दीपक शर्मा
जैसे ऊँचे पहाड़ों पर अचानक बादल फटता है या समंदरी किनारों पर चक्रवात उमड़ता है, ऐसे ही आवेश में….डिप्रेशन के एक्सट्रीम झोंके में कोई आत्महत्या का निर्णेय लेता है। फिर जो कुछ भी घटता है, बेहद तेजी से घटता है। लेकिन इस अचानक से घटे कृत्य के पीछे भी एक ट्रिगर पॉइंट होता है। कोई ऐसी घटना होती है जो मन, दिमाग पर लगातार चोट करती रहती है।
साइबर फॉरेंसिक यानि कंप्यूटर, मोबाइल फ़ोन की जांच से ये जाहिर हुआ है कि आत्महत्या से पहले सुशांत सिंह राजपूत, बार बार गूगल पर अपना और मैनेजर दिशा सालियान का नाम सर्च कर रहे थे।डिप्रेशन से पीड़ित सुशांत, कभी मोबाइल फ़ोन पर तो कभी अपने लैपटॉप पर दिशा और अपना नाम टाइप करते और सारे लिंक सर्च करते और पढ़ते।आत्महत्या करने से पहले , ऐसी सर्च वे गूगल पर लगातार एक हफ्ते तक करते रहे।
लेकिन अपने देश में इसके उलट होता है। यहाँ मीडिया , खासकर कुछ न्यूज़ चैनल और वेबसाइट, तथ्यों से भी इतर, गढ़ी हुईं अंतरंग कथाओं को स्क्रीन पर उतारतें है। सबूतों से खुला खिलवाड़ किया जाता है और गरीब तबके से आने वाले गवाह( जैसे ड्राइवर, मेड, घरेलू नौकर, गॉर्ड) पैसे देकर स्टूडियो में बैठाये जाते है। इससे, अक्सर जांच का सत्यानाश होता है।
समय आ गया है क़ि देश में बलात्कार की घटनाओं की तरह सुसाइड रिपोर्टिंग पर भी कुछ सख्त मानक फॉलो कराये जाएँ।
सच तो ये है कि हमारे यहां सुसाइड रिपोर्टिंग के मानक है… पर देश के बड़े संपादक और मीडिया की निगरानी करने वाली मानक संस्थाएं सख्ती नहीं करतीं। और आखिरकार टीआरपी की अंधी दौड़ में पीड़ित परिवार के मानवाधिकार, जांच से जुड़े साक्ष्य और रिपोर्टिंग के मानक, तीनो की सच बोलने के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती है।
वैसे भी टीवी चैनल्स में आजकल सच, खालिस मुनाफे के लिए, अक्सर गढ़ा जाता है।