दिल्ली के शाहीन बाग में चल रहा विरोध प्रदर्शन अब एक नवजात बच्ची की हत्या के लिए जिम्मेदार है। इस प्रदर्शन ने एक ऐसी मासूम की जान ले ली, जिसे यही नहीं पता था कि वो अपने माता-पिता की नासमझी के कारण किस तरह इस्तेमाल हो रही है। उसे सिर्फ़ इन मतलबी प्रदर्शनकारियों ने शाहीन बाग की साज-सज्जा की तरह पहले प्रयोग किया और फिर निराधार प्रदर्शन को बुजुर्ग से लेकर नवजात की लड़ाई बताया। मगर, जब उसकी मौत हो गई तो इन्हीं धूर्तों ने खुद से सवाल पूछने की जगह, अपनी मूर्खता को कोसने की जगह उसे इस लड़ाई में एक कुर्बानी बता दिया और बेशर्मी से कहा- अल्लाह की बच्ची थी, अल्लाह उसे ले गए।
इस बच्ची की तरह अनेकों बच्चे शाहीन बाग से लेकर कई जगह पर इन प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं। विशेष समुदाय के लोग अपने बच्चों को ऐसा करने के लिए उकसा रहे हैं। कट्टरपंथी इनका ब्रेनवॉश कर रहे हैं। इनसे सरेआम देश के प्रतिनिधियों को गाली दिलवाई जा रही है। इनसे आजादी के नारे लगवाए जा रहे हैं और हैरानी की बात है की मानवाधिकारों के नाम पर हल्ला मचाने वाला मीडिया गिरोह इन चीजों का समर्थन कर रहा है। द टेलीग्राफ की हालिया रिपोर्ट पढ़िए। अखबार ने इसके पाठकों को अलग ही स्तर पर बरगलाना शुरू कर दिया है। वे न केवल बेवकूफी को अपने एजेंडे के हिसाब से जस्टिफाई कर रहा है। प्रदर्शनों में बच्चों की सहभागिता पर उठते सवालों को हिंदू पौराणिक कथाओं से जोड़कर काउंटर करने के लिए कुतर्क भी कर रहा है।
जी हाँ। ऐसे माहौल में जब सीएए के विरोध में शाहीन बाग और अन्य प्रदर्शनस्थलों पर बैठे बच्चों को काउंसलिंग की सख्त जरूरत है कि कहीं वे गलत जानकारी पाकर कोई गलत कदम न उठा लें या फिर शरजील इमाम की तरह देशद्रोह की भावना अपने भीतर न उपजा लें। उस समय टेलीग्राफ अपनी रिपोर्ट में बाल अधिकारों के लिए लड़ने वाली दो कथित कार्यकर्ताओं के कुतर्कों का हवाला देकर अपने पाठकों तक ये बात पहुँचाना चाहता है कि भगवान कृष्ण जब साँप से लड़ रहे थे और जब भगवान राम-लक्ष्मण राक्षसों से लड़ रहे थे, तब वे सब टीनेजर थे।टेलीग्राफ ने इनाक्षी गांगुली और शंथा सिन्हा के हवाले से एनसीपीसीआर के निर्देशों पर सवाल उठाए हैं। राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार ने एंटी सीएए प्रोटेस्ट में बच्चों के इस्तेमाल को लेकर आगाह किया था।
हैरानी की बात है कि एजेंडायुक्त पत्रकारिता के लिए ये लोग टीनएजर और इन्फेंट के अंतर को भुला चुके हैं। ये भूल चुके हैं कि जिन पौराणिक गाथाओं का प्रयोग करके इस प्रदर्शन में बच्चों के गलत इस्तेमाल को सही बताने की कोशिश हो रही है और जिसके लिए NCPCR के निर्देश पर सवाल उठा रहे हैं, वो उतना ही बेबुनियाद है, जितना की ये पूरा प्रदर्शन।
एनसीपीसीआर के आदेश के आगे ये कुतर्क बिलकुल नहीं चल सकता कि हिंदुओं की पौराणिक कथाओं में क्या था, क्योंकि उनकी महत्ता और संदर्भ बिलकुल अलग है। इसे समझ पाना तथाकथित बुद्धिजीवियों के बूते की बात नहीं।
चाइल्ड राइट्स को स्टेट संरक्षित करता है। नॉर्वे जैसे तमाम देशों में अगर माता-पिता अपने बच्चों को पीटते हैं तो सरकार उन्हें अलग कर देती है। अगर उनकी परवरिश ठीक से नहीं हो रही हो तो सरकार उन्हें अपने संरक्षण में लेती है। इसलिए दो महीने और दो साल के बच्चों के अधिकार का बहाना बनाना वाहियात तर्क है।
इस बात पर विचार कीजिए कि संसद में पास हुए कानून पर अपना पक्ष या अपना विरोध केवल वही रख सकता है जिसमें राजनैतिक/सामाजिक रूप से सोचने-समझने की क्षमता हो। लेकिन क्या आपको प्रदर्शन पर बैठे अधिकांश लोगों की उल-जुलूल बाते सुनकर ऐसा लगता है कि उनके अंदर ये क्षमता है? शायद नहीं। बिना किसी तर्क और उदाहरण के प्रदर्शनकारियों द्वारा एक ही बात को दोहराना दर्शाता है कि उन्हें ये सारी बातें सिखाई जा रहीं हैं। इस्लामिक कट्टरपंथी इन प्रदर्शनों के जरिए अपने मंसूबों को खुलेआम अंजाम दे रहे हैं। इसलिए, ऐसी जगहों पर किसी को खींच कर विरोध में लाना या उसे कड़ाके की ठंड में बिठाए रखना, उसका ब्रेनवॉश करने की कोशिश करना, उसका इस्तेमाल करना, उसके अधिकारों का हनन है, क्योंकि उसको अगर कोई नुकसान पहुँचता है तो वो उसकी परवरिश में हुई चूक होगी। अगर वो मर जाए, तो यह हत्या ही है। जैसे शाहीन बाग में नवजात की हुई।