लखनऊ। जब राम जन्मभूमि आंदोलन का इतिहास लिखा जाएगा, तो एक इंसान की भूमिका हमेशा एक पहेली बनी रहेगी। हम बात कर रहे हैं पीवी नरसिम्हा राव की। पीवी नरसिम्हा राव को परिस्थिति की माँग के मुताबिक चीजों को लागू करने के लिए जाना जाता है।
पीवी नरसिम्हा राव को भारत में आर्थिक सुधार के युग की शुरुआत के लिए भी जाना जाता है। हालाँकि, 6 दिस्बर 1992 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव राम जन्मभूमि पर कारसेवकों द्वारा बाबरी मस्जिद को गिराते हुए चुपचाप देखते रहे।
इस बात को लेकर कॉन्ग्रेस पार्टी के भीतर उनके आलोचकों ने आरोप लगाया कि उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में आरोपित प्रमुख षड्यंत्रकारियों के साथ हाथ मिलाया था। यह आरोप लगाया जाता है कि वो पूरे घटनाक्रम से वाकिफ थे, उन्हें पता था कि क्या होने वाला है, इसके बावजूद उन्होंने चुप्पी साधे रखी और चीजों को होने दिया।
यह सच है कि जीवन के आखिरी चरण और उनके मरने के बाद भी पीवी नरसिम्हा राव को अपनी पार्टी से ज्यादा विपक्षी पार्टी के राजनेताओं का समर्थन मिला। राम मंदिर भूमि पूजन के साथ हमें बाबरी मस्जिद के विनाश के घातक दिन पर उनके कार्यों का मूल्यांकन करना चाहिए।
बता दें कि जिन दिनों विध्वंस होने वाला था, उन दिनों उन्होंने राज्य में भाजपा सरकार को खारिज करने पर विचार किया था। अपनी पुस्तक ‘अयोध्या: 6 दिसंबर 1992’ में नरसिम्हा राव का कहना है कि राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति हाथ से बाहर निकलने पर हस्तक्षेप के लिए केंद्र सरकार को सूचित करना राज्यपाल का विशेषाधिकार है।
इसके साथ नरसिम्हा राव ने लिखा कि हाल ही में अंतिम विध्वंस से पाँच दिन पहले, तब उत्तर प्रदेश के राज्यपाल सत्यनारायण रेड्डी ने केंद्र से सामान्य कानून और व्यवस्था की स्थिति के लिए संवाद किया था। इस दौरान चीजों के सांप्रदायिक पहलू पर विशेष तौर से बात की गई। यह वास्तव में संतोषजनक था। राज्यपाल की रिपोर्ट में कहा गया कि यद्यपि कारसेवक अयोध्या में बड़ी संख्या में एकत्रित हो रहे थे, मगर वे शांतिपूर्वक थे।
रिपोर्ट में कहा गया था, “ऐसी खबरें हैं कि बड़ी संख्या में कारसेवक अयोध्या पहुँच रहे हैं, लेकिन वे शांतिपूर्ण हैं। मेरी राय में, इस समय यूपी सरकार की बर्खास्तगी या राज्य विधानसभा को भंग करने या राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने जैसे कठोर कदम उठाने का समय नहीं है।”
नरसिम्हा राव ने अप्रत्यक्ष रूप से सुप्रीम कोर्ट पर कुछ दोषारोपण करते हुए कहा था, “अयोध्या में विवादित ढाँचे को पर्याप्त सुरक्षा देने के सीमित और विशिष्ट उद्देश्य के लिए केंद्र सरकार को रिसीवर बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का इनकार भी एक सार्थक संकेत है।”
नरसिम्हा राव ने राजीव गाँधी पर भी उँगली उठाई। उन्होंने कहा, “अयोध्या के विकास के लिए इंदिरा गाँधी की कई योजनाएँ थीं। इस भावनात्मक मुद्दे की राजनीतिक तनाव का असर इंदिरा गाँधी पर नहीं पड़ी। मगर उनकी मृत्यु के बाद, उनके बेटे ने प्रधानमंत्री का पदभार संभाला और तब से, विनाशकारी चरणों की एक शृंखला शुरू हुई।”
इस तरह, राव के अनुसार, वह संवैधानिक मानदंडों और ऐतिहासिक मिसाल से बँधे थे। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने निजी सचिव से कहा था, “लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को बिना किसी वैध कारण के एहतियात के तौर पर कैसे बर्खास्त किया जा सकता है? क्या यह संवैधानिक होगा? क्या हम एक असंवैधानिक रूप से असंवैधानिक कृत्य का सहारा ले रहे हैं?”
नरसिम्हा राव के पर्सनल फिजिशियन के श्रीनाथ रेड्डी का मानना है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दिन नरसिम्हा वास्तव में व्यथित थे। के श्रीनाथ रेड्डी ने उन दिनों को याद करते हुए बताया कि जब उन्होंने बाबरी मस्जिद को नीचे गिरते हुए देखा था, तो नरसिम्हा राव से मिलने पहुँचे थे। वो प्रधानमंत्री को लेकर चिंतित थे, जो कि दिल की बीमारी से पीड़ित थे।
रेड्डी ने बताया, “जैसा कि मुझे उम्मीद था, उनका दिल तेजी से धड़क रहा था … नाड़ी काफी तेज़ थी … बीपी बढ़ गया था। उनका चेहरा लाल हो रहा था, वे उत्तेजित थे।”
उन्होंने आगे कहा, “मैं एक डॉक्टर के रूप में काफी आश्वस्त हूँ कि विध्वंस के लिए उनकी व्यक्तिगत प्रतिक्रिया सच्ची व्याकुलता थी। यह उस व्यक्ति का नहीं था, जिसने इसकी योजना बनाई होगी या इसमें उनकी कोई संलिप्तता होगी।”
यदि उनके डॉक्टर की तत्कालीन स्वास्थ्य स्थिति का विवरण सटीक है, तो यह साबित होता है कि नरसिम्हा राव को यह पता नहीं था कि क्या होने वाला था। यह ज्ञात है कि वह व्यक्तिगत रूप से समाधान निकालकर दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थता स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे और हिंदू संगठन के नेताओं से यह आश्वासन लेने का प्रयास कर रहे थे कि मस्जिद क्षतिग्रस्त नहीं होगी।
ऐसा कहा जाता है कि नरसिम्हा राव ने 1992 के नवंबर का अधिकांश समय भाजपा के नेताओं के साथ गुप्त वार्ता में बिताया। इन वार्ताओं में क्या चर्चा हुई, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। हालाँकि उनके आलोचको का मानना है कि 6 दिसंबर 1992 को जो हुआ, उसमें वह भी शामिल थे।
राम जन्मभूमि के साथ कई और प्रकरण जुड़े हुए हैं। वैसे बाबरी विध्वंस में राव की भूमिका भी संभवतः आने वाले लंबे समय तक या फिर शायद, अनंत काल के लिए एक पहेली बनी रहेगी।