इंदिरा गाँधी की पुण्यतिथि को याद करने के दो कारण हैं – पहला कारण जिससे सभी वाकिफ हैं कि देश ने एक प्रधानमंत्री खोया, जिसे खुदके ही सुरक्षाकर्मियों ने गोली मार कर मौत के घाट उतार दिया। मगर कुछ ही लोग याद रख पाते हैं कि आज के ही दिन से दिल्ली से लेकर देश के कोने-कोने में सिख विरोधी दंगा हुआ। यह एक ऐसा नरसंहार था, जिसे भारत के इतिहास में दर्ज सबसे सुनियोजित नरसंहार कहना गलत नहीं होगा। लेकिन क्या यही एक धब्बा है, जो कॉन्ग्रेस के गाल पर लगा है? ऐसा नहीं है कि पीएम इंदिरा की हत्या पर सत्तारूढ़ कॉन्ग्रेस ने ऐसी दुर्भावना से नरसंहार को पहली बार बढ़ावा दिया हो। इंदिरा के बेटे और बाद में प्रधानमंत्री बनने वाले राजीव गाँधी ने तब बयान दिया था, “जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास की धरती हिलती ही है।”
उनका यह बयान इतना समझने के लिए काफी है कि इंसानियत को लेकर कॉन्ग्रेस पार्टी की नीयत कैसी रही है और किस तरीके से इन्होंने सुख-दुःख में साथ देने वाली जनता को ही समय-समय पर मौत के घाट उतार दिया। समय-समय पर इसलिए लिखा गया ताकि याद रहे कि 84 के उलट 48 में भी एक दंगा हुआ था, कॉन्ग्रेसियों ने ही कराया था। इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद जो हुआ, वो लगभग सबको याद है या सोशल मीडिया की पहुँच से सब तक जानकारी के रूप में पहुँच चुकी है लेकिन 1948 को भी याद रखना जरूरी है, ताकि कॉन्ग्रेस के असली DNA को पहचाने सकें। तब महात्मा गाँधी की हत्या के बाद हजारों ब्राह्मणों का नरसंहार कॉन्ग्रेस ने करवाया था।
बहुत कम लोग जानते हैं कि 1948 में महात्मा गाँधी की हत्या के बाद देश में एक भयावह नरसंहार हुआ था। गाँधी के मुस्लिम तुष्टिकरण के रवैये से नाराज़ होकर नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी को उन्हें गोली मार दी थी। नाथूराम पर जब मुकदमा चला तो उसे अपनी करनी की सज़ा अदालत ने दी। इस हत्याकांड के लिए गोडसे को अम्बाला की एक जेल में फाँसी दे दी गई मगर तत्कालीन सत्तारूढ़ कॉन्ग्रेस पार्टी ने गाँधी की हत्या होते ही नरसंहार की आग को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी। गाँधी के भक्तों और पार्टी के अनुयाइयों ने गोडसे की जाति के लोगों को निशाना बनाया।
नाथूराम गोडसे पुणे (आज के महाराष्ट्र) में जन्मे थे और हिन्दू धर्म के चितपावन ब्राह्मण जाति से ताल्लुक रखते थे। इसी को मोहरा बना कर तत्कालीन सत्तारूढ़ दल और कॉन्ग्रेस हाईकमान के इशारे पर पूरे राज्य में निवास करने वाले चितपावन ब्राह्मणों का क़त्ल किया गया। 31 जनवरी से लेकर 3 फरवरी तक पुणे में ब्राह्मणों के खिलाफ हिंसा का ज़बरदस्त नंगा नाच चला। देखते ही देखते हिंसा की यह चिंगारी जंगल की आग की तरह आग चितपावन ब्राह्मणों की बहुतायत वाले इलाको में फ़ैल गई। इनमें सांगली, कोल्हापुर, सातारा शामिल हैं जहाँ सैंकड़ों लोग मारे गए, हज़ारों घरों को आग के हवाले कर दिया गया, स्त्रियों के साथ बलात्कार हुए ।
आज़ाद भारत का सबसे पहला नरसंहार यही था, जिसमें असंख्य ब्राह्मणों की नृशंस हत्या कर दी गई। अहिंसा के पुजारी गाँधी का पार्थिव शरीर जिस वक़्त माटी का अपना अंतिम क़र्ज़ चुकाने के लिए चिता पर रखा जाना था, उस वक़्त पुणे और आसपास के इलाकों में न जाने कितने ब्राह्मणों का नरसंहार हो रहा था। यह नरसंहार हिंदुस्तान के इतिहास के उन पन्नों में दर्ज है, जिसके घटनाक्रमों का ज़िक्र किसी ने कभी नहीं किया। उस ज़माने में भी इस सम्बन्ध में अखबार में खबरें कम ही आईं हालाँकि विदेश के अख़बारों ने इस पर रिपोर्ट छापी थी। उनकी रिपोर्ट के मुताबिक हत्या की घटना के अगले ही दिन 31 जनवरी 1948 को मुंबई में 15 लोगों की हत्या की गई थी।
उस वक्त की घटनाओं का वर्णन करने वाली किताब ‘गांधी एंड गोडसे’ में भी इसके प्रमाण मिलते हैं कि ब्राह्मणों के खिलाफ उस वक़्त काफी भयंकर माहौल बना दिया गया था, चितपावन ब्राह्मण समुदाय के लोगों की हत्याएँ आम हो गई थीं। इस पर भी जब कॉन्ग्रेस का मन नहीं भरा तो वहाँ ब्राह्मणों का सामूहिक बहिष्कार किया गया।
किताब ‘गांधी एंड गोडसे’ किताब के चैप्टर-2 के उप-शीर्षक 2.1 में मॉरिन पैटर्सन के उद्धरणों में इस बात का ज़िक्र किया गया है। अपने उद्धरण में मॉरिन ने बताया है कि कैसे गाँधी के अनुयाइयों द्वारा फैलाई जा रही इस हिंसा में ब्राह्मणों के प्रति नफरत फैलाने वाले संगठनों ने भी हवा दी। इनमें कुछ ऐसे संगठन भी थे जिनका नाम ज्योतिबा फुले से जुड़ा है।
इस किताब में बताया गया है कि महात्मा गाँधी और सावरकर दोनों ही लोग वैचारिक रूप में एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न थे। इस असहमति को आधार बनाकर अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी के अनुयाइयों की भारी संख्या वाली भीड़ ने स्वतंत्रता आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले वीर सावरकर के घर को ही घेर लिया। इस किताब में ज़िक्र है कि खुद को गाँधी और उनकी पार्टी का कहने वालों की उस भीड़ में करीब 500-1000 लोग थे, जिन्होंने हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दफ्तर में भी तोड़फोड़ की थी।
उस वक़्त लेखक मॉरीन ने दंगाग्रस्त इलाकों का दौरा किया था। उस समय के अपने संस्मरण को उद्धृत कर उन्होंने लिखा है कि पुलिस के दखल के बाद जाकर कहीं इस भीड़ से सावरकर को शारीरिक क्षति से बचा लिया गया हालाँकि उन्होंने यह भी बताया कि दंगे को लेकर पुलिस ने कभी कोई भी सरकारी रिकॉर्ड उनसे शेयर नहीं किया। कई विश्लेषक मानते हैं कि अगर इस नरसंहार का आँकलन किया जाय तो 1948 का ब्राह्मण नरसंहार 1984 में हुए सिख दंगे से किसी मायने में भी कम नहीं है।
देश में दंगों का सिलसिला बँटवारे के पहले से होता आ रहा है मगर आज़ादी के बाद इसे नियंत्रित कर ख़त्म कर देना जिनके जिम्मे था, उन्होंने इसे पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ़ किसी विरासत की तरह आगे बढ़ाया। अफसोस कि ये सत्ता की मलाई भी चापते रहे!