डॉ० मत्स्येन्द्र प्रभाकर
स्वच्छ और निर्मल मन के लोग अपने व्यवहार में भी निर्विकार होते हैं। सामने आने/उभरने वाले किसी मुद्दे पर वे बेलाग मुखर हो जाते हैं। वज़ह यह कि उनके मन में कोई कूड़ादान नहीं होता। हालाँकि इसकी बिना पर लोग उनके व्यक्तित्त्व को लेकर बहुधा सशंकित हो जाते हैं। विवाद पैदा करने की कोशिश करते हैं। 50 साल से भी पहले पत्रकारिता में प्रवेश करने वाले, आध्यात्मिक भाव-भूमि के पण्डित माधव कान्त मिश्र जी ऐसे ही थे। उन्हें किसी विषय पर बतियाने में कभी संकोच नहीं हुआ। कहते थे- “विचारों का कूड़ा मन में नहीं रखना चाहिए। न अपने मन में, और न सम्पर्क में आने वाले किसी दूसरे के।” उन्होंने कोई आठ साल पहले संन्यास ले लिया था। जहाँ तक ज्ञात है- ऐसा करने वाले वह पहले पत्रकार थे। इस प्रकरण को उन्होंने एक परिघटना करार दिया था। यह उनके ‘विशिष्ट निर्मोही’ होने का प्रमाण है। इसका एक बड़ा उदाहरण यह है कि नयी दिल्ली के जिस वेस्ट पटेल नगर में वे 1980 के दौर में रहने गये थे, उसी में वैसा निवास उस समय भी उनका रहा जब उन्होंने शरीर छोड़ा। यह तथ्य महत्त्वपूर्ण इसलिए कि उनके ‘निर्बाध सम्बन्ध’ तब न केवल मेनका और उनकी माँ बल्कि ‘प्रधानमंत्री निवास’ और तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के अलावा सञ्जय गाँधी से भी समान रूप से हुए। उस दौर के अनेक नेता उन्हें साष्टांग दण्डवत करते थे। कल्पनाथ राय, वीरभद्र सिंह, नारायण दत्त तिवारी, माखन लाल फोतेदार आदि उन्हें देखकर ससम्मान रुक जाते थे। परन्तु धन और वैभव का मोह उन्हें अन्त तक न हुआ। उनका व्यक्तित्त्व अत्यन्त सुदर्शन था जिसने अनेक लोगों को आकर्षित किया।
माधव कान्त से “महामण्डलेश्वर मार्तण्डपुरी” बने पत्रकारिता के उस ‘शिखर पुरुष’ को काल की क्रूर नियति ने 12 अगस्त, 2020 को हमसे छीन लिया। वे हिन्दी के आधे दर्ज़न से अधिक प्रमुख समाचार पत्रों के संस्थापक/सम्पादक रहे। 1991 में 15 अगस्त को दिल्ली से नये किस्म के हिन्दी अख़बार ‘राष्ट्रीय सहारा’ का प्रकाशन शुरू हुआ तो माधव कान्त जी एक सम्पादकीय सलाहकार के बतौर इससे जुड़ चुके थे। उन्होंने पत्रकारिता को पुनर्परिभाषित करने का संकल्प किया और अख़बार में शिक्षा-संस्कृति व विरासत के साथ धर्म-अध्यात्म की ख़बरें छ्पनीं शुरू हुई। इसके पहले तक समाचारी जगत के लोग इन समाचारों को अछूत मानते थे। तब कथित प्रगतिशीलों के प्रभाव वाली पत्रकारिता में इसका असर इतना था कि रिपोर्टिंग तथा ख़बरें बनाना तो दूर, कभी-कभार ऐसे आयोजनों की आने वाली विज्ञप्तियाँ कूड़े के टोकरी में फेंक दी जातीं थीं। बाद में उप सम्पादकगण शान में उसी पर पान की पीक कर दिया करते थे। माधव कान्त ने धार्मिक कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग शुरू करवायी। समाचारपत्र प्रतिष्ठानों में संवाददाताओं की फेहरिश्त में बतौर ‘बीट’ शिक्षा, विरासत और धर्म-संस्कृति-अध्यात्म जुड़ गया। इस समाचार पत्र के साथ ‘उमंग’ नाम से हर रोज़ चार पृष्ठ के विशेष रंगीन पृष्ठ को प्रस्तुत करने का विचार माधव कान्त जी के दिमाग की उपज थी। साप्ताहिकी के रूप में विशेष पूरक (सप्लीमेण्ट) ‘हस्तक्षेप’ के साथ ‘उमंग’ इस अख़बार का ‘यूएसपी’ बना। ‘राष्ट्रीय सहारा’ में माधव कान्त जी के साथ दूसरे सलाहकार सुनील दुबे रहे; जिन्हें फरवरी 1992 में इस अख़बार का लखनऊ से प्रकाशन शुरू होने के पहले ही यहाँ का ज़िम्मा देते हुए नोएडा से भेज दिया गया था।
पत्रकारिता को खोज़परक बनाने के साथ बनाने, इसे धारदार और आक्रामक तेवर देने का कार्य 1983 में ‘जनसत्ता’ का पुनर्प्रकाशन शुरू होने के साथ प्रभाष जोशी जी ने किया तो उसी काल में इसे सौम्य भाषा राजेन्द्र माथुर जी ने ‘नवभारत टाइम्स’ से दी थी। उनसे अलग माधव कान्त मिश्र जी ने मानव जीवन के प्राथमिक संस्कारों को पत्रकारिता में पिरोकर इसे सर्वसमावेशी और सर्वग्राह्य बनाया। बाल पत्रिकाओं की अलग बात रही होगी लेकिन हिन्दी अख़बारों को बच्चों के लिए रुचिकर और उनकी पसन्द बनाने में भी उनके अनन्य योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
पत्रकारिता में प्रयोगधर्मिता के उत्प्रेरक माधव कान्त मिश्र का सम्बन्ध आधे दर्ज़न और प्रमुख अख़बारों से रहा। पटना से ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ के संस्थापन-सम्पादन के अलावा उन्होंने ‘कुबेर टाइम्स’, ‘स्वतंत्र भारत’, ‘विश्वमानव’ आदि का भी सम्पादन किया और 1989-90 में कुछ समय ‘आज’ समूह के कार्यकारी सम्पादक रहे। वे अमेरिका से प्रकाशित ‘इण्डिया वीकली’ के सलाहकार सम्पादक तथा मारीशस सरकार के ‘इण्टरैक्टिव डिज़िटल टीवी’ प्रोजेक्ट के भी सलाहकार रहे। ‘सूर्या इण्डिया’ जैसी चर्चित पत्रिका का संस्थापन-सम्पादन उनका सबसे चर्चित पड़ाव रहा। सूर्या इण्डिया की स्वामी श्रीमती अमतेश्वर आनन्द वर्तमान सांसद मेनका गाँधी की माँ थीं। यहीं से उनके सम्पर्क/सम्बन्ध बज़रिये मेनका और सञ्जय गाँधी ‘प्रधानमंत्री निवास’ से बने। यह अलग बात है कि एक दौर ऐसा आया जब माधव कान्त जी को शिमला से प्रकाशित होने वाले ‘हिमाचल सेवा’ जैसे छोटे समाचार पत्र में भी सेवा करनी पड़ी। यों, ऐसा करते हुए उनके व्यक्तित्त्व और चिन्तन में कोई फ़र्क नहीं आया।
वर्तमान शताब्दी की शुरुआत से माधव कान्त जी के जीवन का वह उभार आया जिसके लिए वे अपना जीवन मानते थे। यह भारत ही नहीं सारे जगत में आध्यात्मिक चैनलों की शुरुआत का समय था जब 2000 में उत्तर भारत से उनके नेतृत्व में पहले आध्यात्मिक चैनल “आस्था” की नींव पड़ी। आज योग-गुरु के नाम से प्रचलित स्वामी रामदेव को तब पत्रकारिता क्षेत्र के भी मुट्ठी भर लोग ही जानते थे। ‘साधना’, ‘प्रज्ञा’, ‘सनातन’, ‘कात्यायनी’ जैसे अन्य आध्यात्मिक चैनलों के प्रारम्भ में उन्होंने कार्यकारी अथवा प्रबन्ध निदेशक के अपनी भूमिका को सफलतापूर्वक अंज़ाम दिया।
29 अक्टूबर, 2012 को लिए गये संन्यास को अपने जीवन की एक प्रमुख घटना मानने वाले माधव कान्त जी ने अपने गुरु विश्वदेवानन्द जी से कहा था कि वे आश्रम में नहीं रहेंगे बल्कि घर को ही आश्रम बनाकर रहेंगे। इसके पीछे उनका तर्क था कि संन्यासी बनने पर ब्रह्मचर्य भंग होना होगा तो वह आश्रम में भी हो जाएगा। महत्त्व संकल्प और समर्पण का है। उन्होंने अपने गुरु से कहा था कि जिस नारी के साथ उन्होंने जीवन के 50 वर्ष उसकी साधुता के सान्निध्य में बिताये हैं उसे छोड़ना उन्हें अन्याय लगता है। वे कहा करते थे कि नारद जी को छोड़कर सभी महर्षि और ऋषि-मुनि सपत्नीक ही संन्यासी जीवन जिये। सार्वजनिक मञ्चों पर सक्रियता के बावज़ूद उन्होंने पिछले कुछ सालों में अनेक बाबाओं के व्यभिचार सार्वजनिक होने पर कभी किसी का नाम नहीं लिया। कहते थे कि सबका अपना जीवन है, बुराई का नाम लेने से वह बढ़ती है। इस तरह वे अपने को हमेशा किसी ऐसे विवाद से बचाये भी रहे। उन्होंने संन्यास घटित होने के पहले ही रुद्राक्ष पौधों के रोपण के लिए एक महाअभियान चलाया और मारिशस एवं कुछ अन्य देशों के साथ भारत में रुद्राक्ष रोपण का आन्दोलन सा खड़ा कर दिया। भारत के विभिन्न भागों में 10 लाख से अधिक रुद्राक्ष रोपण करवाने के लिए उनका नाम ‘लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स’ में दर्ज़ है। रुद्राक्ष रोपण उनके लोक सरोकार की ही एक विधा थी जिसे उन्होंने हर “द्वार पर हर” (यानी महादेव) का नाम दिया था। अपना सौभाग्य है कि उनके इस अभियान का एक हिस्सा बनने का अवसर मुझे मिला।
प्रखरता में भी विनम्रता के पोषक तथा मृदुभाषी माधव कान्त जी अत्यन्त मिलनसार और लोक सरोकारी संस्कार वाले थे। आठ साल पहले संन्यासी बनने पर तो यह परवान सा चढ़ा। उनसे मेरा परिचय 1980 में तब हुआ था। तब मैं हाईस्कूल के बाद आगे पढ़ने के लिए प्रतापगढ़ से प्रयाग के सीएवी कॉलेज में दाख़िल हुआ था। जहाँ तक मुझे याद है, माधव कान्त जी पटना जा चुके थे परन्तु किसी कारणवश उनका प्रयाग आना हुआ था। इसके बाद की चर्चा अभी अप्रासंगिक होगी। उनके साथ काम करने का मौका मुझे 1989 में मिला। उस साल पहली जनवरी से असम में ‘बोडो आन्दोलन’ नये संवेग के साथ शुरू हुआ था। उसकी विशेष कवरेज के लिए विशेष संवाददाता के रूप में मैं गुवाहाटी में था। अचानक एक बड़े विघ्न के कारण मुझे बीच में छोड़कर वहाँ से लौटना पड़ा। स्थिति सामान्य होने पर काम की तलाश थी। माधव कान्त जी तब पण्डित नारायण दत्त तिवारी के ख़ास प्रवीण सिंह ऐरन के स्वामित्व और प्रबन्धन वाले “विश्वमानव” समूह के प्रधान कार्यकारी सम्पादक थे। दिल्ली के हौज़ख़ास स्थित कार्यालय में बैठा करते थे। इसकी जानकारी होने पर पूर्व परिचय के नाते एक पोस्टकार्ड का उत्तर मिलने के बाद मैं अप्रैल, 1989 में सीधे उनके पास पहुँच गया था। उस भेंट में उन्हें मेरी बातचीत कदाचित ‘दयनीय’ लगी। उन्होंने वार्ता के बाद उसी दिन यात्रा सम्बन्धी उचित मार्गदर्शन के बाद मुझे करनाल (हरियाणा) पहुँचने का निर्देश दिया। आश्चर्य तब हुआ जब वे बस से मेरे वहाँ पहुँचने के पहले ही वहाँ पहुँच गये। मुझे अपने संग न ले जाने की वज़ह शायद ऐरन जी का उनके साथ होना रहा हो।
उस दिन शाम को ‘स्वतंत्र विश्वमानव’ करनाल में माधव कान्त जी ने मेरा परिचय सबसे पहले प्रबन्ध सम्पादक श्री सुधीर चन्द्र नागलिया से कराया। कालान्तर में चाय-पान के उपरान्त उन्होंने स्वयं अपने साथ ऊपरी तल पर ले जाकर सर्वश्री (डॉ०) सुशील राजेश, अनिल सोनी, प्रदीप श्रीवास्तव, सञ्जय हिन्दवान, पंकज शर्मा, ऋषिराज राही, नरेश भास्कर, सुमन शर्मा, सुमन भारद्वाज आदि अनेक सम्पादकीय साथियों से मेरा परिचय कराते हुए उन्हें बताया कि (आज से ही) उन सब के साथ मैं भी कार्य करूँगा। तत्पश्चात मेरे वहाँ रहने आदि की व्यवस्था का उचित निर्देश नागलिया जी को देकर माधव कान्त जी दिल्ली लौट लिये थे। इससे उनके व्यक्तित्त्व की जो छाप मुझ पर पड़ी वह जीवन भर अमिट रहेगी।
माधव कान्त जी की प्रभावकारिता और स्वीकार्यता की अनेक बातें पहले की हैं। इनमें एक यह कि माधव कान्त जी वास्तु-ज्योतिष के गहन जानकार और अध्यात्म के कुशल विश्लेषक थे। शायद यही कारण है कि उन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था। उनसे मेरी आख़िरी बातचीत पिछले माह 20 अगस्त को हुई थी जब उन्होंने सुबह भेजे गये मेरे “राम-राम” सन्देश के तुरन्त बाद मुझे फोन किया। परम्परागत शैली में मेरा अभिवादन स्वीकार करने के बाद लम्बी वार्ता की और अन्त में कहा– “मत्स्येन्द्र जी! अब लम्बी यात्रा पर निकलना है।” इसके अर्थ का आभास अचानक मुझे हो गया था। आखिर, वर्षों से उनकी रहस्यपूर्ण किन्तु आध्यात्मिक शैली से परिचित जो रहा हूँ, पर बात को हल्की करते हुए कहा- “अवश्य सर!, किन्तु हालात (कोरोना से) थोड़ा और सामान्य हो जाए।” …नहीं पता कि अचानक उन्हें इतनी ज़ल्द निकलने की अकुलाहट क्यों थी?
विनम्र श्रद्धाञ्जलि !!!