में प्राणपण से सोनिया जुटी हैं। उन्हें आभास तक नहीं हुआ कि यह घुड़दौड़ है, ”टट्टू रेस” नहीं जहां पप्पू भी दौड़े?
पप्पू का जिक्र आया तो याद आया उत्तराखण्ड की समस्या की जड़ में राहुल गांधी का देहरादून भ्रमण रहा। वह बिगड़ैल हरीश रावत को रास से बांधना चाहते हैं मगर नरसिम्हाराव युगीन हरीश रावत को यह रास नहीं आया।
वर्तमान हालत में सोनिया गांधी को अपनी सास की हरकतें याद रहीं। मुख्यमंत्री को उलटते—हटाते रहो। वर्ना जड़ जम गयी तो बरगद बन सकता है। तब पप्पू पीएम कैसे बनेंगे? इसीलिये सोनिया को नेहरु—कुटुम्ब के इतिहास के पन्नों को पढ़ना पड़ रहा है। उन्होंने जान लिया कि किस रीति से उनकी वंशावली के संस्थापक जवाहरलाल नेहरु ने अपनी पुत्री को प्रधानमंत्री बनवाने के लिये मार्ग विस्तृत किया। कामराज योजना के तहत पार्टी दिग्गजों को हटाया। जगजीवनराम, सदाशिव पाटिल, लाल बहादुर शास्त्री, कामराज मोरारजी देसाई आदि सबको रिटायर कर दिया। जब इन्दिरा गांधी पीएम बन गयीं तो पिता की भांति उन्होंने भी महाबली पंडित नारायणदत्त तिवारी, राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि को प्रदेशों में भेज दिया। दिल्ली के सिंहासन की राह राजीव हेतु निष्कटक हो गयी। अब बहू तो सबकुछ नहीं पा सकती है। वह यूरोशियन जो ठहरी।
अत: उत्तराखण्ड एक चुनौती है। उसे हासिल करने का हर मुमकिन प्रयास किया जायेगा। ऐसा उत्तर प्रदेश में मुमकिन नहीं है। कई कारण हैं। फिलहाल राज्यों में आगामी चुनाव के परिणामों से इतना संभव है कि राहुल गांधी को आरएसी बर्थ शायद मिल जाये। कन्फर्मड होने में वक्त लगेगा।