राजेश श्रीवास्तव
भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की तरफ बढ़ रही है। 2०16-17 में जीडीपी विकास दर 8.2% थी, 2०18-19 में वो 5.8% पर पहुंच गई है। देश के सबसे बड़े बैंक एसबीआई की रिसर्च के मुताबिक 2०19-2० की पहली तिमाही में यह और नीचे जाकर 5.6% पर पहुंचने की आशंका है।
निजी उपभोग भारत के विकास की रीढ़ है। जीडीपी में इसका योगदान 6०% है। लेकिन इसमें गिरावट दर्ज की जा रही है। 2०18-19 की दूसरी तिमाही से इसमें लगातार गिरावट दर्ज हुई है। यह गिरावट आगे चलकर अर्थव्यवस्था को और नीचे ले जाएगी। चूंकि निम्न और मध्यम आय वाली कामकाजी आबादी के लिए उपभोग का खर्च सीधे आय से जुड़ा हुआ है। यह भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा है। इसलिए यह जरूरी है कि उपभोग की मांग को बढ़ाने के लिए लोगों की आय में सुधार किया जाए।
आर्थिक सर्वे कहता कि वर्ष 2०15-16 में कुल बचत, जीडीपी का 31.1% थी जो कि 2०17-18 में गिरकर 3०.5% हो गई. इसमें पूरी तरह से घरेलू क्षेत्र की बचत का योगदान होता है जो 2०11-12 में जीडीपी का 23.6% थी और 2०17-18 में घटकर जीडीपी का 17.2% हो गई। बचत में इस गिरावट के चलते निवेश दर भी नीचे चली गई है।
अध्ययन कहता है कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में कुछ साल पहले तक आय डबल डिजिट्स में बढ़ रही थी। 2०1०-11 में शहरी आय में वृद्धि 2०.5% तक पहुंच गई थी, लेकिन यह 2०18-19 में गिरकर सिगल डिजिट पर आ गई है। इसी तरह ग्रामीण आय में वृद्धि 2०13-14 में 27.7% थी, यह पिछले तीन वर्षों में गिरकर 5% से नीचे आ गई है। यह बताता है कि उच्च विकास का यह चरण अस्थिर था।
अंधी गली में भारत की अर्थव्यवस्था(भाग-5)
2०18 के आरबीआई की एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उच्च स्तरीय विकास के एक चरण के बाद ग्रामीण क्षेत्रों की आय काफी कम हो गई है। यह गिरावट नवंबर 2०14 के बाद शुरू हुई और ’’घटती मुद्रास्फीति कभी-कभार आय में मामूली वृद्धि के साथ वास्तविक वेतन वृद्धि को नकारात्मक क्षेत्र में धकेल देती है’’। इस चरण को ’’ग्रामीण संकट’’ की अवधि के रूप में चिन्हित किया गया है। इस पेपर में 2००7 से 2०13 के बीच ग्रामीण आय में बढ़ोत्तरी के लिए मुख्यत: दो बातों को कारण के रूप में दिखाया गया है। एक मनरेगा का लागू होना और उसकी त्वरित प्रगति और दूसरा निर्माण क्षेत्र का अच्छा विकास। बाद में इन दोनों में ही उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई। नकारात्मक कृषि विकास दर ने ग्रामीण को आय को प्रभावित किया। इसमें यह भी कहा गया है कि 2०14-15 और 2०15-16 में सामान्य के कम मानसून ने कृषि क्षेत्र के विकास को कमजोर किया. हालांकि, 2०16-17 में मानसून सामान्य होने के चलते ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार तो हुआ लेकिन इससे कृषि आय में कोई खास उछाल नहीं आया। दो बेहतरीन वर्षों के बाद, 2०18-19 में कृषि विकास फिर से नीचे चली गई और 2०18-19 की अंतिम तिमाही में नकारात्मक हो गई।
एक अन्य कारक जिसने आय में वृद्धि को रोक दिया है वह है कामगारों को उचित मुआवजा न मिलना। इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन की 2०18 की इंडिया वेज रिपोर्ट कहती है कि मजदूरों की आय और श्रम उत्पादकता के बीच तालमेल नहीं रखा गया है। औसत श्रम उत्पादकता, वास्तविक औसत आय की तुलना में बहुत तेजी से बढ़ी है और लेबर क्लास का हिस्सा (राष्ट्रीय आय का अनुपात जो पूंजीपतियों या भूस्वामियों के मुकाबले श्रम क्षतिपूर्ति में जाता है) 1981 में जो 38.5% था, वह 2०13 में 35.4% पर आ गया। इसमें यह भी कहा गया है कि हाल के वर्षों में श्रमिकों की हिस्सेदारी को मापने के लिए आंकड़ों में भी कमी आई है। सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में भी कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम बढ़ रहा है जिससे संगठित और असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की आय में उल्लेखनीय अंतर देखने को मिल रहा है। 2०19 के अध्ययन में कहा गया है कि अस्थायी कर्मचारियों के मुकाबले स्थायी कर्मचारियों का वेतन औसतन डेढ़ गुना ज्यादा होती है। आर्थिक सर्वे 2०15-16 में भी कहा गया है कि असंगठित क्षेत्र के मुकाबले संगठित क्षेत्र के लोगों का वेतन औसतन 2० गुना ज्यादा है। 2०17 में सरकार ने न्यूनतम आय की राष्ट्रीय दर तय करने के लिए एक एक्सपर्ट कमेटी गठित की थी। इसने सेक्टर, कौशल, व्यवसाय, शहरी और ग्रामीण क्षेत्र आदि के अलावा शहरी क्षेत्रों के लिए न्यूनतम 375 रुपये प्रतिदिन (9,75० प्रति माह) और 55 रुपये घर किराया भत्ता देने की सिफारिश की थी। लेकिन केंद्रीय कैबिनेट ने इस सिफारिश को किनारे कर दिया और मौजूदा 176 की न्यूनतम आय में 2 रुपये की बढ़ोत्तरी करते हुए इसे 178 कर दिया. कैबिनेट ने यूनिवर्सल मिनिमम वेज संबंधी आर्थिक सर्वे 2०18-19 की उस सिफारिश को भी दरकिनार किया जिसमें कहा गया था कि न्यूनतम वेतन एक बेंचमार्क के रूप में कार्य करता है जो आर्थिक रूप से कमजोर श्रमिकों की खरीद शक्ति को बढ़ाता है।