अभिरंजन कुमार
1947 में जो 10 लाख लोग देश विभाजन की बलि चढ़े, क्या उनकी शहादत की स्मृति, उन्हें श्रद्धांजलि देने और उनसे माफी मांगने के लिए समूचे भारत में कोई भी स्मृति स्थल नहीं होना चाहिए, जहां देश के नेता और नागरिक उन मृतात्माओं से माफी मांगें और आने वाली पीढ़ियों को बताएं कि जो गलती राष्ट्र के पिता और चाचा ने की, उसे आगे कभी मत दोहराना?
या फिर लोकतंत्र को अपनाने का ढोंग करते हुए भी हमारी मूल भावना यही है कि नेतागण पूज्य और आराध्य होते हैं, लेकिन जनता कीड़े-मकोड़ों समान होती है?एक-एक नेता के नाम पर हमने न जाने कितनी सड़कें, स्कूल, अस्पताल, विश्वविद्यालय, मूर्तियां, चौक-चौराहे, स्मारक बनवा रखे हैं, लेकिन उन 10 लाख अभागों के लिए हमने एक अदद स्मारक भी क्यों नहीं बनवाया, जो कुछ लोगों की सत्ता-लोलुपता या धर्मान्धता और कट्टरता के कारण बलि चढ़ गए?
यहां तक कि विश्व युद्धों, जिनसे भारत का कोई लेना-देना नहीं था और अंग्रेजों के कारण हमारे कुछ लोगों को उनमें शामिल होना पड़ा, में शहीद हुए लोगों के लिए भी स्मारक बने हुए हैं। आखिर यह देश इतना असंवेदनशील और अमानवीय कैसे हो सकता है, जो एक-एक नेता के लिए सदियों आंसू बहाए और अपने 10 लाख बेगुनाह और निरीह नागरिकों के लिए किसी का एक रोआं तक न सिहरे?
मैं भारत सरकार से 1947 विभाजन की बलि चढ़े नागरिकों की आत्मा की शांति के लिए दिल्ली में एक विशाल राष्ट्रीय स्मारक सह संग्रहालय व पुस्तकालय बनवाने की मांग करता हूँ, जहां देश के विभाजन से जुड़े तमाम ग्रंथों और दस्तावेजों को उपलब्ध कराया जाए।
यह स्मारक देश के नागरिकों को अहसास दिलाता रहेगा कि विभाजन की त्रासदी क्या होती है, सम्प्रदायिकता और धर्मान्धता के असली मायने क्या हैं, देश के नागरिकों का राष्ट्रवादी व मानवतावादी होना क्यों ज़रूरी है और किन गलतियों से बचते हुए भविष्य में दोबारा ऐसी परिस्थितियां पैदा होने से रोका जा सकता है। शुक्रिया।