अजीत भारती
ये किसी से छुपा नहीं है कि रवीश कुमार पिछले पाँच सालों में स्वयं को पत्रकारिता का एकमात्र सत्यापनकर्ता मान चुके हैं। ‘धंधे’ को लेकर आलोचना करना एक बात है, लेकिन आलोचना के चक्कर में ये बताने लगना कि धंधा अगर कोई कर रहा है, तो वो स्वयं ही कर रहे हैं, बाकी तो बस ऐसे ही हैं, बताता है कि आपके दिमाग में टार भर चुका है और आप बीमार, बहुत बीमार हो चुके हैं।
आज सुबह ही मेरे बगल के गाँव रजौड़ा से आए एक मित्र ने मुझे रवीश कुमार और बिहार के एक कद्दावर जद(यू) नेता के बीच हुई बातचीत का आँखों देखा हाल सुनाया। लोकसभा चुनावों के दौरान रवीश जी उनके दरवाजे पर भी पहुँचे, नेताजी का राजनैतिक अनुभव दशकों का है, तो बातचीत हुई। अंत में नेता जी ने पूछा कि रवीश जी क्या चुनाव कवर करने आए हैं? तो रवीश जी ने हँसते हुए कहा कि वो तो ‘चुनाव प्रचार’ में आए हैं। नेता जी ने एक लाइन आगे कही, और संवाद उत्तर की कमी के कारण खत्म हो गया, “अगर देश के पत्रकार और बुद्धिजीवी भी चुनाव प्रचार करने लगें तो देश का क्या होगा?”
रवीश कुमार के पास उत्तर नहीं था क्योंकि कैमरे के सामने हर दिन पत्रकारिता की अग्नि में ‘जल रही है चंद्रकांता’ टाइप का भाव लिए रवीश कुमार देश के आदर्श पत्रकार बने फिरते हैं, लेकिन उनके लेखों से एक अलग स्तर का नैतिक पतन दिखता है। आज उन्होंने हिन्दुस्तान के एक पत्रकार की अयोध्या दीपोत्सव की रिपोर्टिंग का उपहास करते हुए, व्यंग्यात्मक लहजे में उसे एक बेकार पत्रकार कहा है।
रवीश के पास मोदी की दूसरी पारी शुरू होने और भाजपा को लगातार मजबूत होते देखने के इस दौर में अब कोने पर बैठे उस बुजुर्ग की तरह व्यवहार करने के अलावा कोई काम नहीं बचा, जो हर आते-जाते व्यक्ति पर दो लाइन बोल कर गरिया देता है कि उसका बाप भी ऐसा ही था, लेकिन उसका कोई मतलब नहीं होता। ऐसे ही गालीबाज बुजुर्गों की धोती में उद्दंड बालक दीवाली में पटाखे बाँध कर भाग जाते हैं और वो बचने के चक्कर में धोती उतार कर बगल की नाली में कूद जाता है।
रवीश कुमार अपनी ही पोस्ट के कमेंट में ऐसे ही अपने धोती में हर दिन पटाखे पा रहे हैं, और नंगे हो कर नाली में भी कूद रहे हैं, लेकिन सुधरना नहीं है। अब नाम ले कर बताने में लगे हुए हैं कि पत्रकारिता कैसे होनी चाहिए, और ये कि किसकी पत्रकारिता को पुलित्जर मिलना चाहिए। रवीश कुमार को इन्हीं मौकों पर अपना ही चलाया हैशटैग याद करना चाहिए और सोचना चाहिए कि ‘रवीश जी आपसे उम्मीद है’ कहने वालों की उम्मीद पर उन्होंने कैसे पानी फेरा है।
यह रिपोर्ट तीन पैराग्राफ की है जिसमें बताया गया है कि अयोध्या के दीपोत्सव में कैसे राम, सीता और लक्ष्मण के रूपों को हेलिकॉप्टर से उतारा गया और वहाँ कौन-कौन थे। साथ ही, रिपोर्टर ने लिखा है कि यह दृश्य ऐसा था जिसे महसूस किया जा सकता है, बयाँ करना मुश्किल है। इसी लाइन से रवीश जी की सबसे ज़्यादा सुलग गई। ‘सुलग गई’ का प्रयोग बस इस कारण कर रहा हूँ क्योंकि अयोध्या में लाखों दीपक जल रहे थे और उसके ताप को रवीश ने ऐसा महसूस किया कि इस अपमानजनक तरीके से बयाँ करने से रह नहीं पाए!
रिपोर्टर ने एक सपाट-से रिपोर्ट को अपनी भाषाई क्षमता से रुचिकर बनाने की कोशिश की है। पत्रकारिता में यह भी पढ़ाया जाता है कि शब्दों को कैसे पिरोएँ, कैसे उन्हें पर्याय और उपमानों की मदद से पठनीय बनाएँ। जब कोई इस तरह का भव्य आयोजन होता है तो आलंकारिक भाषा का प्रयोग आम है। ये ठीक वैसे ही है जैसे कि रवीश कुमार जब टीवी पर गोरखपुर आपदा पर आपसे कहते हैं कि उस माँ के दर्द को महसूस कीजिए जिसके हाथ में उसका मरा हुआ बच्चा है, तो आप एक लेख लिख कर रवीश का मजाक नहीं उड़ाते कि महसूस कैसे करें।
आप यह तब भी नहीं लिखते जबकि आपको पता है रवीश जैसे मीडिया गिरोह के गिरहकट पत्रकारों की संवेदना उस माँ के साथ नहीं, वो उस पार्टी और व्यक्ति के खिलाफ अपना अजेंडा चला रहा है जिसे वो सत्ता में आने से, स्टूडियो से हर रात रैली करने के बाद भी, रोक नहीं पाया। इसलिए रवीश मुख्यमंत्री के वहाँ होने को ‘मुख्यमंत्री के स्तर’ का आदमी लिख देता है। इससे मुख्यमंत्री या उस रिपोर्टर के स्तर से ज्यादा रवीश के स्तर का पता चलता है।
रवीश प्रोपेगेंडा गिरोह का सबसे बड़ा चेहरा है। इसलिए वो प्राइम टाइम से परे अब नींद में अपनी घृणा प्रसारित करता रहता है। रवीश आज भी 33 कोटि का मतलब मूर्खों की तरह 33 करोड़ ही मानता है, प्रकार नहीं। रवीश आज भी यही मानता है कि सरकारों के पास धर्म और संस्कृति के लिए अलग बजट नहीं होता इसलिए वो ऐसे लिखता है जैसे कि भारत की सारी गरीबी दीये के तेल से ही मिट जाएगी।
इसी बीच रवीश कुमार जो भूल जाता है वो यह बात है कि पाँच करोड़ दीयों और उसमें डाली गई घी न तो खुदाई से निकलते हैं, न ही बारिश में बरसती है। वो दीये किसी गरीब कुम्हार ने बनाए होंगे और वो घी किसी किसान के गाय के दूध से बनी होगी। लेकिन जब आग स्थान विशेष में लगी हो तो सामान्य ज्ञान और बुद्धि अक्सर चितरा नछत्तर के झाँट (फुहारों) में गायब हो जाती है।
रवीश को उन तस्वीरों से दिक्कत नहीं होती जहाँ हिन्दू नेता मुसलमानों से ज्यादा मुसलमान बनने की कोशिश में बस नकली दाढ़ी ही नहीं लगाते, बाकी टोपी से ले कर कंधों पर विशेष तरह की गमछी और दुआ में बुदबुदाते होंठ तक इफ्तार पार्टियों में दिख जाते थे, और हैं। उसका बजट रवीश चाहें तो आरटीआई के माध्यम से पता कर सकते हैं।
कुल मिला कर रवीश कुमार के लिए भारत में बस एक खाद्य मंत्रालय ही होना चाहिए जो कि लोगों को भोजन बाँटता रहे। जब तक कोई भी भूखा है, तब तक न तो इसरो का रॉकेट छोड़ा जाए, न ही किसी को कार खरीदने की अनुमति होनी चाहिए। क्यों? क्योंकि देश में इतने लोग गरीब हैं और आप हैं कि कार से चल रहे हैं। रवीश का कटाक्ष इतनी ही सड़ाँध फैलाती लॉजिक पर आधारित है।
रवीश ने अपने ही व्यवसाय के एक रिपोर्टर का उपहास किया है क्योंकि वो ऐसा कर सकता है। वो ऐसा इसलिए कर सकता है क्योंकि उसे लगता है कि पत्रकारिता के अंतिम बचे घराने का अंतिम तबलची बस वही है और बाकी लोग तो फ़्यूज़न बजा कर संगीत का नाश कर रहे हैं। रवीश का यह लेख उसके द्वारा अपनी घटिया मनोवृत्ति के प्रदर्शन से उस गड्ढे में एक और सीढ़ी बनाने जैसा है, जहाँ से रवीश जब ऊपर देखेगा तो वहाँ अंधेरा दिखेगा क्योंकि खोदते-खोदते रवीश बहुत नीचे जा चुका होगा, जहाँ से उसके सुधार के उम्मीद की किरण प्रकाश के तरंग प्रकृति के सिद्धांत के बावजूद नहीं दिखेगी।
रवीश ने मजाक उड़ाते हुए लिखा है कि किस-किस कॉलेज के पाठ्यक्रम में इस रिपोर्ट को शामिल करना चाहिए। ये स्वयं को सर्वज्ञ मानने जैसा है। रवीश को लगता है कि स्कूल-कॉलेजों में उसका प्राइम टाइम चलाया जाए, और उसके फेसबुक पोस्ट पर ग्रुप डिस्कशन के कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ। ऐसा संभव नहीं दिखता क्योंकि रवीश कुमार बहुत कुछ हैं, लेकिन अब पत्रकारिता उनसे उतर नहीं रही।
इसके लिए अब रवीश खैनी खाएँ या बैठ कर कुथते रहें, ये कब्जियत नहीं मिटेगी। रवीश जी के दिमाग में कब्ज हो गया है। उनको कमोड में माथा घुसा कर हर रोज तीन बार फ्लश करना चाहिए। इससे होगा कुछ नहीं लेकिन ऐसा सोचने में बहुत आनंद मिलता है।