नई दिल्ली। अफगानिस्तान में अमेरिका ने बीते दो दशकों में अपने 3 हजार से अधिक जवानों को खोया और खरबों की राशि यहां पर खर्च की, लेकिन इसके नतीजे में उसको क्या हासिल हुआ। ये एक ऐसा सवाल है जिस पर मंथन कई वर्षों तक जारी रहेगा। दरअसल, तालिबान से हुए जिस समझौते पर अमेरिका अपनी पीठ थपथपा रहा है उसके कुछ बिंदु ऐसे हैं जो सीधेतौर पर अफगान सरकार से जुड़े हैं। वहीं इस पूरी प्रक्रिया में अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार कहीं भी नहीं थी। इसको विडंबना भी कहा जा सकता है कि अमेरिका ने महम अपनी फौज की वापसी को सुनिश्चित कराने के लिए एक मजबूरी के तहत इस समझौते को अंजाम दिया।
इस समझौते के एक बिंदु के मुताबिक अफगान सरकार तालिबान के 5 हजार कैदियों को रिहा करेगी, जबकि तालिबान एक हजार अफगान सरकार के कर्मियों को रिहा करेगा। लेकिन समझौते के महज 24 घंटे बाद ही अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने साफ कर दिया है कि समझौते में रखे गए इस बिंदु को तालिबान से भविष्य में होने वाली वार्ता से पहले किसी भी सूरत से कुबूल नहींं किया जा सकता है। उन्होंने ये भी कहा कि ये वार्ता में शामिल एक मुद्दा जरूर हो सकता है, लेकिन, वार्ता के लिए पूर्व शर्त के तौर पर भी इसको नहीं माना जा सकता है।
आपको यहांं पर ये भी बता दें कि तालिबान ने अमेरिका से समझौता होने के बाद ही अफगानिस्तान की सरकार से बातचीत की शर्त रखी थी। लेकिन इस समझौते पर अफगान सरकार की तरफ से किसी के शामिल न होने की वजह से इसमें रखे बिंदुओं को मानने के लिए अफगान सरकार बाधित भी नहीं है। इसकी वजह भी बेहद साफ है। इस समझौते का पूरा मकसद अमेरिकी सेना की वापसी पर टिका है। अमेरिका की तरफ से समझौते के बाद ये भी साफ कर दिया गया था अफगानिस्तान का भविष्य तालिबान और अफगान सरकार की सूझबूझ पर तय होगा।
समझौते की एक शर्त ये भी है कि भविष्य में अमेरिका अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में किसी भी तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। ये शर्त इस लिहाज से भी खास है क्योंकि अमेरिका अब भविष्य में इस तरफ मुड़कर देखने वाला नहीं है। लिहाजा यहां पर भी अफगान सरकार और तालिबान को ही अपने प्रभुत्व का इस्तेमाल करना होगा। अफगानिस्तान के भविष्य में उसका ही शासन होगा जो अपनी ताकत यहां पर साबित करेगा। लेकिन एक सच ये भी है कि इस मामले में वर्तमान में अफगान सरकार तालिबान के सामने ज्यादा कमजोर दिखाई दे रही है।
तालिबान को जहां पाकिस्तान का खुला समर्थन हासिल है वहीं कतर भी उसके साथ है। कतर में ही तालिबान का राजनीतिक कार्यालय भी है। वहीं एक सच्चाई ये भी है कि जहां अफगान सरकार भारत के सहयोग की हर क्षेत्र में अपेक्षा करती है वहीं तालिबान और पाकिस्तान दोनों ही भारत विरोधी नीतियों को बल देते रहे हैं। पाकिस्तान भी अपने पड़ोस में तालिबान हुकूमत की स्थापना को अपने लिए ज्यादा बेहतर मानता है। आपको बता दें कि इस समझौते में केवल अमेरिका और तालिबान प्रमुख रूप से शामिल थे। इसके अलावा पाकिस्तान इसका हिस्सा था। लिहाजा भविष्य में अफगान संकट को किस तरह से सुलझाया जाए इसको भी यही तय करेंगे। इसमें किसी अन्य देश की कोई भूमिका नहीं रहेगी।
आपको यहां पर ये भी बता दें कि इस समझौते पर दोहा में अमेरिका की तरफ से जालमे खाालिजाद और तालिबान के उप संस्थापक मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ने हस्ताक्षर किए थे। फिलहाल, ये कहना गलत नहीं होगा कि डोनाल्ड ट्रंप ने इस समझौते के जरिए अपना एक चुनावी दांव तो खेल दिया है लेकिन इसकी हकीकत ये भी है कि अफगानिस्तान इस समझौते के साथ बीच मझधार में एक बार फिर अकेला हो गया है। इस समझौते के परिणाम कुछ माह के अंदर ही दिखाई देने लग जाएंगे। फिलहाल तालिबान ने अपने लड़ाकों को हमले रोक देने का आदेश दे दिया है, लेकिन इस पर वो कब तक अमल करेगा ये देखना काफी दिलचस्प होगा। इसके साथ ही तालिबान अफगान राष्ट्रपति के बयान पर क्या प्रतिक्रिया देता है ये भी वहां के भविष्य का खाका खींचने में सहायक होगा।