राजेश श्रीवास्तव
कभी देश के लिए शान और बान रहा उत्तर प्रदेश का एक और उद्योग बंदी की कगार पर पहुंच गया है। दो दिन पहले ही प्रबंधन ने इसका औपचारिक ऐलान अपने कर्मचारियों से कर दिया है। लेकिन न तो इस पर सरकार की नजर गयी और न ही टीआरपी की आपाधापी में दौड़ रही मीडिया ने इसे दिखाना जरूरी समझा। सैकड़ों कर्मचारियों के इसके बाद भुखमरी पर आने की उम्मीद है। जी हां, बात हो रही है कानपुर की लाल इमली के वूलन क्लॉथ की, कड़ाके की ठंड में पसीना छुड़ा देने वाले इस लाल इमली की डिमांड कभी इंग्लैंड-अमेरिका-रूस और जर्मनी तक होती थी। लेकिन पिछले दस सालों से जो लाल इमली ने पिछड़ना शुरू किया तो अब कभी भी इसकी रुखसती का समय आ गया है। बस किसी भी दिन इसमें ताला लग सकता है।
195० के दौर में दस हजार से अधिक कामगारों का परिवार पालने वाली लाल इमली अपना अंतिम समय गिन रही है बीआइसी बहुत जल्द इसे बंद करने जा रही है। कानपुर के इतिहास में लाल इमली का नाम हमेशा जिदा रहेगा क्योंकि न सिर्फ इस मिल ने दस हजार कामगारों के परिवार का पेट पाला बल्कि शहर की पहचान सात समंदर पार तक बनाई। भारत की आजादी से पहले बनी लाल इमली मिल ने सन 195० के समय में स्वर्णिम दौर देखा है, यहां पर दस हजार कामगार काम करते थे। अलग-अलग शिफ्टों में चौबीस घंटे चलने वाली इस मिल का सुबह और शाम दो बजने वाल हूटर आसपास करीब दो किमी तक सुनाई देता था। इस हूटर के बजते ही उस दौर में लोग समय की जानकारी भी कर लेते थे। यह वह दौर था जब कानपुर भारत का मैनचस्टर कहा जाता था। शहर में बीआइसी की मिलों में एक लाल इमली अपने वूलन क्लॉथ के लिए मशहूर थी। एक जमाने में यहां ऑस्ट्रेलिया की मोरिनो भेड़ के बाल से बनने वाली वूल से कंबल, लोई, मोजे, मफलर, टोपी व कपड़े इतने गर्म होते थे कि पहनने वाले को कड़ाके की ठंड में पसीना छूट जाता था। सियाचिन व लद्दाख में सरहदों की निगहबानी करने वाले भारतीय सैनिकों के लिए लाल इमली के वूलन कपड़े किसी कवच से कम नहीं होते थे। इसके वूलन क्लॉथ की मांग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थी बल्कि इंग्लैंड, अमेरिका, रूस व जर्मनी में भी खासा डिमांड थी। वहां से आने वाले पर्यटक ऑस्ट्रेलिया की मेरिनो भेड़ की ऊन से बनने कंबल और कपड़े खरीदकर ले जाते थे।
ऑस्ट्रेलिया की भेड़ से ऊन से बनने वाले गर्म उत्पादों की लोकप्रियता इस कदर हो गई थी कि बेस्ट वूलन क्लॉथ के लिए लाल इमली को स्पेन में इंटरनेशनल ग्लोबल अवार्ड मिला था। इसके उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1981 में इसका राष्ट्रीकरण किया। इसके बाद उत्पादों का बनना और तेज हो गया था। उन्होंने इस मिल को ‘नो प्रॉफिट नो लॉस के तहत’ चलाने पर जोर दिया था। यहां बने उत्पादों के दाम इतने कम रखे जाते थे कि रिक्शा चालक व ठेला लगाने वाले हर गरीब तक इसे खरीदकर उपयोग करता था। उच्च वर्ग के लिए भी यहां खास तरह का वूलन क्लॉथ बनता था। इतना ही नहीं यहां पर तोप के गोले को कवर करने वाला कपड़ा और सैनिकों की वर्दी के लिए भी कपड़े की थान तैयार की जाती थी। यहां पर ऐसी मशीनें आज भी हैं, जो बेमिसाल हैं और चौबीस घंटे बिना रुके चलाई जा सकती हैं। जिन पर वह काम किया करते थे, जो आज भी चालू हालत में उत्पादन कर सकती हैं। बस जरूरत है तो कच्चे माल की। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी व उनके पुत्र राजीव गांधी का इस मिल से बहुत गहरा नाता रहा हैं। यहां की प्रसिद्ध टूस लोई व 6० नंबर लोई राजीव गांधी पहना करते थे। उनकी कई फोटो भी ऐसी हैं, जिनमें वह यह लोई पहने हुए हैं। मिल को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में श्रमिकों का खून-पसीना लगा है। मिल बंद हो रही है इसका गिला नहीं है, दर्द तो इस बात का है कि उन कागमारों को मेहनत का फल मिलने में देर हो रही है। उन्हें 2००6 से एरियर व 2०21 से लीव इनकैशमेंट दिया जाए, जबकि 24 महीने का वेतन भी उनके भुगतान में शामिल है। वह भी एक दौर था जब लाल इमली के वेतन से दीपावली के दिये व होली के रंग उड़ा करते थे। 2००8 में उत्पाद कम होेने व 2०12 में शून्य पर उत्पादन आने पर यह त्योहार तो दूर की बात घर में दिया जलाना भी मुश्किल हो गया है।
लेकिन इतनी खूबियों वाले लाल इमली के वूलन क्लॉथ की डिमांड आज नहीं है, ऐसा नहीं है। आज भी लोग इसकी डिमांड करते हैं। लेकिन अब कच्चा माल ही उपलब्ध नहीं है। प्रबंधन ने अपने कर्मचारियों से कह दिया है कि जितना माल बचा है उसका काम पूरा कर दें । इसके बाद लाल इमली की कंपनी को बंद कर दिया जायेगा। अब इस ऐलान के बाद प्रदेश की न केवल एक कंपनी बंद हो जायेगी, बल्कि एक धरोहर की भी अंतिम सांसे थम जाएंगी।