आनंद कुमार (साभार)
शहर एक नए किस्म के अपराधियों से परेशान था। ये लड़कों के छोटे-छोटे समूहों में होते थे और लोगों पर हमला कर उनके साथ मारपीट और लूटपाट किया करते थे। ‘वाइल्डिंग’ नाम के ऐसे समूह 1989 के दौर में अमेरिका के न्यूयॉर्क में खासे कुख्यात थे।
न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क में वसंत की एक शाम 1989 में ऐसे ही एक ‘वाइल्डिंग’ गिरोह के हमले की खबर आई। इसे ‘सेंट्रल पार्क जॉग्गर केस’ बुलाया जाता है। तृषा मिली नाम की 28 साल की एक युवती जो शाम के वक्त जॉगिंग करने गई थी, उस पर हमला कर उसे बेहोश कर दिया गया और फिर उसके साथ बलात्कार किया गया था।
उस शाम ये इकलौता हमला नहीं था। उस शाम ‘वाइल्डिंग’ गिरोहों ने सेंट्रल पार्क में ही 8 दूसरे हमले किए थे। कई लोगों को चोटें आई थीं, और लूटपाट भी हुई थी। इस बलात्कार की घटना पर हंगामा मच गया। न्यूयॉर्क पुलिस डिपार्टमेंट के साथ-साथ फ़ेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) पर भी इस मामले को जल्द से जल्द सुलझाने का दबाव था। अमेरिका के लिए 80-90 के दशक नारीवादी आंदोलनों और महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के बढ़ते मामलों का दौर था तो सभी नारीवादियों ने इस मामले पर जमकर लिखा-बोला।
अमेरिकी (और इसाई) लोगों पर जो रंगभेद के आरोप लगते हैं, उसने भी अपनी भूमिका निभाई। पीड़िता गोरी थी और 5 लड़के जो इस मामले में पकड़े गए थे, वे सभी अश्वेत थे। गिरफ्तार लड़कों में से सिर्फ कोरी वाइज ही 16 साल का था। बाकी चारों कम उम्र के थे इसलिए उन्हें जुविनाइल होम में सजा काटने भेजा गया। कोरी वाइज को जेल में डाल दिया गया। इन लोगों को 5 से 15 वर्ष तक की सजा हुई थी। अपराधियों ने अपना जुर्म स्वीकार लिया था, सजा हो गईं, लेकिन वो डीएनए टेस्टिंग का दौर नहीं था। बलात्कार एक ने किया था या सभी ने ये भी पता नहीं चला।
कई वर्ष बीत गए और 2001 में एक दिन मटियास रीज़ ने स्वीकार किया कि 29 अप्रैल 1989 की शाम इन लड़कों ने नहीं, बल्कि उसने अकेले ही तृषा मिली का बलात्कार किया था! इस बयान के आधार पर मामले की जब दोबारा जाँच हुई तो पता चला कि सचमुच ऐसा ही था।
गिरफ्तार करके सजा भुगतने वाले पाँचों लड़कों के सभी रिकॉर्ड से उनके जेल जाने और बलात्कार के अपराधी होने को मिटाया गया। इन्हें जो 41 मिलियन डॉलर का मुआवजा मिला, वो न्यूयॉर्क शहर के इतिहास में सबसे ज्यादा था। ओपरा विनफ्रे ने हाल ही में इन लड़कों की कहानी पर एक डॉक्यूमेंट्री श्रृंखला “व्हेन दे सी अस” बनाई है जो कि खासी चर्चित भी रही।
भारत के लिहाज से ऐसी घटनाओं को देखें तो फिल्मों के जरिए जो नैरेटिव गढ़ा जाता है उसका ठाकुर अत्याचारी, लाला पैसे चुराने वाला कपटी और ब्राह्मण धूर्त ही दिखाते हैं। ऐसे में जब शोषित समाज के वंचित कहे जाने वाले तबकों से हो और आरोपित तथाकथित ऊँची मानी जाने वाली जातियों से, तो मीडिया लिंचिंग के लिए एक बढ़िया मौका तैयार हो जाता है।
खुद को नारीवादी घोषित करते बुद्धिपिशाच मामले में जाति का एंगल घुसेड़ते हैं। परंपरागत रूप से हिन्दू समाज में होने वाले तथाकथित शोषण का तड़का और ‘बेटियाँ बचेंगी क्या?’ के सवाल का छौंका लगाते हैं। अपराध के अनुसंधान से पहले ही मामले में आरोपित को अपराधी घोषित कर दिया जाता है।
वैसे देखा जाए तो इसमें कानूनों का दोष भी कम नहीं है। आम अपराधों की तरह बलात्कार में ‘अपराध सिद्ध होने तक निर्दोष (Innocent until proven guilty)’ के सिद्धांत पर नहीं, बल्कि ‘स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने तक अपराधी (Guilty until proven otherwise)’ के सिद्धांत पर मुकदमा चलता है।
I spoke to Rakesh, father of Ramkumar, one of gangrape accused in #HathrasCase . On 14th Sep Ramkumar left home as always at 7am to a nearby plant where he works. Father claims his son is falsely accused, his attendance can be checked, if there are CCTV in plant, they be checked. pic.twitter.com/DAte9Zbp7B
— Deepika Narayan Bhardwaj (@DeepikaBhardwaj) October 1, 2020
हाथरस कांड के आरोपितों में से एक, रामकुमार के पिता बताते हैं कि रामकुमार 14 सितंबर को हर रोज की तरह सुबह 7 बजे फैक्ट्री के लिए निकला था। वहाँ के सीसीटीवी और हाजिरी के रजिस्टर की जाँच होगी।
क्या कठुआ की तरह बुद्धि-पिशाचों ने फिर एक बेक़सूर की मीडिया लिंचिंग की तैयारी की है? जब तक मामला अदालत की सुनवाई तक नहीं पहुँचता, तब तक बुद्धिपिशाचों के नोंचने के लिए कुछ नौजवान तो हैं। फिर अदालत से बरी हुए भी तो क्या, उसे ये “इंसाफ की हत्या” कह देंगे!