के विक्रम राव
चीनपरस्त भारतीयजन, खासकर मार्क्सवादी-कम्युनिस्टों से, यह प्रश्न है| जनवादी हक़, मानव-सहज गरिमा और सोचने तथा बोलने की आजादी की गणना वैश्विक मानव अधिकारों में की जाती है| उन्हें किसी राष्ट्र के भूगोल में सीमित नहीं किया जा सकता है| मानव और मानव के बीच विषमता करना अमान्य है| चिन्तक कार्ल मार्क्स की उद्घोषणा भी थी कि “दुनिया के मजदूरों एक हो|” अतः पड़ोसी लाल चीन में नागरिकों पर हो रहे अमानुषिक हिंसा पर दिल्ली में प्रतिरोध व प्रदर्शन न हो, नागवार लगता है| वियतनाम पर अमरीकी बमबारी तथा हंगरी में सोवियत टैंक द्वारा दमन पर भारत में जगह जगह विरोध, जुलूस निकाले गए थे|
इसी किस्म के कई सरकारी हमले साधारण आन्दोलनकारियों पर भी हाल ही में हो चुके हैं|उत्तरी बीजिंग के प्रतिष्ठित शिंगहुआ विश्वविद्यालय में (6 जुलाई 2020) चीनी पुलिस के आठ सिपाहियों ने साठ-वर्षीय प्रोफेसर शु झान्ग्रून को उनके शयनकक्ष से हिरासत में ले लिया| अनजान स्थान पर कैद में रखा है| न्यायशास्त्र और विधिविज्ञान के निष्णात इस वयोवृद्ध प्राचार्य पर अभियोग है कि वे वेश्यायों से संसर्ग कर रहे थे| इस पर उनकी पत्नी ने बताया कि बहुधा सत्ता के बौद्धिक आलोचकों पर यौन अपराध ही मढ़े जाते हैं| उनकी मान मर्यादा आसानी से मटियामेट हो जाती है|
आखिर इस असहमत प्रोफ़ेसर की आलोचना के केंद्र बिंदु क्या हैं ?
उन्होंने लिखा कि राष्ट्रपति पद का निर्वाचन हर दो वर्षों में होना चाहिए था| शी जिनपिंग ने संविधान में संशोधन कर इस सीमाअवधि को निरस्त कर दिया| आजीवन राष्ट्रपति घोषित हो गए | साथ ही सामान्य नागरिक अधिकारों को रद्द कर चीन को “पुलिस स्टेट” ही बना दिया है| प्रोफ़ेसर झान्ग्रून ने यह भी लिखा कि कोरोना वायरस चीन के वूहान में जन्मा तथा फैला| इस सूचना को कम्युनिस्ट सत्ता ने दबाया| फलस्वरूप विश्वव्यापी मानव त्रासदी व्यापी|
इस बीच कोरोना भी चीन के कम्युनिस्ट शासकों की मदद में आ गया है| सरकार के आलोचकों को पॉजिटिव दिखाकर पुलिस उन्हें “क्वारंटाइन” में ले लेती है, और महीने भर हिरासत में रख लेती है|
अब ऐसे जनविरोधी शासन का दिल्ली-स्थित चीनी दूतावास के समक्ष प्रदर्शन कर विरोध न किया जाए तो मानवाधिकार के हित में आन्दोलनकारियों, खासकर मार्क्सिस्ट कम्युनिस्टों, के लिए लज्जास्पद बात तो होगी ही| कलंक भी|