सुरेन्द्र किशोर
सोनिया गांधी को कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बने हुए एक वर्ष हो गए,लेकिन इस बारे में कुछ पता नहीं कि पार्टी पूर्णकालिक अध्यक्ष चुनने के लिए तैयार है या नहीं ? कुछ कांग्रेसी नेता राहुल गांधी को फिर से अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे हैं। लेकिन इस विचार को पूरजोर समर्थन मिलता नहीं दिख रहा है।
सवाल है कि क्या यह संभव है ?
2004 में कांग्रेस इसलिए सत्ता में आ गई थी,क्योंकि राजग ने ‘फीलगुड’ में मगन होकर अपने कुछ पुराने सहयोगी दलों को खुद से दूर कर दिया था। एक तरह से 2004 की जीत में खुद कांग्रेस की कोई खास भूमिका नहीं थी। हां, 2009 के चुनाव में कांग्रस सरकार की कुछ सकारात्मकताएं जरूर उसके काम आ गई थीं। पर उसके बाद और पहले की संप्रग सरकारों ने जो नकारात्मक काम किए उसके लिए मतदाताओं ने उसे 2014 माफ नहीं किया।
नतीजतन एक बार फिर 2019 में लोगों ने राजग को केंद्र की सत्ता दे दी।
अब जब काग्रेस का तिनका -तिनका बिखरता जा रहा है तो इस सबसे पुराने दल के नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं।
कांग्रेस का एक हिस्सा लगातार दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार के लिए स्रंप्रग सरकार के कुछ मंत्रियों को जिम्मेदार ठहरा रहा है तो दूसरी ओर कुछ पूर्व मंत्री कह रहे हैं कि संगठन की कमजोरी के कारण हम मोदी सरकार की विफलताओं को जनता तक नहीं पहुंचा सके।
कांग्रेस का यह परंपरागत बहाना रहा है कि कांग्रेस कार्यकत्र्ता प्रतिपक्ष के आरोपों और अफवाहों का कारगर ढंग से खंडन और प्रतिवाद नहीं कर सके।
जिसे शीर्ष नेतृत्व की कमियों को देखने की आजादी न हो ,वह कारण तो कहीं और ही खोजेगा।
उन बातों की कोई कांग्रेसी चर्चा ही नहीं कर रहा है जो पार्टी के कमजोर होते जाने के मुख्य कारण हैं।
राजस्थान का गतिरोध इसीलिए लंबा खींचा।
कांग्रेस नेतृत्व ने राज्यों को विभिन्न क्षत्रपों और उनकी संतानों के हवाले कर दिया है। नतीजतन नई पीढ़ी के नेता निराश होकर एक -एक कर कांग्रेस छोड़ते जा रहे । कमलनाथ-नकुल नाथ के समक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपना भविष्य नही देखा तो बाहर चले गए। असम और कुछ अन्य राज्यों में भी यही हो रहा है। राजस्थान में वही कहानी दोहराई जा रही है। आखिर वैभव गहलोत के सामने सचिन पायलट का राजनीतिक भविष्य उज्जवल कैसे कहा जा सकता है ?
जिन मुख्य कारणों से कांग्रेस की लगातार दो लोक सभा चुनावों में हार हुई,उन्हें दूर किए बिना देश की इस सबसे पुरानी पार्टी का मजबूत होेना संभव नहीं है।
2014 की हार के कारणों की तहकीकात के लिए सोनिया गांधी ने ए.के. एंटोनी के नेतृत्व में पार्टी की एक समिति बनाई थी। उसकी रपट भी तभी आ गई थी। किंतु उस पर कांग्रेेस के अंदर कोई विमर्श नहीं हुआ। नतीजतन कांग्रेस 2019 के चुनाव में भी पस्त हो गई।
एंटोनी समिति की मुख्य बात यह थी कि 2014 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस ने धर्म निपरेक्षता बनाम सांप्रदायिकता का जो नारा दिया,उससे लोगों में यह धारणा बनी कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों की ओर झुकी हुई है। एंटोनी के अनुसार इसका नुकसान हुआ।
इस रपट के सारे बिंदुओं का पता नहीं चल सका,किंतु यह अनुमान लगाया गया कि एंटोनी ने यह भी कहा था कि संप्रग पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों कांग्रेेस जन कारगर ढंग से प्रतिवाद नहीं कर सके।
सवाल है कि कांग्रेसजन प्रतिवाद कैसे कर पाते क्योंकि आरोपों के खंडन के लिए उनके पास तथ्य ही नहीं थे ?
राष्ट्रीय स्तर पर दो चुनावी पराजयों के बाद सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कांग्रेस ने अपने पिछले रुख में अब भी कोई परिवत्र्तन यानी सुधार नहीं किया है। पाकिस्तान और चीन को लेकर कांग्रेस नेताओं के आए दिन ऐसे -ऐसे बयान आते रहते हैं जिनसे उन देशों को खुशी हो रही होती है। दरअसल मर्ज कांग्रेस पार्टी के सिर में है, पर यदा कदा इलाज वह पैर का करने की कोशिश कर रही है। आत्मा की जगह काया पर जोर दे रही है। कांग्रेस सिर्फ संगठनात्मक फेरबदल के जरिए पार्टी को मुश्किलों के भंवर से निकालना चाहती है । यह संभव नहीं लगता। कोरोना संकट से निकलने के बाद नरेंद्र मोदी के समक्ष ऐतिहासिक महत्व के कई काम करने के लिए होंगे।
सी.ए.ए. के तहत शुरू हुए कामों को पूरा करना होगा। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि किसी भी सार्वभौम देश के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एन.आर.सी.तैयार करना जरूरी है।
यदि इसे लेकर मोदी सरकार एक बार फिर कोई कदम उठाएगी तो कांग्रेस क्या करेगी ?
ऐसे मुद्दांे पर जब तक कांग्रेस अपना रुख नहीं बदलेगी तब तक व आम लोगों का फिर से विश्वास हासिल करने की शुरूआत कैसे कर पाएगी ? स्पष्ट है कि कांग्रेस के लिए बेहतर भविष्य की कोई उम्मीद नहीं दिखती।